सूर्य अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र || Surya Ashtottara Shatnam Stotra

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महाभारत वनपर्व के अरण्यपर्व के अंतर्गत अध्याय तीन में युधिष्ठिर द्वारा सूर्य उपासना का वर्णन हुआ है। यहाँ जनमेजय ने वैशम्पायन जी से पूछने पर कि- भगवन! पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों के भरण-पोषण के लिए जिनका दर्शन अत्यन्त अद्भुत है, उन भगवान सूर्य की अराधना किस प्रकार की? तब वैशम्पायन द्वारा सूर्य के एक सौ आठ नामों का वर्णन हुआ। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजेन्द्र! मैं सब बातें बता रहा हूँ। तुम सावधान, पवित्र और एकाग्रचित्त होकर सुनो और धैर्य रखो। महाते! धौम्य ने जिस प्रकार महात्मा युधिष्ठिर को पहले भगवान सूर्य के एक सौ आठ नाम बताये थे इनका वर्णन करता हूँ सुनो। इस प्रकार धौम्य ने श्रीसूर्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् कहते हुए बाले कि- ये अमित तेजस्वी भगवान सूर्य के कीर्तन करने योग्य एक सौ आठ नाम हैं, जिनका उपदेश साक्षात ब्रह्मजी ने किया है।

जो कोई अन्य पुरुष भी मन को संयम में रखकर चित्तवृत्तियों को एकाग्र करके इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वर भी माँगे तो भगवान सूर्य उसकी मनवांछित वस्तु को दे सकते हैं। जो प्रतिदिन इस स्तोत्र को धारण करता अथवा बार-बार सुनता है, वह यदि पुत्रार्थी हो तो पुत्र पाता है, धन चाहता हो तो धन पाता है, विद्या की अभिलाषा रखता हो तो उसे विद्या प्राप्त होती है और पत्नी की इच्छा रखने वाले पुरुष को पत्नी सुलभ होती है। स्त्री हो या पुरुष यदि दोनों संध्याओं के समय इस स्तोत्र का पाठ करता है, तो आपत्ति में पड़कर भी उससे मुक्त हो जाता है। बन्धन में पड़ा हुआ मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह स्तुति सबसे पहले ब्रह्मा जी ने महात्मा इन्द्र को दी, इन्द्र ने नारद जी से और नारद जी ने धौम्य से इसे प्राप्त किया। धौम्य से इसका उपदेश पाकर राजा युधिष्ठिर ने अपनी सब कामनाएँ प्राप्त कर लीं। जो इसका अनुष्ठान करता है, वह सदा संग्राम में विजयी होता है, बहुत धन पाता है, सब पापों से मुक्त होता है और अन्त में सूर्यलोक को जाता है।अतः इसे सूर्यवरदस्तोत्रम् भी कहा जाता है।

|| श्रीसूर्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् अथवा सूर्यवरदस्तोत्रम् ||

॥ सङ्कल्प॥

श्रीसूर्यनारायणदेवतामुद्दिश्य प्रीत्यर्थं,

श्रीसूर्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रमहामन्त्रपठनं करिष्ये ॥

अस्य श्रीसूर्याष्टोतरशतनामस्तोत्रमहामन्त्रस्य, ब्रह्मा ऋषिः,

अनुष्टुप्च्छन्दः, श्रीसूर्यनारायणो देवता ।

ह्रां बीजं, ह्रीं शक्तिः ह्रूं कीलकं,

श्रीसूर्यनारायणदेवताप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

न्यासौ – करन्यासः हृदयन्यासः

ओं ह्रां अघोर श्रीसूर्यनारायणाय – अङ्गुष्ठाभ्यां नमः – हृदयायनमः

ॐ ह्रीं चतुर्वेदपारायणाय – तर्जनीभ्यां नमः – शिरसेस्वाहा

ॐ ह्रूं उग्रभयङ्कराय – मध्यमाभ्यां नमः – शिखायै वषट्

ॐ हैं श्रीसूर्यनारायणाय – अनामिकाभ्यां नमः – कवचाय हुं

ॐ हौं कौपीनमौञ्जीधराय – कनिष्ठिकाभ्यां नमः – नेत्रत्रयाय वौषट्

ओं ह्रं सहस्रकिरणाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः – अस्त्राय फट्

भूर्भुवस्स्वरोमिति दिग्बन्धः ॥

ध्यानं

सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम् ।

वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम् ॥

लमिति पञ्चपूजां कृत्वा गुरुध्यानं कुर्यात् ।

सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कस्सविता रविः ।

गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रजापतिः ॥

वैशम्पायन उवाच ।

श्रृणुष्वावहितो राजन् शुचिर्भूत्वा समाहितः ।

क्षणं च कुरु राजेन्द्र गुह्यं वक्ष्यामि ते हितम् ॥ १॥

धौम्येन तु यथा प्रोक्तं पार्थाय सुमहात्मने ।

नाम्नामष्टोत्तरं पुण्यं शतं तच्छृणु भूपते ॥ २॥

सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः ।

गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः ॥ ३॥

पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम् ।

सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च ॥ ४॥

इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः ।

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः ॥ ५॥

वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः ।

धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः ॥ ६॥

कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वामराश्रयः ।

कला काष्ठा मुहुर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा ॥ ७॥

संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः ।

पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः ॥ ८॥

लोकाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः ।

वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा ॥ ९॥

भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः ।

स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः ॥ १०॥

अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः ।

जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता ॥ ११॥

मनः सुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारणः ॥

धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः ॥ १२॥

द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः ।

स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम् ॥ १३॥

देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः ।

चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेण वपुषान्वितः ॥ १४॥

एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यैव महात्मनः ।

नाम्नामष्टशतं पुण्यं शक्रेणोक्तं महात्मना ॥ १५॥

शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यश्च तदनन्तरम् ।

धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान् ॥ १६॥

सुरपितृगणयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम् ।

वरकनकहुताशनप्रभं त्वमपि मनस्यभिधेहि भास्करम् ॥ १७॥

सूर्योदये यस्तु समाहितः पठेत्स पुत्रलाभं धनरत्नसञ्चयान् ।

लभेत जातिस्मरतां सदा नरः स्मृतिं च मेधां च स विन्दते पराम् ॥ १८॥

इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः ।

विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान् ॥ १९॥

श्रीसूर्यनारायणपरब्रह्मार्पणमस्तु ।

॥ इति श्रीमहाभारते युधिष्ठिरधौम्यसंवादे आरण्यकपर्वणि श्रीसूर्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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