मधुशाला – हरिवंश राय बच्चन

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मृदु भावों के अंगूरों की
आज बना लाया हाला‚
प्रियतम‚ अपने ही हाथों से
आज पिलाऊंगा प्याला‚
पहले भोग लगा लूं तेरा
फिर प्रसाद जग पाएगाऌ
सबसे पहले तेरा स्वागत
करती मेरी मधुशाला।

मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीने वाला‚
‘किस पथ से जाऊं?’ असमंजस
में है वह भोला भाला‚
अलग अलग पथ बतलाते सब‚
पर मैं यह बतलाता हूं —
‘राह पकड़ तू एक चलाचल‚
पा जाएगा मधुशाला’

धर्मग्रंथ सब जला चुकी है
जिसके अंतर की ज्वाला‚
मंदिर‚ मस्जिद‚ गिरजे सबको
तोड़ चला जो मतवाला‚
पंडित‚ मोमिन‚ पाादरियों के
फंदे को जो काट चुका‚
कर सकती है आज उसी का
स्वागत मेरी मधुशाला।

बजी न मंदिर में घड़ियाली‚
चढ़ी न प्रतिमा पर माला‚
बैठा अपने भवन मुअज़्ज़िन
देकर मस्जिद में ताला‚
लुटे खज़ाने नरपतियों के‚
गिरी गढ़ी की दीवारें‚
रहें मुबारक पीने वाले‚
बनी रहे यह मधुशाला।

बड़े बड़े परिवार मिटें यों‚
एक न हो रोने वाला‚
हो जाएं सुनसान महल वे‚
जहां थिरकती सुरबाला‚
राज्य उलट जाएं भूपों की
भाग्य–लक्ष्मी सो जाए‚
जगे रहेंगे पीनेवाले‚
जगा करेगी मधुशाला।

एक बरस में एक बार ही
जगती होली की ज्वाला‚
एक बार ही लगती बाजी
जलती दीपों की माला‚
दुनियावालो किंतु किसी दिन
आ मदिरालय में देखो‚
दिन को होली‚ रात दिवाली‚
रोज मनाती मधुशाला।

बनी रहें अंगूर लताएं
जिनसे मिलती है हाला‚
बन्ी रहे वह मिट्टी जिससे
बनता है मधु का प्याला‚
बनी रहे वह मदिर पिपासा
तृप्त न जो होना जाने‚
बने रहें वे पीने वाले‚
बनी रहे वह मधुशाला।

मुसलमान औ’ हिंदू हैं दो‚
एक मगर उनका प्याला‚
एक मगर उनका मदिरालय‚
एक मगर उनकी हाला‚
दोनो रहते एक न जब तक
मंदिर‚ मस्जिद में जाते‚
लड़वाते हैं मंदिर‚ मस्जिद
मेल कराती मधुशाला।

अपने युग में सबको अनुपम
ज्ञात हुई अपनी हाला‚
अपने युग में सबको अदभुत्
ज्ञात हुआ अपना प्याला‚
फिर भी वृद्धों से जब पूछा
एक यही उत्तर पाया‚
अब न रहे वे पीने वाले‚
अब न रही वह मधुशाला।

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