गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय ४ || Garud Puran Saroddhar Adhyay 4 || प्रेतकल्प

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गरुडपुराण-सारोद्धार (प्रेतकल्प) में आपने इससे पूर्व में गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय ३ को पढ़ा। अब आगे इस गंथ के मूल पाठ को भावार्थ सहित गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय ४ पढेंगे, जिसमें की नरक प्रदान कराने वाले पापकर्म का वर्णन किया गया है।

गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय ४- मूल पाठ

गरुड उवाच

कैर्गच्छन्ति महामार्गे वैतरण्यां पतन्ति कैः। कैः पापैर्नरके यान्ति तन्मे कथय केशव॥१॥

श्रीभगवानुवाच सदैवाकर्मनिरताः शुभकर्मपराङ्मुखाः । नरकान्नरकं यान्ति दुःखाहुःखं भयाद्भयम्॥२॥

धर्मराजपुरे यान्ति त्रिभिरैस्तु धार्मिकाः। पापास्तु दक्षिणद्वारमार्गेणैव व्रजन्ति तत्॥३॥

अस्मिन्नेव महादुःखे मार्गे वैतरणी नदी। तत्र ये पापिनो यान्ति तानहं कथयामि ते॥४॥

ब्रह्मनाश्च सुरापाश्च गोना वा बालघातकाः । स्त्रीघाती गर्भपाती च ये च प्रच्छन्नपापिनः॥५॥

ये हरन्ति गुरोर्द्रव्यं देवद्रव्यं द्विजस्य वा। स्त्रीद्रव्यहारिणो ये च बालद्रव्यहराश्च ये॥ ६ ॥

ये ऋणं न प्रयच्छन्ति ये वै न्यासापहारकाः। विश्वासघातका ये च सविषान्नेन मारकाः॥ ७ ॥

दोषग्राही गुणाश्लाघी गुणवत्सु समत्सराः। नीचानुरागिणो मूढाः सत्सङ्गतिपराङ्मुखाः॥ ८ ॥

तीर्थसज्जनसत्कर्मगुरुदेवविनिन्दकाः । पुराणवेदमीमांसान्यायवेदान्तदूषकाः ॥९॥

हर्षिता दुःखितं दृष्ट्वा हर्षिते दुःखदायकाः। दुष्टवाक्यस्य वक्तारो दुष्टचित्ताश्च ये सदा॥ १०॥

न शृण्वन्ति हितं वाक्यं शास्त्रवार्ता कदापि न । आत्मसम्भाविताः स्तब्धा मूढाः पण्डितमानिनः॥११॥

एते चान्ये च बहवः पापिष्ठा धर्मवर्जिताः। गच्छन्ति यममार्गे हि रोदमाना दिवानिशम्॥१२॥

यमदूतैस्ताड्यमाना यान्ति वैतरणी प्रति । तस्यां पतन्ति ये पापास्तानहं कथयामि ते॥१३॥

मातरं येऽवमन्यन्ते पितरं गुरुमेव च । आचार्यं चापि पूज्यं च तस्यां मज्जन्ति ते नराः॥१४॥

पतिव्रतां साधुशीला कुलीनां विनयान्विताम् । स्त्रियं त्यजन्ति ये द्वेषाद्वैतरण्यां पतन्ति ते॥१५॥

सतां गुणसहस्त्रेषु दोषानारोपयन्ति ये । तेष्ववज्ञां च कुर्वन्ति वैतरण्यां पतन्ति ते॥१६॥

ब्राह्मणाय प्रतिश्रुत्य यथार्थं न ददाति यः। आहूय नास्ति यो ब्रूयात्तयोर्वासश्च सन्ततम्॥१७॥

स्वयं दत्ताऽपहर्ता च दानं दत्त्वाऽनुतापकः। परवृत्तिहरश्चैव दाने दत्ते निवारकः॥१८॥

यज्ञविध्वंसकश्चैव कथाभङ्गकरश्च यः। क्षेत्रसीमाहरश्चैव यश्च गोचरकर्षकः॥१९॥

ब्राह्मणो रसविक्रेता यदि स्याद् वृषलीपतिः। वेदोक्तयज्ञादन्यत्र स्वात्मार्थं पशुमारकः॥२०॥

