भगवती दक्षिणा की कथा व स्तोत्र || Bhagavati Dakshina ki Katha aur Stotra

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भगवती दक्षिणा की कथा, प्राकट्य का प्रसंग, उनका ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तोत्र-वर्णन एवं चरित्र-श्रवण की फल-श्रुति, यह उपाख्यान सुख, प्रीति एवं सम्पूर्ण कर्मों का फल प्रदान करने वाला है। जो पुरुष देवी दक्षिणा के इस चरित्र का सावधान होकर श्रवण करता है, भारत की भूमि पर किये गये उसके कोई कर्म अंगहीन नहीं होते। इसके श्रवण से पुत्रहीन पुरुष अवश्य ही गुणवान पुत्र प्राप्त कर लेता है और जो भार्याहीन हो, उसे परम सुशीला सुन्दरी पत्नी सुलभ हो जाती है। वह पत्नी विनीत, प्रियवादिनी एवं पुत्रवती होती है। पतिव्रता, उत्तम व्रत का पालन करने वाली, शुद्ध आचार-विचार रखने वाली तथा श्रेष्ठ कुल की कन्या होती है। विद्याहीन विद्या, धनहीन धन, भूमिहीन भूमि तथा प्रजाहीन मनुष्य श्रवण के प्रभाव से प्रजा प्राप्त कर लेता है। संकट, बन्धुविच्छेद, विपत्ति तथा बन्धन के कष्ट में पड़ा हुआ पुरुष एक महीने तक इसका श्रवण करके इन सबसे छूट जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है।

भगवती दक्षिणा की कथा व स्तोत्र

भगवती दक्षिणा की कथा

भगवान नारायण कहते हैं– मुने! भगवती स्वाहा और स्वधा का परम मधुर उत्तम उपाख्यान सुना चुका। अब मैं भगवती दक्षिणा के आख्यान का वर्णन करूँगा। तुम सावधान होकर सुनो।

प्राचीन काल की बात है, गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी एक गोपी थी। उसका नाम सुशीला था। उसे श्रीराधा की प्रधान सखी होने का सौभाग्य प्राप्त था। वह धन्य, मान्य एवं मनोहर अंगवाली गोपी परम सुन्दरी थी। सौभाग्य में वह लक्ष्मी के समान थी। उसमें पातिव्रत्य के सभी शुभ लक्षण संनिहित थे। वह साध्वी गोपी विद्या, गुण और उत्तम रूप से सदा सुशोभित थी। कलावती, कोमलांगी, कान्ता, कमललोचना, सुश्रोणी, सुस्तनी, श्यामा और न्यग्रोधपरिमण्डला– ये सभी विशेषण उसमें उपयुक्त थे। उसका प्रसन्न मुख सदा मुस्कान से भरा रहता था। रत्नमय अलंकार उसकी शोभा बढ़ाते थे। उसके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पा के समान गौर थी। बिम्बाफल के समान लाल-लाल ओष्ठ तथा मृग के सदृश मनोहर नेत्र थे। हंस के समान मन्दगति से चलने वाली उस कामिनी सुशीला काम-शास्त्र का सम्यक ज्ञान था। वह सम्पूर्ण भाव से भगवान श्रीकृष्ण में अनुरक्त थी। उनके भाव को जानती और उनका प्रिय किया करती थी।

एक समय परमेश्वरी श्रीराधा ने सुशीला को कह दिया– ‘आज से तुम गोलोक में नहीं आ सकोगी।’

तदनन्तर श्रीकृष्ण वहाँ से अन्तर्धान हो गये। तब देव देवेश्वरी भगवती श्रीराधा रासमण्डल के मध्य रासेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को जोर-जोर से पुकारने लगीं; परंतु भगवान ने उन्हें दर्शन नहीं दिये। तब तो श्रीराधा अत्यन्त विरहकातर हो उठीं। उन साध्वी देवी को विरह का एक-एक क्षण करोड़ों युगों के समान प्रतीत होने लगा। उन्होंने करुण प्रार्थना की।

श्रीकृष्ण स्तुति कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगीं। फिर तो उन्होंने प्राणनाथ को अपने समीप ही पाया और उनके साथ सानन्द विहार किया।

