अनुगीता २ अध्यायः १७ || Anugita 2 Adhyay 17
इससे पूर्व आपने पढ़ा कि- महाभारत के आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व) में अनुगीता नाम से क्रमशः अध्याय १६,१७,१८ व १९ में दिया गया है। अब आगे सप्तदश (17) अध्याय अनुगीता २ में काश्यप के प्रश्नों के उत्तर में सिद्ध महात्मा द्वारा जीव की विविध गतियों का वर्णन है। यहाँ इसका श्लोक सहित हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है।
अथ अनुगीता २ अध्यायः १७
वासुदेव उवाच
ततस्तस्योपसङ्गृह्य पादौ प्रश्नान्सुदुर्वचान् ।
पप्रच्छ तांश्च सर्वान्स प्राह धर्मभृतां वरः ॥ १॥
काश्यप उवाच
कथं शरीरं च्यवते कथं चैवोपपद्यते ।
कथं कष्टाच्च संसारात्संसरन्परिमुच्यते ॥ २॥
आत्मानं वा कथं युक्त्वा तच्छरीरं विमुञ्चति ।
शरीरतश्च निर्मुक्तः कथमन्यत्प्रपद्यते ॥ ३॥
कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नरः ।
उपभुङ्क्ते क्व वा कर्म विदेहस्योपतिष्ठति ॥ ४॥
ब्राह्मण उवाच
एवं सञ्चोदितः सिद्धः प्रश्नांस्तान्प्रत्यभाषत ।
आनुपूर्व्येण वार्ष्णेय यथा तन्मे वचः श्रृणु ॥ ५॥
सिद्ध उवाच
आयुः कीर्तिकराणीह यानि कर्माणि सेवते ।
शरीरग्रहणेऽन्यस्मिंस्तेषु क्षीणेषु सर्वशः ॥ ६॥
आयुः क्षयपरीतात्मा विपरीतानि सेवते ।
बुद्धिर्व्यावर्तते चास्य विनाशे प्रत्युपस्थिते ॥ ७॥
सत्त्वं बलं च कालं चाप्यविदित्वात्मनस्तथा ।
अतिवेलमुपाश्नाति तैर्विरुद्धान्यनात्मवान् ॥ ८॥
यदायमतिकष्टानि सर्वाण्युपनिषेवते ।
अत्यर्थमपि वा भुङ्क्ते न वा भुङ्क्ते कदा चन ॥ ९॥
दुष्टान्नं विषमान्नं च सोऽन्योन्येन विरोधि च ।
गुरु वापि समं भुङ्क्ते नातिजीर्णेऽपि वा पुनः ॥ १०॥
व्यायाममतिमात्रं वा व्यवायं चोपसेवते ।
सततं कर्म लोभाद्वा प्राप्तं वेगविधारणम् ॥ ११॥
रसातियुक्तमन्नं वा दिवा स्वप्नं निषेवते ।
अपक्वानागते काले स्वयं दोषान्प्रकोपयन् ॥ १२॥
स्वदोषकोपनाद्रोगं लभते मरणान्तिकम् ।
अथ चोद्बन्धनादीनि परीतानि व्यवस्यति ॥ १३॥
तस्य तैः कारणैर्जन्तोः शरीराच्च्यवते यथा ।
जीवितं प्रोच्यमानं तद्यथावदुपधारय ॥ १४॥
ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः ।
शरीरमनुपर्येति सर्वान्प्राणान्रुणद्धि वै ॥ १५॥
अत्यर्थं बलवानूष्मा शरीरे परिकोपितः ।
भिनत्ति जीव स्थानानि तानि मर्माणि विद्धि च ॥ १६॥
ततः स वेदनः सद्यो जीवः प्रच्यवते क्षरन् ।
शरीरं त्यजते जन्तुश्छिद्यमानेषु मर्मसु ।
वेदनाभिः परीतात्मा तद्विद्धि द्विजसत्तम ॥ १७॥
जातीमरणसंविग्नाः सततं सर्वजन्तवः ।
दृश्यन्ते सन्त्यजन्तश्च शरीराणि द्विजर्षभ ॥ १८॥
गर्भसङ्क्रमणे चापि मर्मणामतिसर्पणे ।
