ब्रह्मा स्तुति || Brahma Stuti विष्णुकृतं, रुद्रकृतं

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देवाधिदेव ब्रह्माजी का पूजन और स्तुति जो करते हैं उनकी सभी क्रियाएँ सफल होती है तथा उन्हें कभी मानसिक चिन्ता, शारीरिक रोग, दैवी उपद्रव और क्षुधा आदि का भय नहीं होता। प्रियजनों से वियोग और अप्रिय मनुष्यों से संयोग की भी सम्भावना नहीं होता।’ यह सुनकर पहले भगवान् श्रीविष्णु तथा बाद रुद्र ने ब्रह्माजी की स्तुति करने को उद्यत हुए।

ब्रह्मा स्तुति विष्णुकृतं

विष्णुरुवाच

नमोस्त्वनंताय विशुद्धचेतसे स्वरूपरूपाय सहस्रबाहवे ।

सहस्ररश्मिप्रभवाय वेधसे विशालदेहाय विशुद्धकर्मणे ।।१ ।।

भगवान् श्रीविष्णु बोले-जिनका कभी अन्त नहीं होता, जो विशुद्धचित्त और आत्मस्वरूप हैं, जिनके हजारों भुजाएँ हैं, जो सहस्र किरणोंवाले सूर्यकी भी उत्पत्तिके कारण हैं, जिनका शरीर और कर्म दोनों अत्यन्त शुद्ध हैं, उन सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीको नमस्कार है।

समस्तविश्वार्तिहराय शंभवे समस्तसूर्यानलतिग्मतेजसे ।

नमोस्तु विद्यावितताय चक्रिणे समस्तधीस्थानकृते सदा नमः।।२ ।।

जो समस्त विश्वकी पीड़ा हरनेवाले, कल्याणकारी, सहस्रों सूर्य और अग्निके समान प्रचण्ड तेजस्वी, सम्पूर्ण विद्याओंके आश्रय, चक्रधारी तथा समस्त ज्ञानेन्द्रियोंको व्याप्त करके स्थित हैं, उन परमेश्वरको सदा नमस्कार है।

अनादिदेवाच्युत शेखरप्रभो भाव्युद्भवद्भूतपते महेश्वर ।

महत्पते सर्वपते जगत्पते भुवस्पते भुवनपते सदा नमः।।३ ।।

प्रभो! आप अनादि देव हैं। अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते। इसलिये ‘अच्युत’ हैं। आप शङ्कररूप से शेषनाग का मुकुट धारण करते हैं, इसलिये ‘शेषशेखर’ हैं। महेश्वर ! आप ही भूत और वर्तमान के स्वामी हैं। सर्वेश्वर ! आप मरुद्गणों के, जगत्के, पृथ्वी के तथा समस्त भुवनों के पति हैं। आपको सदा प्रणाम है।

यज्ञेश नारायण जिष्णु शंकर क्षितीश विश्वेश्वर विश्वलोचन ।

शशांकसूर्याच्युतवीरविश्वप्रवृत्तमूर्तेमृतमूर्त अव्यय ।।४ ।।

आप ही जल के स्वामी वरुण, क्षीरशायी नारायण, विष्णु, शङ्कर, पृथ्वी के स्वामी, विश्व का शासन करनेवाले, जगत्को नेत्र देनेवाले [अथवा जगत्को अपनी दृष्टि में रखनेवाले], चन्द्रमा, सूर्य, अच्युत, वीर, विश्वस्वरूप, तर्क के अविषय, अमृतस्वरूप और अविनाशी हैं।

ज्वलद्धुताशार्चि निरुद्धमंडल प्रदेशनारायण विश्वतोमुख ।

समस्तदेवार्तिहरामृताव्यय प्रपाहि मां शरणगतं तथा विभो ।।५ ।।

प्रभो ! आपने अपने तेजःस्वरूप प्रज्वलित अग्नि की ज्वाला से समस्त भुवनमण्डल को व्याप्त कर रखा है। आप हमारी रक्षा करें। आपके मुख सब ओर हैं। आप समस्त देवताओं की पीड़ा हरनेवाले हैं। अमृत-स्वरूप और अविनाशी है।

वक्त्राण्यनेकानि विभो तवाहं पश्यामि यज्ञस्य गतिं पुराणम् ।

ब्रह्माणमीशं जगतां प्रसूतिं नमोस्तु तुभ्यं प्रपितामहाय ।।६ ।।

मैं आपके अनेकों मुख देख रहा हूँ। आप शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुषोंकी परमगति और पुराणपुरुष हैं। आप ही ब्रह्मा, शिव तथा जगत्के जन्मदाता हैं। आप ही सबके परदादा हैं। आपको नमस्कार है।

