सखी वे मुझ से कह कर जाते – मैथिली शरण गुप्त

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सखी वे मुझ से कह कर जाते,
कह तो क्या वे मुझको अपनी पग बाधा ही पाते?

मुझको बहुत उन्होंनें माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।

सखी वे मुझ से कह कर जाते।

स्वयं सुसज्जित कर के क्षण में,
प्रियतम को प्राणों के पण में,
हम ही भेज देती हैं रण में ­
क्षात्र धर्म के नाते।

सखी वे मुझ से कह कर जाते।

हुआ न यह भी भाग्य अभागा,
किस पर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागाऌ
रहे स्मरण ही आते!

सखी वे मुझ से कह कर जाते।

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे आंसू जो बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते?
गये तरस ही खाते!

सखी वे मुझ से कह कर जाते।

जाएं, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूं मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते!

सखी वे मुझ से कह कर जाते।

गये लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते गाते?

सखी वे मुझ से कह कर जाते।

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