तादृशीमेव लभते वेदनां मानवः पुनः ॥ १९॥
भिन्नसन्धिरथ क्लेदमद्भिः स लभते नरः ।
यथा पञ्चसु भूतेषु संश्रितत्वं निगच्छति ।
शैत्यात्प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः ॥ २०॥
यः स पञ्चसु भूतेषु प्राणापाने व्यवस्थितः ।
स गच्छत्यूर्ध्वगो वायुः कृच्छ्रान्मुक्त्वा शरीरिणम् ॥ २१॥
शरीरं च जहात्येव निरुच्छ्वासश्च दृश्यते ।
निरूष्मा स निरुच्छ्वासो निःश्रीको गतचेतनः ॥ २२॥
ब्रह्मणा सम्परित्यक्तो मृत इत्युच्यते नरः ।
स्रोतोभिर्यैर्विजानाति इन्द्रियार्थाञ्शरीरभृत् ।
तैरेव न विजानाति प्राणमाहारसम्भवम् ॥ २३॥
तत्रैव कुरुते काये यः स जीवः सनातनः ।
तेषां यद्यद्भवेद्युक्तं संनिपाते क्व चित्क्व चित् ।
तत्तन्मर्म विजानीहि शास्त्रदृष्टं हि तत्तथा ॥ २४॥
तेषु मर्मसु भिन्नेषु ततः स समुदीरयन् ।
आविश्य हृदयं जन्तोः सत्त्वं चाशु रुणद्धि वै ।
ततः स चेतनो जन्तुर्नाभिजानाति किं चन ॥ २५॥
तमसा संवृतज्ञानः संवृतेष्वथ मर्मसु ।
स जीवो निरधिष्ठानश्चाव्यते मातरिश्वना ॥ २६॥
ततः स तं महोच्छ्वासं भृशमुच्छ्वस्य दारुणम् ।
निष्क्रामन्कम्पयत्याशु तच्छरीरमचेतनम् ॥ २७॥
स जीवः प्रच्युतः कायात्कर्मभिः स्वैः समावृतः ।
अङ्कितः स्वैः शुभैः पुण्यैः पापैर्वाप्युपपद्यते ॥ २८॥
ब्राह्मणा ज्ञानसम्पन्ना यथावच्छ्रुत निश्चयाः ।
इतरं कृतपुण्यं वा तं विजानन्ति लक्षणैः ॥ २९॥
यथान्ध कारे खद्योतं लीयमानं ततस्ततः ।
चक्षुष्मन्तः प्रपश्यन्ति तथा तं ज्ञानचक्षुषः ॥ ३०॥
पश्यन्त्येवंविधाः सिद्धा जीवं दिव्येन चक्षुषा ।
च्यवन्तं जायमानं च योनिं चानुप्रवेशितम् ॥ ३१॥
तस्य स्थानानि दृष्टानि त्रिविधानीह शास्त्रतः ।
कर्मभूमिरियं भूमिर्यत्र तिष्ठन्ति जन्तवः ॥ ३२॥
ततः शुभाशुभं कृत्वा लभन्ते सर्वदेहिनः ।
इहैवोच्चावचान्भोगान्प्राप्नुवन्ति स्वकर्मभिः ॥ ३३॥
इहैवाशुभ कर्मा तु कर्मभिर्निरयं गतः ।
अवाक्स निरये पापो मानवः पच्यते भृशम् ।
तस्मात्सुदुर्लभो मोक्ष आत्मा रक्ष्यो भृशं ततः ॥ ३४॥
ऊर्ध्वं तु जन्तवो गत्वा येषु स्थानेष्ववस्थिताः ।
कीर्त्यमानानि तानीह तत्त्वतः संनिबोध मे ।
तच्छ्रुत्वा नैष्ठिकीं बुद्धिं बुध्येथाः कर्म निश्चयात् ॥ ३५॥
तारा रूपाणि सर्वाणि यच्चैतच्चन्द्रमण्डलम् ।
यच्च विभ्राजते लोके स्वभासा सूर्यमण्डलम् ।
स्थानान्येतानि जानीहि नराणां पुण्यकर्मणाम् ॥ ३६॥
कर्म क्षयाच्च ते सर्वे च्यवन्ते वै पुनः पुनः ।
तत्रापि च विशेषोऽस्ति दिवि नीचोच्चमध्यमः ॥ ३७॥
न तत्राप्यस्ति सन्तोषो दृष्ट्वा दीप्ततरां श्रियम् ।
इत्येता गतयः सर्वाः पृथक्त्वे समुदीरिताः ॥ ३८॥
उपपत्तिं तु गर्भस्य वक्ष्याम्यहमतः परम् ।
