कुम्हलाये हैं फूल – ठाकुर गोपाल शरण सिंह

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कुम्हलाये हैं फूल

अभी–अभी तो खिल आये थे
कुछ ही विकसित हो पाये थे
वायु कहां से आकर इन पर
डाल गयी है धूल
कुम्हलाये हैं फूल

जीवन की सुख–घड़ी न पायी
भेंट न भ्रमरों से हो पायी
निठुर–नियति कोमल शरीर में
हूल गयी है शूल
कुम्हलाये हैं फूल

नहीं विश्व की पीड़ा जानी
निज छवि देख हुए अभिमानी
हँसमुख ही रह गये सदा ये
वही एक थी भूल
कुम्हलाये हैं फूल

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