अहंकार क्या है और कितने प्रकार का होता है Ahankar Kya Hai aur Kitne Prakar ka Hota Hai

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जब हमारा मन अपने आप को अज्ञानता के कारण सर्वश्रेष्ठ मानने लगता है , तो उसे अहंकार की संज्ञा दी जाती है। अपने गुणों को ही संसार में सर्वश्रेष्ठ समझकर औरों को दीन, हीन ,नीच ,कमजोर समझना और देखना अहंकार की श्रेणी में आता है। अहंकार दो शब्दों के मेल से बना हुआ है।

अहम और कार अर्थात स्वयं की रचना करना या खुद की पहचान “मैं ” “मेरा” इत्यादि से जोड़ लेना यह मेरा मकान है, यह मेरी दुकान है, यह मेरी जमीन है इत्यादि। हम अपने आसपास मौजूद चीजों को अपने आप से जोड़ लेते हैं। और उसी के आधार पर स्वयं को परिभाषित करने लगते हैं।

 कोई हमारे साथ जुड़ी हुई चीजों पर यदि उंगली भी रख दे तो यह बात हमारे “अहम “पर आ जाती है। इसमें  कोई बुराई नहीं है। इतना सभी में होना चाहिए कि उसे अपने आसपास मौजूद चीजों से प्रेम हो। वह अपने आसपास मौजूद चीजों से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करें।

लेकिन यही चीज जब अति हो जाती है। तो सभी चीजों को खुद से न परिभाषित कर, आप अन्य चीजों को अपने आप से परिभाषित करने लगते हैं। जैसे मैं हूं तो यह काम हो रहा है। मेरे सिवा इस काम को कोई और नहीं कर सकता। जहां मैं। यानी कि अपने होने की प्रबलता एवं दृढ़ता हो जाए वही अहंकार है।

रामायण में रावण का अहंकार

रावण की पत्नी मंदोदरी ने रावण से कई बार विनती की, कि वह भगवान राम की पत्नी सीता को सम्मान के साथ  वापस कर दे। और अपने किए की माफी मांग ले। लेकिन रावण अपने अहंकार के वशीभूत होकर अपनी पत्नी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उसे यह अहंकार था कि वह विश्व विजेता है उसका यह बंदरों की सेना और भगवान राम कुछ नहीं बिगाड़ सकते। ब्रह्मांड में कोई इतना बलशाली नहीं है जो उसे हरा सके उसको यह अहंकार था।

महाभारत में दुर्योधन का अहंकार

भगवान श्री कृष्ण ने धृतराष्ट्र के दरबार में दुर्योधन की उपस्थिति में संधि का प्रस्ताव रखा।निवेदन किया कि यदि पांडवों को 5 गांव ही दे दिए जाएं तो युद्ध टल सकता है।लेकिन अहंकार के वशीभूत दुर्योधन ने उनको सुई की नोक के बराबर भी जमीन देने से इनकार कर दिया। परिणाम स्वरूप महाभारत जैसा विशाल युद्ध हुआ जिसमें करोड़ों लोग मारे गए।

अहंकार के प्रकार- Ahankar ke Prakar

अहंकार मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है

1-शारीरिक अहंकार जिसे तमोगुण अहंकार कहा जाता है।

2-मानसिक व बौद्धिक अहंकार जिसे रजोगुण अहंकार कहा जाता है।

3-आत्मिक अहंकार जिसे सतोगुण अहंकार कहा जाता है।

1- शारीरिक अहंकार जिसे तमोगुण अहंकार कहा जाता है।

जो व्यक्ति अपने शरीर को सब कुछ मानता है ।और रात दिन अपने रूप व अपने परिवार व अपने सहयोगियों के संयुक्त बल पर  पर अहंकार करता है। अच्छे और बुरे मार्गों से धन एकत्रित करके कीमती वस्त्र भोजन आदि करता है। और अनेक सुविधाओं का वह विषय भोग से शरीर को सुखी रखने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार के व्यक्तियों के अहंकार को तमोगुड़ी अहंकार कहा जाता है। यह  निकृष्ट श्रेणी का अहंकार है।

तमोगुड़ी अहंकार वाले व्यक्ति जरा -जरा सी बात पर उलझ जाते हैं ।और वह लड़ाई- झगड़ा मारपीट आदि करते हैं।अपराधिक वृत्ति  के जो भी लोग देखने को मिलते हैं वह तमोगुण अहंकार के शिकार होते हैं।

2-मानसिक व् बौद्धिक  अहंकार जिसे रजोगुण अहंकार कहा जाता है।

जो लोग नाना प्रकार की सुख सुविधा, धन, संपदा, पद, प्रतिष्ठा, मान, सम्मान, उच्च शिक्षा का अभिमान करते हैं और इन सब की प्राप्ति के लिए हमेशा जुटे रहते हैं।