ब्रह्मकर्मपरिभ्रष्टो मांसभोक्ता च मद्यपः । उच्छृङ्खलस्वभावो यः शास्त्राध्ययनवर्जितः॥२१॥

वेदाक्षरं पठेच्छूद्रः कापिलं यः पयः पिबेत् । धारयेद् ब्रह्मसूत्रं च भवेद्वा ब्राह्मणीपतिः॥२२॥

राजभार्याऽभिलाषी च परदारापहारकः। कन्यायां कामुकश्चैव सतीनां दूषकश्च यः॥२३॥

एते चाऽन्ये च बहवो निषिद्धाचरणोत्सुकाः। विहितत्यागिनो मूढा वैतरण्यां पतन्ति ते॥२४॥

सर्वं मार्गमतिक्रम्य यान्ति पापा यमालये। पुनर्यमाज्ञयाऽऽगत्य दूतास्तस्यां क्षिपन्ति तान्॥२५॥

या वै धुरन्धरा सर्वधौरेयाणां खगाधिप । अतस्तस्यां प्रक्षिपन्ति वैतरण्यां च पापिनः॥२६॥

कृष्णा गौर्यदि नो दत्ता नौचंदेहक्रियाकृताः। तस्यां भुक्त्वा महदुःखं यान्ति वृक्षं तटोद्भवम्॥२७॥

कूटसाक्ष्यप्रदातारः कूटधर्मपरायणाः। छलेनार्जनसंसक्ताश्चौर्यवृत्त्या च जीविनः॥२८॥

छेदयन्त्यतिवृक्षांश्च वनारामविभञ्जकाः। व्रतं तीर्थं परित्यज्य विधवाशीलनाशकाः॥२९॥

भर्तारं दूषयेन्नारी परं मनसि धारयेत् । इत्याद्याः शाल्मलीवृक्षे भुञ्जन्ते बहुताडनम्॥३०॥

ताडनात् पतितान् दूताः क्षिपन्ति नरकेषु तान्। पतन्ति तेषु ये पापास्तानहं कथयामि ते॥३१॥

नास्तिका भिन्नमर्यादाः कदर्या विषयात्मकाः। दाम्भिकाश्च कृतजाश्च ते वै नरकगामिनः॥३२॥

कूपानां च तडागानां वापीनां देवसद्मनाम् । प्रजागृहाणां भेत्तारस्ते वै नरकगामिनः॥३३॥

विसृज्याश्नन्ति ये दाराञ्छिशून् भृत्यांस्तथा गुरून्। उत्सृज्य पितृदेवेज्यां ते वै नरकगामिनः॥३४॥

शंकुभिः सेतुभिः काष्ठैः पाषाणैः कण्टकैस्तथा। ये मार्गमुपरुन्धन्ति ते वै नरकगामिनः॥ ३५॥

शिवं शिवां हरिं सूर्यं गणेशं सद्गुरुं बुधम् । न पूजयन्ति ये मन्दास्ते वै नरकगामिनः॥३६॥

आरोग्य दासीं शयने विप्रो गच्छेदधोगतिम् । प्रजामुत्पाद्य शूद्रायां ब्राह्मण्यादेव हीयते॥३७॥

न नमस्कारयोग्यो हि स कदापि द्विजोऽधमः । तं पूजयन्ति ये मूढास्ते वै नरकगामिनः॥३८॥

ब्राह्मणानां च कलहं गोयुद्धं कलहप्रियाः। न वर्जन्त्यनुमोदन्ते ते वै नरकगामिनः॥३९॥

अनन्यशरणस्त्रीणां ऋतुकालव्यतिक्रमम् । ये प्रकुर्वन्ति विद्वेषात्ते वै नरकगामिनः॥४०॥

येऽपि गच्छन्ति कामान्धा नरा नारी रजस्वलाम् । पर्वस्वप्सु दिवा श्राद्धे ते वै नरकगामिनः॥४१॥

ये शारीरं मलं वह्नौ प्रक्षिपन्ति जलेऽपि च । आरामे पथि गोष्ठे वा ते वै नरकगामिनः॥४२॥