यथावत्तां निगदतः श्रृणुष्वावहितो द्विज ॥ ३९॥
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि अष्टादशोऽध्यायः ॥
अनुगीता २ हिन्दी अनुवाद
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- तदनन्तर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ काश्यप ने उन सिद्ध महात्मा के दोनों पैर पकड़कर जिनका उत्तर कठिनाई से दिया जा सके, ऐसे बहुत धर्मयुक्त प्रश्न पूछे। काश्यप ने पूछा- महात्मन! यह शरीर किस प्रकार गिर जाता है? फिर दूसरा शरीर कैसे प्राप्त होता है? संसारी जीव किस तरह इस दु:खमय संसार से मुक्त होता है? जीवात्मा प्रकृति (मूल विद्या) और उससे उत्पन्न होने वाले शरीर कैसे त्याग करता है? और शरीर से छूटकर दूसरे में वह किस प्रकार प्रवेश करता है? मनुष्य अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल कैसे भोगता है और शरीर न रहने पर उसके कर्म कहाँ रहता है? ब्राह्मण कहते हैं- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! काश्यप के इस प्रकार पूछने पर सिद्ध महात्मा उनके प्रश्नों का क्रमश: उत्तर देना आरम्भ किया। वह मैं बता रहा हूँ, सुनिये। सिद्ध ने कहा- काश्यप! मनुष्य इस लोक में आयु और कीर्ति को बढ़ाने वाले जिन कर्मों का सेवन करता है, वे शरीर-प्राप्ति में कारण होते हैं। शरीर-ग्रहण के अनन्तर जब वे सभी कर्म अपना फल देकर क्षीण हो जाते हैं, उस समय जीव की आयु का भी क्षय हो जाता है। उस अवस्था वह विपरीत कर्मों का सेवन करने लगता है और विनाशकाल निकट आने पर उसकी बुद्धि उलटी हो जाती है। वह अपने सत्त्व (धैर्य), बल और अनुकुल समय को जानकारी भी मन पर अधिकार न होने के कारण असमय में तथा अपनी प्रकृति के विरुद्ध भोजन करता है। अत्यन्त हानि पहुँचाने वाली जितनी वस्तुएँ है, उन सबका वह सेवन करता है। कभी तो बहुत अधिक खा लेता है, कभी बिल्कुल ही भोजन नहीं करता है। कभी दूषित खाद्य अन्न-पान भी ग्रहण लेता है, कभी एक-दूसरे से विरुद्ध गुण वाले पदार्थों को एक साथ खा लेता है। किसी दिन गरिष्ठ अन्न और वह भी बहुत अधिक मात्रा में खा जाता है। कभी-कभी एक बार का खाया हुआ अन्न पचने भी नहीं पाता कि दुबारा भोजन कर लेता है। अधिक मात्रा में व्यायाम और स्त्री-सम्भोग करता है। सदा काम करने के लोभ से मल-मूत्र के वेग को रोके रहता है। रसीला अन्न खाता और दिन में सोता है तथा कभी-कभी खाये हुए अन्न के पचने के पहले असमय में भोजन करके स्वयं ही अपने शरीर में स्थित वात-पित्त आदि दोषों को कुपित कर देता है। उन दोषों के कुपित होने से वह अपने लिये प्राणनाशक