ब्रह्माण्डविजय शिव कवच || Brahmanda Vijay Shiv Kavach

0

परम अद्भुत ब्रह्माण्डविजय शिव कवच के दस लाख जप से ही सिद्धि हो जाती है, यह निश्चित है। यदि यह कवच सिद्ध हो जाये तो वह निश्चय ही रुद्र-तुल्य हो जाता है। यह काण्वशाखोक्त कवच अत्यन्त गोपनीय तथा परम दुर्लभ है। सहस्रों अश्वमेध और सैकड़ों राजसूय– ये सभी इस कवच की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते। इस कवच की कृपा से मनुष्य निश्चय ही जीवन्मुक्त, सर्वज्ञ, सम्पूर्ण सिद्धियों का स्वामी और मन के समान वेगशाली हो जाता है। इस कवच को बिना जाने जो भगवान शंकर का भजन करता है, उसके लिये एक करोड़ जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।

ब्रह्माण्ड विजय शिव कवच

नारायण उवाच –

कवचं श्रृणु विपेन्द्र शंकरस्य महात्मनः।

ब्रह्माण्डविजयं नाम सर्वावयवरक्षणम् ।।

पुरा दुर्वाससा दत्तं मत्स्यराजाय धीमते।

दत्त्वा षडक्षरं मन्त्रं सर्वापापप्रणाशनम् ।।

स्थिते च कवचे देहे नास्ति मृत्युश्च जीविनाम् ।

अस्त्रे शस्त्रे जले वह्नौ सिद्धिश्चेन्नास्ति संशयः।।

यद् धृत्वा पठनात् सिद्धो दुर्वासा विश्वपूजितः।

जैगीषव्यो महायोगी पठनाद् धारणाद् यतः।

यद् धृत्वा वामदेवश्च देवलश्च्यवनः स्वयम् ।।

अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्च बभूव विश्वपूजितः।।

ॐ नमः शिवायेति च मस्तकं मे सदाऽवतु ।

ॐ नमः शिवायेति च स्वाहा भालं सदाऽवतु ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं शिवायेति स्वाहा नेत्रे सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं क्लीं हूँ शिवायेति नमो मे पातु नासिकाम् ।।

ॐ नमः शिवाय शान्ताय स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं श्रीं हूँ संहारकर्त्रे स्वाहा कर्णौ सदाऽवतु ।।

ॐ ह्रीं श्रीं पञ्चवक्त्राय स्वाहा दन्तं सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं महेशाय स्वाहा चाधरं पातु मे सदा ।।

ॐ ह्रीं क्लीं त्रिनेत्राय स्वाहा केशान् सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं ऐं महादेवाय स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं रुद्राय स्वाहा नाभिं सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं ऐं श्रीं ईश्वराय स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु।।

ॐ ह्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा भ्रूश्च सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ईशानाय स्वाहा पार्श्वं सदाऽवतु ।।

ॐ ह्रीं ईश्वराय स्वाहा उदरं पातु मे सदा ।

ॐ श्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा बाहू सदाऽवतु ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ईश्वराय स्वाहा पातु करौ मम ।

ॐ महेश्वराय रुद्राय नितम्बं पातु मे सदा ।।

ॐ ह्रीं श्रीं भूतनाथाय स्वाहा पादौ सदाऽवतु ।

ॐ सर्वेश्वराय सर्वाय स्वाहा सर्वं सदाऽवतु ।।

प्राच्यां मां पातु भूतेश आग्नेय्यां पातु शंकरः।

दक्षिणे पातु मां रुद्रो नैर्ऋत्यां स्थाणुरेव च ।।

पश्चिमे खण्डपरशुर्वायव्यां चन्द्रशेखरः।

उत्तरे गिरिशः पातु ऐशान्यामीश्वरः स्वयम् ।।

ऊर्ध्वे मृडः सदा पातु अधो मृत्युञ्जय स्वयम् ।

जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे सदा ।।

पिनाकी पातु मां प्रीत्या भक्तं च भक्तवत्सलः।।

इति ब्रह्माण्डविजय शिव कवच सम्पूर्णम्।।
ब्रह्माण्डविजय शिव कवच भावार्थ

नारायण उवाच –

कवचं श्रृणु विपेन्द्र शंकरस्य महात्मनः।

ब्रह्माण्डविजयं नाम सर्वावयवरक्षणम् ।।

नारायण बोले– विप्रवर! महात्मा शंकर के उस ‘ब्रह्माण्डविजय’ नामक कवच का, जो सर्वांग की रक्षा करने वाला है, वर्णन करता हूँ; सुनो।

पुरा दुर्वाससा दत्तं मत्स्यराजाय धीमते।

दत्त्वा षडक्षरं मन्त्रं सर्वापापप्रणाशनम् ।।

पूर्वकाल में दुर्वासा ने बुद्धिमान मत्स्यराजा को सम्पूर्ण पापों का समूल नाश करने वाला षडक्षर-मन्त्र बतलाकर इसे प्रदान किया था।

स्थिते च कवचे देहे नास्ति मृत्युश्च जीविनाम् ।

अस्त्रे शस्त्रे जले वह्नौ सिद्धिश्चेन्नास्ति संशयः।।

यदि सिद्धि प्राप्त हो जाय तो इस कवच को शरीर पर स्थित रहते अस्त्र-शस्त्र के प्रहार के समय, जल में तथा अग्नि में प्राणियों की मृत्यु नहीं होती– इसमें संशय नहीं है।

