ब्राह्मणगीता १४ अध्यायः ३४ || Brahmangita 14 Adhyay 34
आप पठन व श्रवण कर रहे हैं – भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता १३ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता १४ में ब्राह्मण का पत्नी के प्रति अपने ज्ञाननिष्ठ स्वरूप का परिचय देना का वर्णन हैं ।
ब्राह्मणगीता १४
ब्राह्मणेन ब्राह्मणींप्रति स्वमाहात्म्यप्रकाशनम्।। 1 ।।
ब्राह्मण उवाच।
नाहं तथा भूरु चरामि लोके
यथा त्वं मां तर्जयसे स्वबुद्ध्या।
विप्रोस्मिं मुक्तोस्मि वनेचरोस्मि
गृहस्थधर्मा व्रतवांस्तथाऽस्मि।।
नाहमस्मि यता मां त्वं पश्यसे च शुभाशुभे।
मया व्याप्तमिदं सर्वं यत्किञ्चिज्जगतीगतम्।।
ये केचिज्जन्तवो लोके जङ्गमाः स्थावराश्च ह।
तेषां मामन्तकं विद्धि दारुणामिव पावकम्।।
राज्ये पृथिव्यां सर्वस्यामथवापि त्रिविष्टपे।
तथा बुद्धिरियं वेत्ति बुद्धिरेव धनं मम।।
एकः पन्था ब्राह्मणानां येन गच्छन्ति तद्विदः।
गृहेषु वनवासेषु गुरुवासेषु भिक्षुषु।।
लिङ्गैर्बहुभिरव्यग्रैरेका बुद्धिरुपास्यते।
नानालिङ्गाश्रमस्थानां येषां बुद्धिः शमात्मिका।।
ते भावमेकमायान्ति सरितः सागरं यथा।
बुद्ध्याऽयं गम्यते मार्गः शरीरेणि न गम्यते।
आद्यन्तवन्ति कर्माणि शरीरं कर्मबन्धनम्।।
तस्मान्मे सुभगे नास्ति परलोककृतं भयम्।
तद्भावभावनिरता ममैवात्मानमेष्यसि।।
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता १४ चतुस्त्रिंशोऽध्यायः।। 34 ।।
ब्राह्मणगीता १४ हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण ने कहा- भीरू! तुम अपनी बुद्धि से मुझे जैसा समझकर फटकार रही हो, मैं वैसा नहीं हूँ। मैं इस लोक में देहाभिमानियों की तरह आचरण नहीं करता। तुम मुझे पाप-पुण्य में आसक्त देखती हो, किंतु वास्तव में मैं ऐसा नहीं हूँ। मैं ब्राह्मण, जीवन्मुक्त महात्मा, वानप्रस्थ, गृहस्थ और ब्रह्मचारी सब कुछ हूँ। इस भूतल पर जो कुछ दिखायी देता है, वह सब मेरे द्वारा व्याप्त है। संसार में जो कोई भी स्थावर जंगम प्राणी हैं, उन सबका विनाश करने वाला मृत्यु उसी प्रकार मुझे समझो, जिस प्रकार कि लकड़ियों का विनाश करने वाला अग्नि है। सम्पूर्ण पृथ्वी तथा स्वर्ग पर जो राज्य है, उसे यह बुद्धि जानती है, अत: बुद्धि ही मेरा धन है। ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास में स्थित ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण जिस मार्ग से चलते हैं, उन ब्राह्मणों का मार्ग एक ही है। क्योंकि वे लोग बहुत से व्याकुलता रहित चिन्हों को धारण करके भी एक बुद्धि का ही आश्रय लेते हैं। भिन्न-भिन्न आरमों में रहते हुए भी जिनकी बुद्धि शान के साधन में लगी हुई है, वे अन्त में एकमात्र सत्स्वरूप ब्रह्म को उसी प्रकार प्राप्त होते हैं, जिस प्रकार सब नदियाँ समुद्र को प्राप्त होती हैं। यह मार्ग बुद्धिगम्य है, शरीर के द्वारा इसे नहीं प्राप्त किया जा सकता। सभी कर्म आदि और अन्त वाले हैं तथा शरीर कर्म का हेतु है। इसलिये देवि! तुम्हें परलोक के लिये तनिक भी भय नहीं करना चाहिये। तुम परमात्मभाव की भावना में रत रहकर अन्त में मेरे ही स्वरूप को प्राप्त हो जाओगी।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता १४ विषयक ३४वाँ अध्याय पूरा हुआ।