यमाष्टक || Yamashtak

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भगवान यमराज को समर्पित यह यमाष्टक सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करानेवाला और भगवान विष्णु की भक्ति बढ़ानेवाला है।

|| यमाष्टक ||

श्रीव्यास उवाच-

स्वपुरुषमभिवीक्ष्य पाशहस्तं वदति यमः किल तस्य कर्णमूले।

परिहर मधुसूदनप्रपन्नान् प्रभुरहमन्यनृणां न वैष्णवानाम्।।१।।

अहममरगणार्चितेन धात्रा यम इति लोकहिताहिते नियुक्तः।

हरिगुरुविमुखान् प्रशास्मि मर्त्यान् हरिचरण प्रणतान्नमस्करोमि।।२।।

सुगतिमभिलषामि वासुदेवा दहमपि भागवते स्थितान्तरात्मा।

मधुवधवशगोऽस्मि न स्वतन्त्रः प्रभवति संयमने ममापि कृष्णः ।।३।।

भगवति विमुखस्य नास्ति सिद्धिर्विषममृतं भवतीति नेदमस्ति।

वर्षशतमपीह पच्यमानं व्रजति न कांचनतामयः कदाचित् ।।४।।

नहि शशिकलुषच्छविः कदाचिद्विरमति नो रवितामुपैति चन्द्रः।

भगवति च हरावनन्यचेता भृशमलिनोऽपि विराजते मनुष्यः।।५।।

महदपि सुविचार्य लोकतत्त्वं भगवदुपास्तिमृते न सिद्धिरस्ति।

सुरगुरु सुदृढ़प्रसाददौ तौ हरिचरणौ स्मरतापवर्गहेतोः।।६।।

शुभमिदमुपलभ्य मानुषत्वं सुकृतशतेन वृथेन्द्रियार्थहेतोः।

रमयति कुरुते न मोक्षमार्ग दहयति चन्दनमाशु भस्महेतोः।।७।।

मुकुलितकरकुड्मलैः सुरेन्द्रैः सतत नमस्कृतपादपंकजो यः।

अविहतगतये सनातनाय जगति जनिं हरते नमोऽग्रजाय।।८।।

फलश्रुति-

यमाष्टकमिदं पुण्यं पठते यः श्रृणोति वा।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।९।।

इतीदमुक्तं यमवाक्यमुत्तमं मयाधुना ते हरिभक्तिवर्द्धनम् ।।१०।।

यमाष्टक भावार्थ
व्यासजी बोले- अपने किंकर को हाथ में पाश लिये कहीं जाने को उद्यत देखकर यमराज उसके कान में कहते हैं- दूत! तुम भगवान् मधुसूदन की शरण में गये हुए प्राणियों को छोड़ देना; क्योंकि मेरी प्रभुता दूसरे मनुष्यों पर ही चलती है, वैष्णवों पर मेरा प्रभुत्व नहीं है। देवपूजित ब्रह्माजी ने मुझे ‘यम’ कहकर लोगों के पुण्य पाप का विचार करने के लिये नियुक्त किया है। जो विष्णु और गुरु से विमुख हैं, मैं उन्हीं मनुष्यों का शासन करता हूं। जो श्री हरि के चरणों में शीश झुकाने वाले हैं, उन्हें तो मैं स्वयं ही प्रणाम करता हूं। भगवद्भक्तों के चिंतन एवं स्मरण में अपना मन लगाकर मैं भी भगवान् वासुदेव से अपनी सुगति चाहता हूं। मैं मधुसूदन के वश में हूं, स्वतंत्र नहीं हूं। भगवान् विष्णु मेरा भी नियंत्रण करने में समर्थ हैं। जो भगवान् से विमुख है, उसे कभी मुक्ति सिद्ध नहीं हो सकती; विष अमृत हो जाये, ऐसा कभी सम्भव नहीं है; लोहा सैकड़ों वर्षों तक आग में तपाया जाये, तो भी कभी सोना नहीं हो सकता। चन्द्रमा की कलंकित कान्ति कभी निष्कलंक नहीं हो सकती; वह कभी सूर्य के समान प्रकाशमान नहीं हो सकता; परंतु जो अनन्यचित्त होकर भगवान् विष्णु के चिंतन में लगा है, वह मनुष्य अपने शरीर से अत्यन्त मलिन होने पर भी बड़ी शोभा पाता है। महान् लोकतत्त्व का अच्छी तरह विचार करने पर भी यही निश्चित होता है कि भगवान् की उपासना के बिना सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है; इसलिये देवगुरु बृहस्पति के ऊपर सुदृढ़ अनुकम्पा करने वाले भगवच्चरणों का तुम लोग मोक्ष के लिये स्मरण करते रहो। जो लोग सैकड़ों पुण्यों के फलस्वरुप इस सुन्दर मनुष्य शरीर को पाकर भी व्यर्थ विषयसुखों में रमण करते हैं, मोक्षपथ का अनुसरण नहीं करते, वे मानो राख के लिये जल्दी-जल्दी चन्दन की लकड़ी को फूंक रहे हैं। बड़े-बड़े देवेश्वर हाथ जोड़कर मुकुलित कर पंकज कोष द्वारा जिन भगवान् के चरणारविन्दों को प्रणाम करते हैं तथा जिनकी गति कभी और कहीं भी प्रतिहत नहीं होती, उन भवजन्मनाशक एवं सबके अग्रज सनातन पुरुष भगवान् विष्णु को नमस्कार है। श्रीव्यास जी कहते हैं- इस पवित्र यमाष्टक को जो पढ़ता या सुनता है, वह सब पापों से मुक्त हो विष्णुलोक चला जाता है। भगवान् विष्णु की भक्ति को बढ़ाने वाला यमराज का यह उत्तम वचन मैंने इस समय तुमसे कहा है।

इस यमाष्टक का नित्य पूजन में भक्तिमय पाठ करने से मनुष्य यमपाश से मुक्त होकर भगवान् विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त करता है। वैष्णव पद्धति द्वारा दीक्षित होकर विशेष संख्या में यमाष्टक पाठ करने से मनुष्य महान संकट से छूटकर परमसौभाग्य प्राप्त करता है।

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