चिट्ठी है किसी दुखी मन की – कुंवर बेचैन

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बर्तन की यह उठका पटकी
यह बात बात पर झल्लाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

यह थकी देह पर कर्मभार
इसको खांसी उसको बुखार
जितना वेतन उतना उधार
नन्हें मुन्नों को गुस्से में
हर बार मार कर पछताना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

इतने धंधे यह क्षीणकाय
ढोती ही रहती विवश हाय
खुद ही उलझन खुद ही उपाय
आने पर किसी अतिथि जन के
दुख में भी सहसा हँस जाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

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