रश्मिरथी – रामधारी सिंह दिनकर

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मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
सब लोग हुए हित के कामीऌ
पर, ऐसा भी था एक समय,
जब यह समाज निष्ठुर निर्दय,

किंचित न स्नेह दर्शाता था,
विषव्यंग सदा बरसाता था।

अपना विकास अवरुद्ध देख,
सारे समाज को क्रुद्ध देख,
भीतर जब टूट चुका था मन,
आ गया अचानक दुर्योथन।

निश्छल, पवित्र अनुराग लिये,
मेरा समस्त सौभाग्य लिये।

कुंती ने केवल जन्म दिया,
राधा ने मां का कर्म किया,
पर, कहते जिसे असल जीवन,
देने आया वह दुर्योधन।

वह नहीं भिन्न माता से है,
बढ़ कर सोदर भ्राता से है।

है ऋणी कर्ण का रोम रोम,
जानते सत्य यह सूर्य सोम,
तन, मन, धन दुर्योधन का है,
यह जीवन दुर्योधन का है।

सुर पुर से भी मुख मोड़ूंगा,
केशव! न उसे मैं छोड़ूंगा।

धन राशि जोगना लक्ष्य नहीं,
साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं,
भुजबल से कर संसार­विजय,
अगणित समृद्धियों का संचय,

दे दिया मित्र दुर्योधन को,
तृष्णा छू भी न सकी मन को।

मुझ से मनुष्य जो होते हैं,
कंचन का भार न ढोते हैं।।
पाते हैं धन बिखराने को,
लाते हैं रतन लुटाने को।

जग से न कभी कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं।

प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ न होता है,
कंचन पर कभी न सोता है।

बसता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में।
हो कर समृद्धि सुख के अधीन,
मानव होता नित तपः क्षीण,
सत्ता, किरीट, मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण।

नर विभव हेतु ललचाता है,
पर वही मनुज को खाता है।

चांदनी, पुष्पछाया में पल,
नर बने भले सुमधुर, कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिये बिना,
आतप अंधड़ में जिये बिना।

वह पुरुष नहीं कहला सकता,
विघ्नों को नहीं हिला सकता।

उड़ते जो झंझावातों में,
पीते जो वारि प्रपातों में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,

वे ही फणिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं।

मैं गरुड़ कृष्ण! मैं पक्षिराज,
सिर पर न चाहिये मुझे ताज।
दुर्योधन पर है विपद घोर,
सकता न किस विधि उसे छोड़।

रणखेत पाटना है मुझको,
अहिपाश काटना है मुझको।

संग्राम­सिंधु लहराता है,
सामने प्रलय घहराता है,
रह रह कर भुजा फड़कती है,
बिजली सी नसें कड़कती हैं।

चाहता तुरत में कूद पड़ूं,
जीतूं या समर में डूब मरूं।

अब देर नहीं कीजे केशव!
अवसेर नहीं कीजे केशव!
धनु की डोरी तन जाने दें,
संग्राम तुरत ठन जाने दें।

ताण्डवी तेज लहराएगा,
संसार ज्योति कुछ पायेगा।

अच्छा, अब चला प्रणाम आर्य!
हों सिद्ध समर के शीघ्र कार्य।
रण में ही अब दर्शन होगा,
शर से चरण स्पर्शन होगा।

जय हो, दिनेश नभ में विहरें,
भूतल में दिव्य प्रकाश भरें।

रथ से राधेय उतर आया,
हरि के मन में विस्मय छाया,
बोले कि वीर! शत बार धन्य,
तुझसा न मित्र कोई अनन्य।

तू कुरुपति का ही नहीं प्राण,
नरता का है भूषण महान।

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