बुनी हुई रस्सी – भवानी प्रसाद मिश्र

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बुनी हुई रस्सी को घुमाएं उल्टा
तो वह खुल जाती है
और अलग अलग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे

मगर कविता को कोई
खोले ऐसा उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह
क्योंकि अनुभव तो हमें
जितने इसके माध्यम से हुए हैं
उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों से
व्यक्त वे जरूर हुए हैं यहां

कविता को बिखरा कर देखने से
सिवा रेशों के क्या दिखता है
लिखने वाला तो
हर बिखरे अनुभव के रेशों को
समेटकर लिखता है।

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