मुने! गोलोक से भ्रष्ट हुई वह सुशीला नाम वाली गोपी ही आगे चलकर दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई। उसने दीर्घकाल तक तपस्या करके भगवती लक्ष्मी के शरीर में प्रवेश किया। तदनन्तर अत्यन्त कठिन यज्ञ करने पर भी देवता आदि को जब उसका कोई फल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे सभी उदास होकर ब्रह्मा जी के पास गये। ब्रह्मा जी ने उनकी प्रार्थना सुनकर जगत्प्रभु भगवान श्रीहरि का ध्यान किया। बहुत समय तक भक्तिपूर्वक ध्यान करने के पश्चात् उन्हें भगवान का आदेश प्राप्त हुआ। स्वयं भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के दिव्य विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट किया और ‘दक्षिणा’ नाम रखकर उसे ब्रह्मा जी को सौंप दिया। ब्रह्मा जी ने यज्ञ सम्बन्धी समस्त कार्यों की सम्पन्नता के लिये देवी दक्षिणा को यज्ञ पुरुष के हाथ में दे दिया। उस समय यज्ञ पुरुष का मन आनन्द से भर गया। उन्होंने भगवती दक्षिणा की विधिवत पूजा और स्तुति की।

उन देवी का वर्ण तपाये हुए सुवर्ण के समान था। प्रभा ऐसी थी, मानो करोड़ों चन्द्रमा हों। वे अत्यन्त कमनीया, सुन्दरी तथा परम मनोहारिणी थीं।

कमल के समान मुखवाली वे कोमलांगी देवी कमल-जैसे विशाल नेत्रों से शोभा पा रही थीं। भगवती लक्ष्मी से प्रकट उन आदरणीया देवी के लिये कमल ही आसन भी था। अग्नि शुद्ध वस्त्र उनके शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। उन साध्वी का ओठ सुपक्व बिम्बाफल के सदृश था। उनकी दन्तावली बड़ी सुन्दर थी। उन्होंने अपने केशकलाप में मालती के पुष्पों की माला धारण कर रखी थी। उनके प्रसन्नमुख पर मुस्कान छायी थी। वे रत्ननिर्मित भूषणों से विभूषित थीं। उनका सुन्दर वेष था। उन्हें देखकर मुनियों का मन भी मुग्ध हो जाता था। कस्तूरी मिश्रित चन्दन से बिन्दी के रुप में अर्द्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाट पर शोभा पा रहा था। केशों के नीचे का भाग सिन्दूर की बिंदी से अत्यन्त उद्दीप्त जान पड़ता था। सुन्दर नितम्ब, बृहत श्रोणी और विशाल वक्षःस्थल से वे शोभा पा रही थीं।

फिर ब्रह्मा जी के कथनानुसार यज्ञपुरुष ने उन देवी को अपनी सहधर्मिणी बना लिया। कुछ समय बाद देवी दक्षिणा गर्भवती हो गयीं। बारह दिव्य वर्षों के बाद उन्होंने सर्वकर्मफल नामक श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न किया। वही कर्मफलों का दाता है।

कर्मपरायण सत्पुरुषों को दक्षिणा फल देती है तथा कर्म पूर्ण होने पर उनका पुत्र ही फलदायक होता है। अतएव वेदज्ञ पुरुष इस प्रकार कहते हैं कि भगवान यज्ञ देवी दक्षिणा तथा अपने पुत्र ‘फल’ के साथ होने पर ही कर्मों का फल प्रदान करते हैं।

नारद! इस प्रकार यज्ञपुरुष दक्षिणा तथा फलदाता पुत्र को प्राप्त करके सबको कर्मों का फल प्रदान करने लगे। तब देवताओं के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सभी सफल मनोरथ होकर अपने-अपने स्थान पर चले गये। मैंने धर्मदेव के मुख से ऐसा सुना है। अतएव मुने! कर्ता को चाहिये कि कर्म करने के पश्चात् तुरंत दक्षिणा दे दें। तभी सद्यः फल प्राप्त होता है– यह वेदों की स्पष्ट वाणी है। यदि दैववश अथवा अज्ञान से यज्ञकर्ता कर्म सम्पन्न हो जाने पर तुरंत ही ब्राह्मणों को दक्षिणा नहीं दे देता तो उस दक्षिणा की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाती है और साथ ही यजमान का सम्पूर्ण कर्म भी निष्फल हो जाता है। ब्राह्मण का स्वत्व अपहरण करने से वह अपवित्र मानव किसी कर्म का अधिकारी नहीं रह जाता। उसी पाप के फलस्वरूप उस पात की मानव को दरिद्र और रोगी होना पड़ता है। लक्ष्मी अत्यन्त भयंकर शाप देकर उसके घर से चली जाती हैं। उसके दिये हुए श्राद्ध और तर्पण को पितर ग्रहण नहीं करते हैं। ऐसे ही, देवता उसकी की हुई पूजा तथा अग्नि में दी हुई आहुति भी स्वीकार नहीं करते। यज्ञ करते समय कर्ता ने दक्षिणा संकल्प कर दी; किंतु दी नहीं और प्रतिग्रह लेने वाले ने उसे माँगा भी नहीं तो ये दोनों व्यक्ति नरक में इस प्रकार गिरते हैं, जैसे रस्सी टूट जाने पर घड़ा। विप्र! इस प्रकार की यह रहस्य भरी बातें बतला दीं। तुम्हें पुनः क्या सुनने की इच्छा हुई?

