चाणक्यनीति अध्याय २ || Chanakya Niti Adhyay 2 Chapter, चाणक्यनीति द्वितीयोऽध्यायः
चाणक्य नीति या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी सुझाव दिये गये हैं।
चाणक्यनीति दूसरा अध्याय
चाणक्यनीति अध्याय २
अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमातिलोभिता ।
अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणांदोषाःस्वभावजाः ।।१।।
दोहा– अनृत साहस मूढता, कपटरु कृतघन आइ ।
निरदयतारु मलीनता, तियमें सहज रजाइ ॥१॥
झूठ बोलना, एकाएक कोई काम कर बैठना, नखरे करना, मूर्खता करना, ज्यादा लालच रखना, अपवित्र रहना और निर्दयता का बर्ताव करना ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं ॥१॥
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वराड्गना ।
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ।।२।।
दोहा– सुन्दर भोजन शक्ति रति, शक्ति सदा वर नारि ।
विभव दान की शक्ति यह, बड तपफल सुखकारि ॥२॥
भोजन योग्य पदार्थों का उपलब्ध होते रहना, भोजन की शक्ति विद्यमान रहना (यानी स्वास्थ्य में किसी तरह की खराबी न रहना) रतिशक्ति बनी रहना, सुन्दरी स्त्री का मिलना, इच्छानुकूल धन रहना और साथ ही दानशक्ति का भी रहना, ये बातें होना साधारण तपस्या का फल नहीं है (जो अखण्ड तपस्या किये रहता है, उसको ये चीजें उपलब्ध होती हैं) ॥२॥
यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी ।
विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ।।३।।
दोहा– सुत आज्ञाकारी जिनाहिं, अनुगामिनि तिय जान ।
विभव अलप सन्तोष तेंहि, सुर पुर इहाँ पिछान ॥३॥
जिसका पुत्र अपने वश में, स्त्री आज्ञाकारिणी हो और जो प्राप्त धन से सन्तुष्ट है, उसके लिये यहाँ स्वर्ग है ॥३॥
ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः स पिता यस्तु पोषकः ।
तन्मित्रंयत्रविश्वासःसा भार्या यत्र निवृतिः ।।४।।
दोहा– ते सुत जे पितु भक्तिरत, हितकारक पितु होय ।
जेहि विश्वास सो मित्रवर, सुखकारक तिय होय ॥४॥
वे ही पुत्र, पुत्र हैं जो पिता के भक्त हैं । वही पिता, पिता है, जो अपनी सन्तान का उचित रीति से पालन पोषण करता है । वही मित्र, मित्र है जो कि जिस पर अपना विश्वास है और वही स्त्री, स्त्री है कि जहाँ हृदय आनन्दित होता है ॥४॥
परोक्षे कार्य्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।
वर्ज्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भम्पयोमुखम् ।।५।।
दोहा– ओट कार्य की हानि करि, सम्मुख करैं बखान ।
अस मित्रन कहँ दूर तज, विष घट पयमुख जान ॥५॥
जो पीठ पीछे अपना काम बिगाड़ता हो और मुँह पर मीठी मीठी बातें करता हो, ऎसे मित्र को त्याग देना चाहिए। वह वैसे ही है जैसे किसी घड़े में गले तक विष भरा हो, किन्तु मुँह पर थोड़ा सा दूध डाल दिया गया हो ॥५॥
न विश्वसेत्कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत् ।
कदाचित्कुपितं मित्रं सर्वगुह्यं प्रकाशयेत् ।।६।।
दोहा– नहिं विश्वास कुमित्र कर, किजीय मित्तहु कौन ।
कहहि मित्त कहुँ कोपकरि, गोपहु सब दुख मौन ॥६॥