यद् धृत्वा पठनात् सिद्धो दुर्वासा विश्वपूजितः।

जैगीषव्यो महायोगी पठनाद् धारणाद् यतः।

यद् धृत्वा वामदेवश्च देवलश्च्यवनः स्वयम् ।।

अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्च बभूव विश्वपूजितः।।

जिसे पढ़कर एवं धारण करके दुर्वासा सिद्ध होकर लोकपूजित हो गये, जिसके पढ़ने और धारण करने से जैगीषव्य महायोगी कहलाने लगे। जिसे धारण करके वामदेव, देवल, स्वयं च्यवन, अगस्त्य और पुलस्त्य विश्ववन्द्य हो गये।

ऊँ नमः शिवायेति च मस्तकं मे सदाऽवतु।

ऊँ नमः शिवायेति च स्वाहा भालं सदाऽवतु।।

‘ऊँ नमः शिवाय’ यह सदा मेरे मस्तक की रक्षा करे। ‘ऊँ नमः शिवाय स्वाहा’ यह सदा ललाट की रक्षा करे।

ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं शिवायेति स्वाहा नेत्रे सदाऽवतु।

ऊँ ह्रीं क्लीं हूँ शिवायेति नमो मे पातु नासिकाम्।।

‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं शिवाय स्वाहा’ सदा नेत्रों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं क्लीं हूँ शिवाय नमः’ मेरी नासिका की रक्षा करे।

ऊँ नमः शिवाय शान्ताय स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु।

ऊँ ह्रीं श्रीं हूँ संहारकर्त्रे स्वाहा कर्णौ सदाऽवतु।।

‘ऊँ नमः शिवाय शान्ताय स्वाहा’ सदा कण्ठ की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं हूँ संहारकर्त्रे स्वाहा’ सदा कानों की रक्षा करे। ।

ऊँ ह्रीं श्रीं पञ्चवक्त्राय स्वाहा दन्तं सदाऽवतु ।

ऊँ ह्रीं महेशाय स्वाहा चाधरं पातु मे सदा।।

‘ऊँ ह्रीं श्रीं पञ्चवक्त्राय स्वाहा’ सदा दाँत की रक्षा करे।

ऊँ ह्रीं क्लीं त्रिनेत्राय स्वाहा केशान् सदाऽवतु।

ऊँ ह्रीं ऐं महादेवाय स्वाहा वक्षः सदाऽवतु।।

‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिनेत्राय स्वाहा’ सदा केशों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं ऐं महादेवाय स्वाहा’ सदा छाती की रक्षा करे।

ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं रुद्राय स्वाहा नाभिं सदाऽवतु।

ऊँ ह्रीं ऐं श्रीं ईश्वराय स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु।।

‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं रुद्राय स्वाहा’ सदा नाभि की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं ऐं श्रीं ईश्वराय स्वाहा’ सदा पृष्ठभाग की रक्षा करे।

ऊँ ह्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा भ्रूश्च सदाऽवतु ।

ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ईशानाय स्वाहा पार्श्वं सदाऽवतु ।।

‘ऊँ ह्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा’ सदा भौंहों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ईशानाय स्वाहा’ सदा पार्श्वभाग की रक्षा करे।

ऊँ ह्रीं ईश्वराय स्वाहा उदरं पातु मे सदा ।

ऊँ श्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा बाहू सदाऽवतु ।।

‘ऊँ ह्रीं ईश्वराय स्वाहा’ सदा मेरे उदर की रक्षा करे। ‘ऊँ श्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा’ सदा भुजाओं की रक्षा करे।

ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ईश्वराय स्वाहा पातु करौ मम ।

ऊँ महेश्वराय रुद्राय नितम्बं पातु मे सदा ।।

‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ईश्वराय स्वाहा’ मेरे हाथों की रक्षा करे। ‘ऊँ महेश्वराय रुद्राय नमः’ सदा मेरे नितम्ब की रक्षा करे।

ऊँ ह्रीं श्रीं भूतनाथाय स्वाहा पादौ सदाऽवतु ।

ऊँ सर्वेश्वराय सर्वाय स्वाहा सर्वं सदाऽवतु ।।

‘ऊँ ह्रीं श्रीं भूतनाथाय स्वाहा’ सदा पैरों की रक्षा करे। ‘ऊँ सर्वेश्वराय सर्वाय स्वाहा’ सदा सर्वांग की रक्षा करे।

प्राच्यां मां पातु भूतेश आग्नेय्यां पातु शंकरः।

दक्षिणे पातु मां रुद्रो नैर्ऋत्यां स्थाणुरेव च ।।

पूर्व में ‘भूतेश’ मेरी रक्षा करें। अग्निकोण में ‘शंकर’ रक्षा करें। दक्षिण में ‘रुद्र’ तथा नैर्ऋत्यकोण में स्थाणु मेरी रक्षा करें।

पश्चिमे खण्डपरशुर्वायव्यां चन्द्रशेखरः।

उत्तरे गिरिशः पातु ऐशान्यामीश्वरः स्वयम् ।।

पश्चिम में ‘खण्डपरशु’, वायव्यकोण में ‘चन्द्रशेखर’, उत्तर में ‘गिरीश’ और ईशानकोण में स्वयं ‘ईश्वर’ रक्षा करें।

ऊर्ध्वे मृडः सदा पातु अधो मृत्युञ्जय स्वयम् ।

जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे सदा ।।

पिनाकी पातु मां प्रीत्या भक्तं च भक्तवत्सलः।।

ऊर्ध्वभाग में ‘मृड’ और अधोभाग में स्वयं ‘मृत्युञ्जय’ सदा रक्षा करें। जल में, स्थल में, आकाश में, सोते समय अथवा जागते रहने पर भक्तवत्सल ‘पिनाकी’ सदा मुझ भक्त की स्नेहपूर्वक रक्षा करें।

इस प्रकार ब्रह्म वैवर्त पुराण के गणपतिखण्ड 35। 114-139 ब्रह्माण्डविजय शिव कवच पूर्ण हुआ ।।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *