आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है Atma Aur Parmatma Me Koi Bhed Nahi

 आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है ।यह विषय है  निराकार ध्यान का ध्यान के लिए सबसे आवश्यक  एकांत और पवित्र स्थान की जरूरत होती है शुद्ध भूमि, जिस पर  वस्त्र बिछा हो  ।

 ऐसे आसन को स्थापित करें अपने शरीर को सिर और गले को एक समान करके स्थिर होकरअपनी नासिका के अग्रभाग पर अपनी दृष्टि को जमाए। शरीर मस्तक ग्रीवा को सामान रखें नेत्र बंद कर ले और अपने हृदय की सभी कामनाएं का त्याग कर दे। 

और तब तक शांत बैठे जब तक अपनी इच्छा कामना सब दूर ना हो जाए। विषय का चिंतन करने वाले व्यक्ति की उन विषयों में आसक्ती  बनी रहती है आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना से विघ्न  होता है ।देखने से क्रोध उत्पन्न होता है आसक्ति के अभाव ही वैराग्य संसार के समस्त पदार्थ क्षणभंगुर है सोच कर के विवेक से बैराग होता है। 

इंद्रियों की जरूरत यह  बाहर जा रही हैं उनका संबंध विषय से अलग कर देना बाहरी समस्त चीजों का त्याग कर देना ही परमात्मा को प्राप्त करना होता है। परमात्मा का ध्यान करके यदि संसार दिखाई देने लगे तो हमें यह समझना चाहिए यह हमारी आत्मा का संकल्प है ।

 सर्वव्यापी अनंत चेतन में एक भाव से स्थित रूप से योग से युक्त आत्मा वाला तथा सबने समान भाव से देखने वाला योगी आत्मा के संबंध में स्थित आत्मा में  समस्त संसार  देखता है। जिस प्रकार अज्ञानी व्यक्ति अपने शरीर में आतम भाव रखता है ऐसे ही ज्ञानी महात्मा संपूर्ण ब्रह्मांड में अपनी आत्मा को देखते हैं ।जीवात्मा  परमात्मा की एकता का ही नाम है इसी लिए कहा गया है की आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है ।

जिसकी योग से आत्मा जुड़ी हो उसका नाम है अर्थात योग के द्वारा परमात्मा के स्वरूप में लीन आत्मा है जिसका मन शांत है जिसका रजोगुण शांत हो गया है जो पाप से रहित है ऐसा योगी उत्तम सुख को प्राप्त होता है। परमात्मा की प्राप्ति ब्रह्मा के समान होता है इसलिए उस योगी में क्षमता स्थित है जिसके द्वारा संसार जीत लिया गया हो जिसका मन क्षमता में स्थित हो वह ब्रह्मा समान है

 इसलिए जिसकी आत्मा में ब्रह्मा स्थित है ब्रह्मा के लक्षण विश्व में विद्यमान हैं वह ब्रह्मा में स्थित है अपनी आत्मा को आकाश की तरह तथा सारे दृश्य को बादल की तरह जो देखता है यह आत्मा के सिवा और कुछ नहीं है जिस समय यह व्यक्ति भूतों के प्रथक प्रथक भाव को एक ही परमात्मा में स्थित तथा उस परमात्मा से ही संपूर्ण भूतों का विस्तार देखता है उसी क्षण वह सच्चितानंद ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।

 जैसे आकाश में बादल और बादल में आकाश है आकाश से ही बादलों की उत्पत्ति हुई है बादल उसी में रहता है और उसी में ही विलीन हो जाता है ।इसी तरह संसार की उत्पत्ति परमात्मा से होती है और परमात्मा में ही स्थित है और परमात्मा में ही विलीन हो जाती है।

 आत्मा और परमात्मा दो नहीं है ज्ञानी लोग ब्रह्मा बनकर सारे भूतों का अपने में देखता है माया परमात्मा के किसी एक अंश में से है या हम इस प्रकार कह सकते हैं कि वह परमात्मा की शक्ति होने से परमात्मा का ही स्वरूप है इसलिए जो कुछ भी आप देखते हैं वह परमात्मा का ही रूप है सारे संसार के समस्त प्राणी आनंद से ही उत्पन्न होते हैं आनंद में ही स्थित रहते हैं आनंद में ही विलीन हो जाते हैं।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है

हे अर्जुन जो योगी अपनी बात संपूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुख में भी संभव देखता है वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है। जिस प्रकार अज्ञानी पुरुष अपने शरीर को ही आत्मा मानते हैं ऐसे ही महात्मा लोग सारे ब्रह्मांड को ही अपनी आत्मा मानते शरीर की तरह सबके सुख दुख को समान समझना ही श्रेष्ठ है ।

हमारे शरीर के इस हाथ को जो सुख है उस हाथ को जो सुख है वह सब में बराबर होती है ऐसे ही महात्मा  ज्ञानी लोग कहते हैं जब पृथ्वी पर भी चलते हैं तब भी वह देखते हैं यह सड़क भी मेरी आत्मा है सड़क पर जितने शरीर से होते हैं हमारी आत्मा पृथ्वी तो जड़ है शरीर चेतन है शरीर में भी ऐसा होता है

 हमारे बाल जड  होते हैं। जहां जहां प्राण होता है वहां दर्द का अनुभव होता है। जहां प्राण नहीं होते हैं वहां दुख का अनुमान नहीं होता है ।हमारे नाखून के दो भाग होते हैं एक को जब नई काटता है तो दर्द नहीं होता है लेकिन दूसरे भाग को जब काटता है तो हमें दर्द होता है सारा ब्रह्मांड शरीर की तरह है जिस प्रकार अज्ञानी शरीर को आत्मा समझता है महात्मा सारे ब्रह्मांड को अपनी आत्मा समझते हैं अर्थात आत्मा का ही ब्यापक रूप ही परमात्मा है आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है

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