(अपनी किसी गुप्त बात के विषय में ) कुमित्र पर तो किसी तरह विश्वास न करे और मित्र पर भी न करे । क्योंकि हो सकता है कि वह मित्र कभी बिगड़ जाय और सारे गुप्त भेद खोल दे ॥६॥
मनसा चिन्तितं कार्यं वचसा न प्रकाशयेत् ।
मंत्रेण रक्षयेद् गूढं कार्य्य चापि नियोजयेत् ।।७।।
दोहा– मनतै चिंतित काज जो, बैनन ते कहियेन ।
मन्त्र गूढ राखिय कहिय, दोष काज सुखदैन ॥७॥
जो बात मन में सोचे, वह वचन से प्रकाशित न करे । उस गुप्त बात की मन्त्रणा द्वारा रक्षा करे और गुप्त ढंग से ही उसे काम में भी लावे ॥७॥
कष्टञ्च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम् ।
कष्टात् कष्टतरं चैव परगेहे निवासनम् ।।८।।
दोहा– मूरखता अरु तरुणता, हैं दोऊ दुखदाय ।
पर घर बसितो कष्ट अति, नीति कहत अस गाय ॥८॥
पहला कष्ट तो मूर्ख होना है, दूसरा कष्ट है जवानी और सब कष्टों से बढ़कर कष्ट है, पराये घर में रहना ॥८॥
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो नहि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ।।९।।
दोहा– प्रतिगिरि नहिं मानिक गनिय, मौक्ति न प्रतिगज माहिं ।
सब ठौर नहिं साधु जन, बन बन चन्दन नाहिं ॥९॥
हर एक पहाड़ पर माणिक नहीं होता, सब हाथियों के मस्तक में मुक्ता नहीं होता, सज्जन सर्वत्र नहीं होता और चन्दन सब जंगलो में नहीं होता ॥९॥
पुत्राश्च विविधैः शीलैर्नियोज्याः सततं बुधैः ।
नीतिज्ञाः शीलसम्पन्ना भवन्ति कुलपूजिताः ।।१०।।
दोहा– चातुरता सुतकू सुपितु, सिखवत बारहिं बार ।
नीतिवन्त बुधवन्त को, पूजत सब संसार ॥१०॥
समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने पुत्रों को विविध प्रकार के शील की शिक्षा दे । क्योंकि नीति को जानने वाले और शीलवान् पुत्र अपने कुल में पूजित होते हैं ॥१०॥
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा ।।११।।
दोहा– तात मात अरि तुल्यते, सुत न पढावत नीच ।
सभा मध्य शोभत न सो, जिमि बक हंसन बीच ॥११॥
जो माता अपने बेटे को पढ़ाती नहीं, वह शत्रु है । उसी तरह पुत्र को न पढ़ानेवाला पिता पुत्र का बैरी है । क्योंकि (इस तरह माता-पिता की ना समझी से वह पुत्र ) सभा में उसी तरह शोभित नहीं होता, जैसे हंसो के बीच में बगुला ॥११॥
लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः ।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्नतुलालयेत् ।।१२।।
दोहा– सुत लालन में दोष बहु, गुण ताडन ही माहिं ।
तेहि ते सुतअरु शिष्यकूँ, ताडिय लालिय नाहिं ॥१२॥
बच्चों का दुलार करने में दोष है और ताड़न करने में बहुत से गुण हैं । इसलिए पुत्र और शिष्य को ताड़ना अधिक दे, दुलार न करे ॥१२॥
श्लोकेन वा तदर्ध्दाऽर्ध्दाक्षरेण वा ।
अवन्घ्यं दिवसं कुर्याद्दानाध्ययनकर्मभिः ।।१३।।
दोहा– सीखत श्लोखहु अरध कै, पावहु अक्षर कोय ।
वृथा गमावत दिवस ना, शुभ चाहत निज सोय ॥१३॥
किसी एक श्लोक या उसके आधे भाग या आधे के भी आधे भाग का मनन करे । क्योंकि भारतीय महर्षियों का कहना यही है कि जैसे भी हो दान, अध्ययन (स्वाध्याय) आदि सब कर्म करके बीतते हुए दिनों को सार्थक करो, इन्हें यों ही न गुजर जाने दो ॥१३॥