इस प्रकार के अहंकार को रजोगुडी मध्यम श्रेणी का अहंकार कहा जाता है।

समाज में अधिकतर लोग इस प्रकार के अहंकार के शिकार होते हैं। जिसको लोग स्वाभिमान का नाम देते हैं।

इस प्रकार के व्यक्ति को अपने नाम, मान और बढ़ाई की हमेशा चिंता बनी रहती है। यह लोग अपनी मान, प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए परोपकार भी करते हैं और धार्मिक आयोजनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं। जिससे समाज व दुनिया में उनका नाम फैले।

 यह लोग ऐसा प्रयत्न करते हैं कि हर तरह की सुख सुविधा का अपने जीवन में आनंद उठा सकें। बड़े-बड़े तपस्वी ,महात्मा और फकीर भी इससे वंचित नहीं हो सके। इस मिथ्या अभिमान के बंधन में पड़े हुए देखे जा सकते हैं। फिर संसार में लिप्त लोगों की बात ही क्या?

3-आत्मिक अहंकार जिसे सतोगुण अहंकार कहा जाता है।

आत्मिक अहंकार वाला व्यक्ति पूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित होकर सभी कार्य करता है। वह अपने को सबसे दीन ,हीन समझता है। और लोगों की सेवा करता है और उपकार करता है। पूरी तरह से निराभिमानी होकर कार्य करता है। वह सोचता है कि ईश्वर के बनाए हुए सभी लोग हैं उन्हीं में से मैं भी एक हूं। सेवा करना हमारा धर्म है। वह प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर को देखकर उसकी सेवा करता है।वह समझता है कि ईश्वर ने बड़ी कृपा करके उसको बनाया है ।और मैं उसकी लीला का एक पात्र हूं। ऐसा सोचकर वह हमेशा भगवान के भजन में मग्न रहता है। और हमेशा उन्हीं की लीलाओं का गुणगान करता है। उसको अपने नाम ,मान ,सम्मान ,पद ,बढ़ाई, प्रतिष्ठा की महत्वाकांक्षा नहीं होती है। वह अपने कर्तव्य और दायित्व को अच्छी तरह से निर्वहन करता है। सच्चे मन से ईश्वर की आराधना और उपासना करता है।ऐसे व्यक्ति अपनी प्रशंसा खुद नहीं करते हैं यदि दूसरे भी उनकी प्रशंसा करते हैं, तो वह खुद को संकुचित महसूस करता है।

किसी की निंदा न करना ,किसी का बुरा ना चाहना, सबसे प्रेमभाव रखना, कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी मन को विचलित न करना, यह सब गुण ऐसे व्यक्ति में पाए जाते हैं।

 अहंकार का जनक कौन है?

अहंकार की उत्पत्ति उसका अविद्या रूपी अज्ञानता से होता है, जो स्वयं और स्वयं की सत्ता, आत्मा के बीच एक विभेदक दीवार खींच लेता है। दोनों के बीच एक पर्दा डाल देता है और वही से अहंकार का उद्भव होता है। अनित्य को नित्य समझना, जो नस्टशील है जो क्षणभंगुर है, उसे सत्य मानना अविद्या है। अशुद्ध को शुद्ध समझना, पीड़ा को सुख और अनात्मक को आत्म जानाना अविद्या है। इसके कारण मनुष्य का जीवन भ्रमित हो जाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य की सारी समझ ,समस्त विचार उलट-पुलट से जाते हैं। यही अविद्या है जो अहंकार की जननी है।

अहंकार का त्याग क्यों आवश्यक है।

आप अपनी प्रतिभा के बल पर कितने ही लोकप्रिय हो और कितने ही मान्य क्यों ना हो। पर यदि अहंकार है तो कहीं ना कहीं अशांत जरूर होंगे। अहंकार को त्याग कर लोग ऊंचाई को प्राप्त कर सकते हैं।यदि रामायण में मंदोदरी की बात रावण ने मान ली होती ,और माता सीता को सम्मान सहित भगवान राम को लौटा दिया होता तो शायद युद्ध ना होता।

महाभारत में दुर्योधन यदि पांडवों को 5 गांव दे देता तो महाभारत के युद्ध की स्थिति टल जाती। अहंकार व्यक्ति का पतन करता है। अहंकार के वशीभूत लोग अच्छे और बुरे में विचार नहीं कर पाते। सही और गलत का विचार नहीं करते जिसका परिणाम बहुत ही घातक होता है।

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