रोगों को बुला लेता है। अथवा फाँसी लगाने या जल में डूबने आदि शास्त्र विरुद्ध उपायों का आश्रय लेता है। इन्हीं सब कारणों से जीवन का शरीर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार जो जीव का जीवन बताया जाता है, उसे अच्छी तरह समझ लो। शरीर में तीव्र वायु से प्रेरित हो पित्त का प्रकोप बढ़ जाता है और वह शरीर में फैलकर समस्त प्राणों की गति को रोक देता है। इस शरीर में कुपित होकर अत्यन्त प्रबल हुआ पित्त जीव के मर्मस्थानों को विदीर्ण कर देता है। इस बात को ठीक समझो। जब मर्मस्थान छिन्न-भिन्न होने लगते हैं, तब वेदना से व्यथित हुआ जीवन तत्काल इस जड़ शरीर से निकल जाता है। उस शरीर को सदा के लिये त्याग देता है।
द्विजश्रेष्ठ! मृत्युकाल में जीव का तन-मन वेदना से व्यथित होता है, इस बात को भलीभाँति जान लो। इस तरह संसार के सभी प्राणी सदा जन्म और मरण से उद्विग्न रहता है। विप्रवर! सभी जीव अपने शरीरों का त्याग करते देखे जाते हैं। गर्भ में मनुष्य प्रवेश करते समय तथा गर्भ से नीचे गिरते समय भी वैसी ही वेदना का अनुभव करता है। मृत्यु काल में जीवों के शरीर की सन्धियाँ टूटने लगती हैं और जन्म के समय वह गर्भस्थ जल से भीगकर अत्यन्त व्याकुल हो उठता है। अन्य प्रकार की तीव्र वायु से प्रेरित हो शरीर में सर्दी से कुपित हुई जो वायु पाँचों भूतों में प्राण और अपान के स्थान में स्थित है, वही पंचभूतों के संघात का नाश करती है तथा वह देहधारियों को बड़े कष्ट से त्यागकर ऊर्ध्वलोक को चली जाती है। इस प्रकार जब जीव शरीर का त्याग करता है, तब प्राणियों का शरीर उच्छ्वास हीन दिखायी देता है। उसमें गर्मी, उच्छ्वास, शोभा और चेतना कुछ भी नहीं रह जाती। इस तरह जीवात्मा से परित्यक्त उस शरीर को लोग मृत (मरा हुआ) कहते है। देहधारी जीव जिन इन्द्रियों के द्वारा रूप, रस आदि विषयों का अनुभव करता है, उनके द्वारा वह भोजन से परिपुष्ट होने वाले प्राणों को नहीं जान पाता। इस शरीर के भीतर रहकर जो कार्य करता है, वह सनातन जीव है। कहीं-कहीं संधिस्थानों में जो-जो अंग संयुक्त होता है, उस-उस को तुम मर्म समझो, क्योंकि शास्त्र में मर्मस्थान का ऐसा ही लक्षण देखा गया है। उन मर्मस्थानों (संधियों)-के विलग होने पर वायु ऊपर को उठती हुई प्राण के हृदय में प्रविष्ट हो शीघ्र ही उसकी बुद्धि को अवरुद्ध कर लेती है। तब अन्तकाल उपस्थित होने पर प्राणी सचेतन होने पर भी कुछ समझ नहीं पाता, क्योंकि तुम (अविद्या)- के द्वारा उसकी ज्ञानशक्ति आवृत्त हो जाती है। मर्मस्थान भी अवरुद्ध हो जाते है। उस समय जीव के लिये कोई