अग्निपुराण अध्याय ४ || Agni Puran Cdhyay 4, अग्निपुराण चौथा अध्याय

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अग्निपुराण अध्याय ४ में वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम अवतार की कथा का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ४ – वराहाद्यवतारवर्णनम्

अग्निरुवाच

अवतारं वराहस्य वक्ष्येऽहं पापनाशनम् ।

हिरण्याक्षोऽसुरेशोऽभूद् देवान् जित्वा दिवि स्थितः ।। १ ।।

देवैर्गत्वा स्तुतो विष्णुर्यज्ञरूपो वराहकः ।

अभूत् तं दानवं हत्वा दैत्यैः साकञ्च कण्टकम् ।। २ ।।

धर्मदेवादिरक्षाकृतं ततः सोऽन्तर्द्दधे हरिः।

हिरण्याक्षस्य वै भ्राता हिरण्यकशिपुस्तथा ।। ३ ।।

जितदेवयज्ञभागः सर्वदेवाधिकारकृत् ।

नारसिंहवपुः कृत्वा तं जघान सुरैः सह ।। ४ ।।

स्वपदस्थान् सुरांश्चक्रे नारसिंहः सुरैः स्तुतः।

देवासुरे पुरा युद्धे बलिप्रभृतिभिः सुराः ।। ५ ।।

जिताः स्वर्गात्परिभ्रप्टा हरिं वै शरणं गताः।

सुराणाममयं दत्त्वा अदित्या कश्यपेन च ।। ६ ।।

स्तुतोऽसौ वामनो भूत्वा ह्यदित्यां स क्रतुं ययौ।

बलेः श्रीयजमानस्य, राजद्वारेऽगृणात् श्रुतिम् ।। ७ ।।

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं वराहावतार की पापनाशिनी कथा का वर्णन करता हूँ। पूर्वकाल में हिरण्याक्षनामक दैत्य असुरों का राजा था। वह देवताओं को जीतकर स्वर्ग में रहने लगा। देवताओं ने भगवान् विष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति की। तब उन्होंने यज्ञवाराहरूप धारण किया और देवताओं के लिये कण्टक रूप उस दानव को दैत्यों सहित मारकर धर्म एवं देवताओं आदि की रक्षा की। इसके बाद वे भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये। हिरण्याक्ष के एक भाई था, जो हिरण्यकशिपुके नाम से प्रसिद्ध था। उसने देवताओं के यज्ञभाग अपने अधीन कर लिये और उन सबके अधिकार छीनकर वह स्वयं ही उनका उपभोग करने लगा। भगवान्ने नृसिंहरूप धारण करके उसके सहायक असुरों सहित उस दैत्य का वध किया। तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवताओं को अपने-अपने पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। उस समय देवताओं ने उन नृसिंह का स्तवन किया।

पूर्वकाल में देवता और असुरों में युद्ध हुआ। उस युद्ध में बलि आदि दैत्यों ने देवताओं को परास्त करके उन्हें स्वर्ग से निकाल दिया। तब वे श्रीहरि की शरण में गये। भगवान्ने उन्हें अभयदान दिया और कश्यप तथा अदिति की स्तुति से प्रसन्न हो, वे अदिति के गर्भ से वामनरूप में प्रकट हुए। उस समय दैत्यराज बलि गङ्गाद्वार में यज्ञ कर रहे थे। भगवान् उनके यज्ञ में गये और वहाँ यजमान की स्तुति का गान करने लगे ॥ १-७ ॥