संसारचक्रक्रमणैरनेकैः क्वचिद्भवान्देववराधिदेवः ।

तत्सर्वविज्ञानविशुद्धसत्वैरुपास्यसे किं प्रणमाम्यहं त्वाम् ।।७ ।।

आदिदेव ! संसारचक्र में अनेकों बार चक्कर लगाने के बाद उत्तम मार्ग के अवलम्बन और विज्ञान के द्वारा जिन्होंने अपने शरीर को विशुद्ध बना लिया है, उन्हीं को कभी आपकी उपासना का सौभाग्य प्राप्त होता है। देववर ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

एवं भवंतं प्रकृतेः पुरस्ताद्यो वेत्त्यसौ सर्वविदां वरिष्ठः ।

गुणान्वितेषु प्रसभं विवेद्यो विशालमूर्तिस्त्विह सूक्ष्मरूपः ।।८।।

भगवन् ! जो आपको प्रकृति से परे, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप समझता है, वही सर्वज्ञों में श्रेष्ठ है। गुणमय पदार्थों में आप विराटरूप से पहचाने जा सकते हैं तथा अन्तःकरण में [बुद्धि के द्वारा] आपका सूक्ष्मरूप से बोध होता है।

वाक्पाणिपादैर्विगतेन्द्रियोपि कथं भवान्वै सुगतिस्सुकर्मा ।

संसारबंधे निहितेंद्रियोपि पुनः कथं देववरोसि वेद्यः ।।९ ।।

भगवन् ! आप जिह्वा, हाथ, पैर आदि इन्द्रियों से रहित होनेपर भी पद्म धारण करते हैं। गति और कर्म से रहित होनेपर भी संसारी हैं। देव ! इन्द्रियों से शून्य होनेपर भी आप सृष्टि कैसे करते हैं?

मूर्त्तादमूर्त्तं न तु लभ्यते परं परं वपुर्देवविशुद्धभावैः ।

संसारविच्छित्तिकरैर्यजद्भिरतोवसीयेत चतुर्मुख त्वम् ।।१०।।

भगवन् ! विशुद्ध भाववाले याज्ञिक पुरुष संसार-बन्धन का उच्छेद करनेवाले यज्ञों द्वारा आपका यजन करते हैं, परन्तु उन्हें स्थूल साधन से सूक्ष्म परात्पर रूप का ज्ञान नहीं होता; अतः उनकी दृष्टि में आपका यह चतुर्मुख स्वरूप ही रह जाता है।

परं न जानंति यतो वपुस्ते देवादयोप्यद्भुतरूपधारिन् ।

विभोवतारेग्रतरं पुराणमाराधयेद्यत्कमलासनस्थम् ।।११।।

अद्भुत रूप धारण करनेवाले परमेश्वर ! देवता आदि भी आपके उस परम स्वरूप को नहीं जानते; अतः वे भी कमलासन पर विराजमान उस पुरातन विग्रह की ही आराधना करते हैं, जो अवतार धारण करने से उग्र प्रतीत होता है।

न ते तत्त्वं विश्वसृजोपि योनिमेकांततो वेत्ति विशुद्धभावः ।

परं त्वहं वेद्मि कथं पुराणं भवंतमाद्यं तपसा विशुद्धम् ।।१२ ।।

आप विश्व की रचना करनेवाले प्रजापतियों के भी उत्पत्ति-स्थान हैं। विशुद्ध भाववाले योगीजन भी आपके तत्त्व को पूर्णरूप से नहीं जानते। आप तपस्या से विशुद्ध आदिपुरुष हैं।

पद्मासनो वै जनकः प्रसिद्ध एवं प्रसिद्धिर्ह्यसकृत्पुराणात् ।

संचिंत्य ते नाथ विभुं भवंतं जानाति नैवं तपसाविहीनः ।।१३ ।।

अस्मादृशैश्च प्रवरैर्विबोध्यं त्वां देवमूर्खाः स्वमतिं विभज्य ।

प्रबोद्धुमिच्छन्ति न तेषु बुद्धिरुदारकीर्तिष्वपि वेदहीनाः ।।१४ ।।

पुराणमें यह बात बारम्बार कही गयी है कि कमलासन ब्रह्माजी ही सबके पिता हैं, उन्हींसे सबकी उत्पत्ति हुई है। इसी रूपमें आपका चिन्तन भी किया जाता है। आपके उसी स्वरूपको मूढ़ मनुष्य अपनी बुद्धि लगाकर जानना चाहते हैं। वास्तवमें उनके भीतर बुद्धि है ही नहीं।

जन्मांतरैर्वेद विवेकबुद्धिभिर्भवेद्यथा वा यदि वा प्रकाशः ।

तल्लाभलुब्धस्य न मानुषत्वं न देवगंधर्वपतिः शिवः स्यात् ।।१५ ।।

अनेकों जन्मोंको साधनासे वेदका ज्ञान, विवेकशील बुद्धि अथवा प्रकाश (ज्ञान) प्राप्त होता है। जो उस ज्ञानकी प्राप्तिका लोभी है, वह फिर मनुष्य-योनिमें नहीं जन्म लेता; वह तो देवता और गन्धर्वोका स्वामी अथवा कल्याणस्वरूप हो जाता है।

न विष्णुरूपो भगवान्सुसूक्ष्मः स्थूलोसि देवः कृतकृत्यतायाः ।

स्थूलोपि सूक्ष्मः सुलभोसि देव त्वद्बाह्यकृत्या नरकेपतंति ।।१६ ।।

भक्तोंके लिये आप अत्यन्त सुलभ हैं; जो आपका त्याग कर देते है-आपसे विमुख होते हैं, वे नरकमें पड़ते हैं।

विमुच्यते वा भवति स्थितेस्मिन्दस्रेन्दुवह्न्यर्कमरुन्महीभिः ।

तत्वैः स्वरूपैः समरूपधारिभिरात्मस्वरूपे वितत स्वभावः ।।१७ ।।

प्रभो ! आपके रहते इन सूर्य, चन्द्रमा, वसु, मरुद्गण और पृथ्वी आदिकी क्या आवश्यकता है; आपने ही अपने स्वरूपभूत तत्त्वोंसे इन सबका रूप धारण किया है।

इति स्तुतिं मे भगवन्ह्यनंत जुषस्व भक्तस्य विशेषतश्च ।

समाधियुक्तस्य विशुद्धचेतसस्त्वद्भावभावैकमनोनुगस्य ।।१८ ।।

आपके आत्माका ही प्रभाव सर्वत्र विस्तृत है; भगवन् ! आप अनन्त है-आपकी महिमाका अन्त नहीं है। आप मेरी की हुई यह स्तुति स्वीकार करें।

सदा हृदिस्थो भगवन्नमस्ते नमामि नित्यं भगवन्पुराण ।

इति प्रकाशं तव मे तदीशस्तवं मया सर्वगतिप्रबुद्ध ।।१९।।

संसारचक्रे भ्रमणादियुक्ता भीतिं पुनर्नः प्रतिपालयस्व ।।२० ।।

मैंने हृदयको शुद्ध करके, समाहित हो, आपके स्वरूपके चिन्तनमें मनको लगाकर यह स्तवन किया है। प्रभो ! आप सदा मेरे हृदयमें विराजमान रहते हैं, आपको नमस्कार है। आपका स्वरूप सबके लिये सुगमसुबोध नहीं है; क्योंकि आप सबसे पृथक्-सबसे परे है।

ब्रह्मा स्तुति रुद्रकृतं

भगवान् श्रीविष्णु के बाद रुद्र ने भी भक्ति से नतमस्तक होकर ब्रह्माजी का इस प्रकार स्तवन किया-

रुद्र उवाच

नमः कमलपत्राक्ष नमस्ते पद्मजन्मने ।

नमः सुरासुरगुरो कारिणे परमात्मने ।। १ ।।

‘कमल के समान नेत्रोंवाले देवेश्वर ! आपको नमस्कार है। आप संसार की उत्पत्ति के कारण हैं और स्वयं कमल से प्रकट हुए हैं, आपको नमस्कार है। प्रभो! आप देवता और असुरों के भी पूर्वज हैं, आपको प्रणाम है। संसार की सृष्टि करनेवाले आप परमात्मा को नमस्कार है।

नमस्ते सर्वदेवेश नमो वै मोहनाशन ।

विष्णोर्नाभिस्थितवते कमलासन जन्मने ।। २ ।।

नमो विद्रुमरक्तांग पाणिपल्लवशोभिने ।। ३ ।।

सम्पूर्ण देवताओं के ईश्वर ! आपको प्रणाम है। सबका मोह दूर करनेवाले जगदीश्वर ! आपको नमस्कार है। आप विष्णु की नाभि से प्रकट हुए हैं, कमल के आसन पर आपका आविर्भाव हुआ है। आप मुंगे के समान लाल अङ्गों तथा कर-पल्लवों से शोभायमान हैं, आपको नमस्कार है।

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे ब्रह्मा स्तुति नाम चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः।। ३४ ।।

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