कान्ता वियोगः स्वजनापमानि
रणस्य शेषः कुनृपस्य सेवा ।
दरिद्रभावो विषमा सभा च
विनाग्निना ते प्रदहन्ति कायम् ।।१४।।
दोहा– युध्द शैष प्यारी विरह, दरिद बन्धु अपमान ।
दुष्टराज खलकी सभा, दाहत बिनहिं कृशान ॥१४॥
स्त्री का वियोग, अपने जनों द्वारा अपमान, युद्ध में बचा हुआ शत्रु, दुष्ट राजा की सेवा, दरिद्रता और स्वार्थियों की सभा, ये बातें अग्नि के बिना ही शरीर को जला डालती हैं ॥१४॥
नदीतीरे च ये वृक्षाः परगेहेषु कामिनी ।
मंत्रिहीनाश्च राजानः शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम् ।।१५।।
दोहा– तरुवर सरिता तीरपर, निपट निरंकुश नारि ।
नरपति हीन सलाह नित, बिनसत लगे न बारि ॥१५॥
नदी के तट पर लगे वृक्ष, पराये घर रहनेवाली स्त्री, बिना मंत्री का राजा, ये शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ॥१५॥
बलं विद्या च विप्राणां राज्ञां सैन्यं बलं तथा ।
बलंवित्तञ्चवैश्यानां शूद्राणां परिचर्यिका ।।१६।।
दोहा– विद्या बल है विप्रको, राजा को बल सैन ।
धन वैश्यन बल शुद्रको, सेवाही बलदैन ॥१६॥
ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना है, वैश्यों का बल धन है और शूद्रों का बल द्विजाति की सेवा है ॥१६॥
निर्ध्दनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृप त्यजेत् ।
खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वाचाभ्यागतोगृहम् ।।१७।।
दोहा– वेश्या निर्धन पुरुष को, प्रजा पराजित राय ।
तजहिं पखेरूनिफल तरु, खाय अतिथि चल जाय ॥१७॥
धनविहीन पुरुष को वेश्या, शक्तिहीन राजा को प्रजा, जिसका फल झड़ गया है, ऎसे वृक्ष को पक्षी त्याग देते हैं और भोजन कर लेने के बाद अतिथि उस घर को छोड़ देता है ॥१७॥
गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम् ।
प्राप्तविद्यागुरुंशिष्योदग्धारण्यंमृगास्तथा ।।१८।।
दोहा– लेइ दक्षिणां यजमान सो, तजि दे ब्राह्मण वर्ग ।
पढि शिष्यन गुरु को तजहिं, हरिन दग्ध बन पर्व ॥१८॥
ब्राह्मण दक्षिणा लेकर यजमान को छोड़ देते हैं । विद्या प्राप्त कर लेने के बाद विद्यार्थी गुरु को छोड़ देता है और जले हुए जंगल को बनैले जीव त्याग देते हैं ॥१८॥
दुराचारी दुरादृष्टिर्दुरावासी च दुर्जनः ।
यन्मैत्रीक्रियते पुम्भिर्नरःशीघ्रं विनश्यति ।।१९।।
दोहा– पाप दृष्टि दुर्जन दुराचारी दुर्बस जोय ।
जेहि नर सों मैत्री करत, अवशि नष्ट सो होय ॥१९॥
दुराचारी, व्यभिचारी, दूषित स्थान के निवासी, इन तीन प्रकार के मनुष्यों से जो मनुष्य मित्रता करता है, उसका बहुत जल्दी विनाश हो जाता है ॥१९॥
समाने शोभते प्रीतिः राज्ञि सेवा च शोभते ।
वाणिज्यंव्यवहारेषु स्त्री दिव्या शोभते गृहे ।।२०।।
दोहा– सम सों सोहत मित्रता, नृप सेवा सुसोहात ।
बनियाई व्यवहार में, सुन्दरि भवन सुहात ॥२०॥
बराबर वाले के साथ मित्रता भली मालूम होती है । राजा की सेवा अच्छी लगती है । व्यवहार में बनियापन भला लगता है और घर में अन्दर स्त्री भली मालूम होती है ॥२०॥
इति चाणक्य नीति-दर्पण द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