वेदान् पठन्तं तं श्रुत्वा वामनं वरदोऽब्रवीत् ।

निवारितोऽपि शुक्रेण बलिर्ब्रूहि यदिच्छसि ।। ८ ।।

त्तत्तेऽहं सम्प्रदास्यामि,वामनो बलिमब्रवीत् ।

पदत्रयं हि गुर्वर्थं देहि दास्ये तमब्रवीत् ।। ९ ।।

तोये तु पतिते हस्ते वामनोऽभूदवामनः।

भूर्लोकं स भुवर्लोकं स्वर्लेकञ्च पदत्रयम् ।। १० ।।

चक्रे बलिञ्च सुतलं तच्छक्राय ददौ हरिः।

शक्रो देवैर्हरिं स्तुत्वा भुवनेशः सुखीं त्वभूत् ।। ११ ।।

वक्ष्ये परशुरामस्य चावतारं श्रृणु द्विज।

उद्वतान् क्षत्रियान् मत्वा भूभारहाणाय सः ।। १२ ।।

अवतीर्णो हरिः शान्त्यै देवविप्रादिपालकः।

जमदग्ने रेणुकायां भार्गवः शस्त्रपारगः ।। १३ ।।

दत्तात्रेयप्रसादेन कार्त्तवीर्यो नृपस्त्वभूत्।

सहस्त्रबाहुः सर्वोर्वीपतिः स मृगयां गतः ।। १४ ।।

वामन के मुख से वेदों का पाठ सुनकर राजा बलि उन्हें वर देने को उद्यत हो गये और शुक्राचार्य के मना करने पर भी बोले- ब्रह्मन् ! आपकी जो इच्छा हो, मुझसे माँगें मैं आपको वह वस्तु अवश्य दूँगा।वामन ने बलि से कहा- मुझे अपने गुरु के लिये तीन पग भूमि की आवश्यकता है; वही दीजिये।बलि ने कहा- अवश्य दूँगा।तब संकल्प का जल हाथ में पड़ते ही भगवान् वामन अवामनहो गये। उन्होंने विराट् रूप धारण कर लिया और भूर्लोक, भुवर्लोक एवं स्वर्गलोक को अपने तीन पगों से नाप लिया। श्रीहरि ने बलि को सुतललोक में भेज दिया और त्रिलोकी का राज्य इन्द्र को दे डाला। इन्द्र ने देवताओं के साथ श्रीहरि का स्तवन किया। वे तीनों लोकों के स्वामी होकर सुख से रहने लगे।

ब्रह्मन् ! अब मैं परशुरामावतार का वर्णन करूँगा, सुनो। देवता और ब्राह्मण आदि का पालन करनेवाले श्रीहरि ने जब देखा कि भूमण्डल के क्षत्रिय उद्धत स्वभाव के हो गये हैं, तो वे उन्हें मारकर पृथ्वी का भार उतारने और सर्वत्र शान्ति स्थापित करने के लिये जमदग्रि के अंश द्वारा रेणुका के गर्भ से अवतीर्ण हुए। भृगुनन्दन परशुराम शस्त्र-विद्या के पारंगत विद्वान् थे। उन दिनों कृतवीर्य का पुत्र राजा अर्जुन भगवान् दत्तात्रेयजी की कृपा से हजार बाँहें पाकर समस्त भूमण्डल पर राज्य करता था । एक दिन वह वन में शिकार खेलने के लिये गया ।। ८- १४ ॥

श्रान्तो निमन्त्रितोऽरण्ये मुनिना जमदग्निना।

कामधेनुप्रभावेण भोजितः सबलो नृपः ।। १५ ।।

अप्रार्थयत् कामधेनुं यदा स न ददौ तदा।

हृतवानथ रामेण शिरश्छित्त्वा निपातितः ।। १६ ।।

युद्धे परशुना राजा धेनुः स्वाश्रममाययौ ।

कार्त्तवीर्यस्य पुत्रस्तु जमदग्निर्निपातितः ।। १७ ।।

रामे वनं गते वैरादथ रामः समागतः।

पितरं निहतं दृष्ट्वा पितृनाशाभिमर्षितः ।।१८।।

त्रिः सप्तकृत्वः पृथिवीं निःक्षत्रामकरोद्विभुः।

कुरुश्रेत्रे पञ्च कुण्डान् कृत्वा सन्तर्प्य वै पितृन् ।। १९ ।।

काश्यपाय महीं दत्त्वा महेन्द्रे पर्वते स्थितः।

कूर्म्मस्य च वराहस्य नृसिंहस्य च वामनम् ।। २० ।।

अवतारं च रामस्य श्रुत्वा याति दिवं नरः ।। २१ ।।

वहाँ वह बहुत थक गया। उस समय जमदग्नि मुनि ने उसे सेना सहित अपने आश्रम पर निमन्त्रित किया और कामधेनु के प्रभाव से सबको भोजन कराया। राजा ने मुनि से कामधेनु को अपने लिये माँगा; किंतु उन्होंने देने से इनकार कर दिया। तब उसने बलपूर्वक उस धेनु को छीन लिया। यह समाचार पाकर परशुरामजी ने हैहयपुरी में जा उसके साथ युद्ध किया और अपने फरसे से उसका मस्तक काटकर रणभूमि में उसे मार गिराया। फिर वे कामधेनु को साथ लेकर अपने आश्रम पर लौट आये। एक दिन परशुरामजी जब वन में गये हुए थे, कृतवीर्य के पुत्रों ने आकर अपने पिता के वैर का बदला लेने के लिये जमदग्नि मुनि को मार डाला। जब परशुरामजी लौटकर आये तो पिता को मारा गया देख उनके मन में बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने इक्कीस बार समस्त भूमण्डल के क्षत्रियों का संहार किया। फिर कुरुक्षेत्र में पाँच कुण्ड बनाकर वहीं उन्होंने अपने पितरों का तर्पण किया और सारी पृथ्वी कश्यप मुनि को दान देकर वे महेन्द्र पर्वत पर रहने लगे। इस प्रकार कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन तथा परशुराम अवतार की कथा सुनकर मनुष्य स्वर्गलोक में जाता है ॥ १५ – २१ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये वराहनृसिंहाद्यवतारो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।।

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराण में वराह, नृसिंह, वामन तथा परशुरामावतार की कथा का वर्णननामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

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