कामायनी – जयशंकर प्रसाद

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हिम गिरी के उत्तंग शिखर पर‚
बैठ शिला की शीतल छांह‚
एक पुरुष‚ भीगे नयनों से‚
देख रहा था प्र्रलय प्रवाह!

नीचे जल था‚ ऊपर हिम था‚
एक तरल था‚ एक सघन;
एक तत्व की ही प्रधानता‚
कहो उसे जड़ या चेतन।

दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान;
नीरवता सी शिला चरण से
टकराता फिरता पवमान।

तरुण तपस्वी–सा वह बैठा‚
साधन करता सुर श्मशान;
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का‚
होना था सकरुण अवसान।

उसी तपस्वी से लम्बे‚ थे
देवदारु दो चार खड़े;
हुए हिम धवल‚ जैसे पत्थर
बन कर ठिठुरे रहे अड़े।

अवयव की दृढ़ मांस–पेशियां‚
ऊर्जस्वित था वीय्र्य अपार;
स्फीत शिराएं‚ स्वस्थ रक्त का
होता था जिनमें संचार।

चिंता–कातर वदन हो रहा
पौरुष जिसमे ओत प्रोत;
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत।

बंधी महा–वट से नौका थी
सूखे में अब पड़ी रही;
उतर चला था वह जल–प्लावन‚
और निकलने लगी मही।

निकल रही थी मर्म वेदना‚
करुणा विकल कहानी सी;
वहां अकेली प्रकृति सुन रही‚
हंसती सी पहचानी सी।

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