आधार नहीं रह जाता है और वायु उसे अपने स्थान से विचलित कर देती है। तब वह जीवात्मा बारंबार भंयकर एवं लंबी साँस छोड़कर बाहर निकलने लगता है। उस समय सहसा इस जड़ शरीर को कम्पित कर देता है। शरीर से अलग होने पर वह जीव अपने किये हुए शुभ कार्य पुण्य अथवा अशुभ कार्य पाप कर्मों द्वारा सब ओर से घिरा रहता है। जिन्होंने वेद-शास्त्रों के सिद्धांतों का यथावत अध्ययन किया है, वे ज्ञान सम्पन्न ब्राह्मण लक्षणों के द्वारा यह जान लेते हैं कि अमुक जीव पुण्यात्मा रहा है। अमुक जीव पापी। जिस तरह आँख वाले मनुष्य अंधेरे में इधर-उधर उगते-बुझते हुए खद्योत को देखते हैं, उसी प्रकार ज्ञान-नेत्र वाले सिद्ध पुरुष अपनी दिव्य दृष्टि से जन्मते, मरते तथा गर्भ में प्रवेश करते हुए जीव को सदा देखते रहते हैं। शास्त्र के अनुसार जीव के तीन प्रकार के स्थान देखे गये हैं (मृत्युलोक, स्वर्गलोक और नरक)। यह मृत्युलोक की भूमि जहाँ बहुत से प्राणी रहते हैं, कर्मभूमि कहलाती है। अत: यहाँ शुभ और अशुभ कर्म करके सब मनुष्य उसके फलस्वरूप अपने कर्मों के अनुसार अच्छे-बुरे भोग प्राप्त करते हैं।
यहीं पाप करने वाले मानव अपने कर्मों के अनुसार नरक में पड़ते हैं। यह जीव की अधोगति है, जो घोर कष्ट देने वाली है। इसमें पड़कर पापी मनुष्य नरकाग्नि में पकाये जाते हैं। उससे छुटकारा मिलना बहुत कठिन है। अत: (पापकर्म से दूर रहकर) अपने को नरक से बचाये रखने का विशेष प्रयत्न करना चाहिये। स्वर्ग आदि ऊर्ध्वलोकों में जाकर प्राणी जिन स्थानों में निवास करते हैं, उनका यहाँ वर्णन किया जाता है, इस विषय को यथार्थ रूप से मुझ से सुनो। इसको सुनने से तुम्हें कर्मों की गति का निश्चय हो जायगा और नैष्ठिकी बुद्धि प्राप्त होगी। जहाँ ये समस्त तारे हैं, जहाँ वह चन्द्रमण्डल प्रकाशित होता है और जहाँ सूर्यमण्डल जगत में अपनी प्रभा से उद्भासित हो रहा है, ये सब-के-सब पुण्यकर्म पुरुषों के स्थान हैं, ऐसा जान जब जीवों के पुण्यकर्मों का भोग समाप्त हो जाता है, तब वे वहाँ से नीचे गिरते हैं। इस प्रकार बारंबार उनका आवागमन होता रहता है। स्वर्ग में भी उत्तम, मध्यम और अधम का भेद रहता है। वहाँ भी दूसरों का अपने से बहुत अधिक दीप्तिमान तेज एवं ऐश्वर्य देखकर मन में संतोष नहीं होता है। इस प्रकार जीव की इन सभी गतियों का मैंने तुम्हारे समक्ष पृथक-पृथक वर्णन किया है। अब मैं यह बतलाऊँगा कि जीव किस प्रकार गर्भ में आकर जन्म धारण करता है। ब्रह्मन! तुम एकाग्रचित्त होकर मेरे मुख से इस विषय का वर्णन सुनो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।