मैं तो वही खिलौना लूँगा – सियारामशरण गुप्त

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‘मैं तो वही खिलौना लूँगा’
मचल गया दीना का लाल
खेल रहा था जिसको लेकर
राजकुमार उछाल–उछाल।

व्यथित हो उठी माँ बेचारी –
था सुवर्ण – निर्मित वह तो!
‘खेल इसी से लाल, – नहीं है
राजा के घर भी यह तो!’

‘राजा के घर! नहीं नहीं माँ
तू मुझको बहकाती है,
इस मिट्टी से खेलेगा क्यों
राजपुत्र, तू ही कह तो?’

फेंक दिया मिट्टी में उसने
मिट्टी का गुड्डा तत्काल
‘मैं तो वही खिलौना लूँगा’ –
मचल गया दीना का लाल

‘मैं तो वही खिलौना लूँगा’
मचल गया शिशु राजकुमार, –
वह बालक पुचकार रहा था
पथ में जिसको बारंबार

‘वह तो मिट्टी का ही होगा,
खेलो तुम तो सोने से’
दौड़ पड़े सब दास – दासियाँ
राजपुत्र के रोने से।

मिट्टी का हो या सोने का,
इनमें वैसा एक नहीं
खेल रहा था उछल–उछल कर
वह तो उसी खिलौने से।

राजहठी ने फेंक दिए सब
अपने रजत – हेम – उपहार,
‘लूँगा वही, वही लूँगा मैं!‘
मचल गया वह राजकुमार।

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