नवम्बर की दोपहर – धर्मवीर भारती

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अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है
जार्जेट के पीले पल्ले–सी यह दोपहर नवम्बर की।

आयीं गयीं ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी
जो कंवारेपन के कच्चे छल्ले–सी
इस मन की उंगली पर
कस जाये और फिर कसी ही रहे
नित प्रति बसी ही रहे
आँखों, बातों में, गीतों में,
आलिंगन में, घायल फूलों की माला–सी
वक्षों के बीच कसमसी ही रहे।

भीगे केशों में उलझे होंगे थके पंख
सोने के हंसों सी धूप यह नवम्बर की
उस आँगन में भी उतरी होगी
सीपी के ढालों पर केसर की लहरों सी
गोरे कंधों पर फिसली होगी बन आहट
गदराहट बन–बन ढली होगी अंगों में।

आज इस बेला में
दर्द ने मुझको,
और दोपहर ने तुमको,
तनिक और भी पका दिया।

शायद यही तिल–तिल कर पकना रह जाएगा
साँझ हुए हंसों सी दोपहर पाखें फैला
नीले कोहरे की झीलों में उड़ जाएगी,
यह है अनजान दूर गाँवों से आयी हुई
रेल के किनारे की पगडंडी
कुछ देर संग–संग दौड़–दौड़
अकस्मात् नीले खेतों में मुड़ जाएगी…

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