नारद जी ने पूछा– मुने! दक्षिणाहीन कर्म के फल को कौन भोगता है? साथ ही यज्ञपुरुष ने भगवती दक्षिणा की किस प्रकार पूजा की थी; यह भी बतलाइये।

भगवान नारायण कहते हैं– मुने! दक्षिणाहीन कर्म में फल ही कैसे लग सकता है; क्योंकि फल प्रसव करने की योग्यता तो दक्षिणा वाले कर्म में ही है। मुने! बिना दक्षिणा का कर्म तो बलि के पेट में चला जाता है। पूर्वसमय में भगवान वामन बलि के लिये आहार रूप में इस अर्पण कर चुके हैं। नारद! अश्रोत्रिय और श्रद्धाहीन व्यक्ति के द्वारा श्राद्ध में दी हुई वस्तु को बलि भोजनरूप से प्राप्त करते हैं। शूद्रों से सम्बन्ध रखने वाले ब्राह्मणों के पूजा सम्बन्धी द्रव्य, निषिद्ध एवं आचरणहीन ब्राह्मणों द्वारा किया हुआ पूजन तथा गुरु में भक्ति न रखने वाले पुरुष का कर्म– ये सब बलि के आहार हो जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।

मुने! भगवती दक्षिणा के ध्यान, स्तोत्र और पूजा की विधि के क्रम कण्वशाखा में वर्णित हैं। वह सब मैं कहता हूँ, सुनो।

भगवती दक्षिणा की कथा व स्तोत्र
दक्षिणा स्तोत्रम्

यज्ञ उवाच ।।

पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा परा ।

राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिये ।।

यज्ञपुरुष ने कहा– महाभागे! तुम पूर्वसमय में गोलोक की एक गोपी थी। गोपियों में तुम्हारा प्रमुख स्थान था। राधा के समान ही तुम उनकी सखी थीं। भगवान श्रीकृष्ण तुमसे प्रेम करते थे।

कार्त्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ।

आविर्भूता दक्षिणांशात्कृष्णस्यातो हि दक्षिणा ।।

कार्तिकी पूर्णिमा के अवसर पर राधा-महोत्सव मनाया जा रहा था। कुछ कार्यान्तर उपस्थित हो जाने के कारण तुम भगवान श्रीकृष्ण के दक्षिण कंधे से प्रकट हुई थीं। अतएव तुम्हारा नाम ‘दक्षिणा’ पड़ गया।

पुरा त्वं च सुशीलाख्या शीलेन सुशुभेन च ।

कृष्णदक्षांशवासाच्च राधाशापाच्च दक्षिणा ।।

गोलोकात्त्वं परिध्वस्ता मम भाग्यादुपस्थिता ।

कृपां कुरु त्वमेवाद्य स्वामिनं कुरु मां प्रिये ।।

शोभने! तुम इससे पहले परम शीलवती होने के कारण ‘सुशीला’ कहलाती थीं। तुम ऐसी सुयोग्या देवी श्रीराधा के शाप से गोलोक से च्युत होकर दक्षिणा नाम से सम्पन्न हो मुझे सौभाग्यवश प्राप्त हुई हो। सुभगे! तुम मुझे अपना स्वामी बनाने की कृपा करो।

कर्तॄणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा ।

त्वया विना च सर्वेषां सर्व कर्म च निष्फलम् ।।

तुम्हीं यज्ञशाली पुरुषों के कर्म का फल प्रदान करने वाली आदरणीया देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों के सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं।

फलशाखाविहीनश्च यथा वृक्षो महीतले ।

त्वया विना तथा कर्म कर्तॄणां च न शोभते ।।

जैसे पृथ्वी पर फल तथा शाखा के बिना वृक्ष नहीं रह सकते,उसी प्रकार तुम्हारी अनुपस्थिति में कर्मियों का कर्म भी शोभा नहीं पाता।

ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।

कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ।।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा दिक्पाल प्रभृति सभी देवता तुम्हारे न रहने से कर्मों का फल देने में असमर्थ रहते हैं।

कर्मरूपी स्वयं ब्रह्मा फलरूपी महेश्वरः ।

यज्ञरूपी विष्णुरहं त्वमेषां साररूपिणी ।।

ब्रह्मा स्वयं कर्मरूप हैं। शंकर को फलरूप बतलाया गया है। मैं विष्णु स्वयं यज्ञरूप से प्रकट हूँ। इन सबमें साररूपा तुम्हीं हो।

फलदाता परं ब्रह्म निर्गुणः प्रकृतेः परः ।

स्वयं कृष्णश्च भगवान्न च शक्तस्त्वया विना ।।

साक्षात् परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण, जो प्राकृत गुणों से रहित तथा प्रकृति से परे हैं, समस्त फलों के दाता हैं, परंतु वे श्रीकृष्ण भी तुम्हारे बिना कुछ करने में समर्थ नहीं हैं।

त्वमेव शक्तिः कान्ते मे शश्वज्जन्मनि जन्मनि ।

सर्वकर्मणि शक्तोऽहं त्वया सह वरानने ।।

कान्ते! सदा जन्म-जन्म में तुम्हीं मेरी शक्ति हो। वरानने! तुम्हारे साथ रहकर ही मैं समस्त कर्मों में समर्थ हूँ।

दक्षिणा स्तोत्रम् समाप्त।।

ऐसा कहकर यज्ञ के अधिष्ठाता देवता दक्षिणा के सामने खड़े हो गये। तब कमला की कलास्वरूपा उस देवी ने संतुष्ट होकर यज्ञपुरुष का वरण किया। यह भगवती दक्षिणा का स्तोत्र है। जो पुरुष यज्ञ के अवसर पर इसका पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण यज्ञों के फल सुलभ हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं। सभी प्रकार के यज्ञों के आरम्भ में जो पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके वे सभी यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हो जाते हैं, यह ध्रुव सत्य है।

भगवती दक्षिणा की कथा व स्तोत्र
भगवती दक्षिणा की ध्यान और पूजा-विधि

यह स्तोत्र तो कह दिया, अब ध्यान और पूजा-विधि सुनो। विद्वान पुरुष को चाहिये कि शालग्राम की मूर्ति में अथवा कलश पर आवाहन करके भगवती दक्षिणा की पूजा करे। ध्यान यों करना चाहिये-

लक्ष्मीदक्षांशसम्भूतां दक्षिणां कमलाकलाम् ।

सर्वकर्मसु दक्षां च फलदां सर्वकर्मणाम् ।।

विष्णोःशक्तिस्वरूपां च सुशीलां शुभदां भजे ।

ध्यात्वाऽनेनैव वरदां सुधीर्मूलेन पूजयेत् ।।

‘भगवती लक्ष्मी के दाहिने कंधे से प्रकट होने के कारण दक्षिणा नाम से विख्यात ये देवी साक्षात् कमला की कला हैं। सम्पूर्ण यज्ञ-यागादि कर्मों में अखिल कर्मों का फल प्रदान करना इनका सहज गुण है। ये भगवान विष्णु की शक्तिस्वरूपा हैं। मैं इनकी आराधना करता हूँ। ऐसी शुभा, शुद्धिदा, शुद्धिरूपा एवं सुशीला नाम से प्रसिद्ध भगवती दक्षिणा की मैं उपासना करता हूँ।’

नारद! इसी मन्त्र से ध्यान करके विद्वान पुरुष मूलमन्त्र से इन वरदायिनी देवी की पूजा करे। पाद्य, अर्घ्य आदि सभी इसी वेदोक्त मन्त्र के द्वारा अर्पण करने चाहिये।

मन्त्र यह है- ‘ऊँ श्रीं क्लीं ह्रीं दक्षिणायै स्वाहा।’

सुधीजनों को चाहिये कि सर्वपूजिता इन भगवती दक्षिणा की अर्चना भक्तिपूर्वक उत्तम विधि के साथ करें।

ब्रह्मन! इस प्रकार भगवती दक्षिणा का उपाख्यान कह दिया।

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त्त महापुराण और श्रीमाद्देविभागवत महापुराण अंतर्गत् भगवती दक्षिणा की कथा व स्तोत्र समाप्त हुआ ।।

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