शस्त्राणां ये च कर्तारः शराणां धनुषां तथा । विक्रेतारश्च ये तेषां ते वै नरकगामिनः॥४३॥

चर्मविक्रयिणो वैश्याः केशविक्रेयकाः स्त्रियः। विषविक्रयिणः सर्वे ते वै नरकगामिनः॥४४॥

अनाथं नाऽनुकम्पन्ति ये सतां द्वेषकारकाः। विनाऽपराधं दण्डन्ति ते वै नरकगामिनः॥४५॥

आशया समनुप्राप्तान् ब्राह्मणानर्थिनो गृहे । न भोजयन्ति पाकेऽपि ते वै नरकगामिनः॥४६॥

सर्वभूतेष्वविश्वस्तास्तथा तेषु विनिर्दयाः। सर्वभूतेषु जिह्मा ये ते वै नरकगामिनः॥४७॥

नियमान्समुपादाय ये पश्चादजितेन्द्रियाः। विग्लापयन्ति तान् भूयस्ते वै नरकगामिनः॥४८॥

अध्यात्मविद्यादातारं नैव मन्यन्ति ये गुरुम् । तथा पुराणवक्तारं ते वै नरकगामिनः ॥४९॥

मित्रद्रोहकरा ये च प्रीतिच्छेदकराश्च ये । आशाच्छेदकरा ये च ते वै नरकगामिनः॥५०॥

विवाहं देवयात्रां च तीर्थसार्थान्विलुम्पति । स वसेन्नरके घोरे तस्मान्नावर्तनं पुनः॥५१॥

अग्निं दद्यान्महापापी गृहे ग्रामे तथा वने। स नीतो यमदूतैश्च वह्निकुण्डेषु पच्यते॥५२॥

अग्निना दग्धगात्रोऽसौ यदा छायां प्रयाचते। नीयते च तदा दूतैरसिपत्रवनान्तरे॥५३॥

खड्गतीक्ष्णैश्च तत्पत्रैर्गावच्छेदो यदा भवेत् । तदोचुः शीतलच्छाये सुखनिद्रां कुरुष्व भो॥५४॥

पानीयं पातुमिच्छन्वै तृषार्तो यदि याचते । पानार्थं तैलमत्युष्णं तदा दूतैः प्रदीयते॥५५॥

पीयतां भुज्यतां पानमन्नमूचुस्तदेति ते। पीतमात्रेण तेनैव दग्धान्त्रा निपतन्ति ते॥५६॥

कथञ्चित्पुनरुत्थाय प्रलपन्ति सुदीनवत्। विवशा उच्छ्वसन्तश्च ते वक्तुमपि नाशकन्॥ ५७॥

इत्येवं बहुशस्तार्थ्य यातनाः पापिनां स्मृताः। किमेतैर्विस्तरात्प्रोक्तैः सर्वशास्त्रेषु भाषितैः॥५८॥

एवं वै क्लिश्यमानास्ते नरा नार्यः सहस्रशः । पच्यन्ते नरके घोरे यावदाभूतसम्प्लवम्॥५९॥

तस्याक्षयं फलं भुक्त्वा तत्रैवोत्पद्यते पुनः। यमाज्ञया महीं प्राप्य भवन्ति स्थावरादयः॥६०॥

वृक्षगुल्मलतावल्लीगिरयश्च तृणानि च। स्थावरा इति विख्याता महामोहतमावृताः॥६१॥

कीटाश्च पशवश्चैव पक्षिणश्च जलेचराः। चतुरशीतिलक्षेषु कथिता देवयोनयः॥६२॥

एताः सर्वाः परिभ्रम्य ततो यान्ति मनुष्यताम्। मानुषेऽपि श्वपाकेषु जायन्ते नरकागताः।

तत्रापि पापचिह्नस्ते भवन्ति बहुदुःखिताः ॥६३॥

गलत्कुष्ठाश्च जन्मान्धा महारोगसमाकुलाः। भवन्त्येवं नरा नार्यः पापचिह्नोपलक्षिताः॥६४॥

इति गरुडपुराणे सारोद्धारे नरकप्रदपापचिह्ननिरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥

गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय ४-भावार्थ

गरुड़ जी ने कहा – हे केशव ! किन पापों के कारण पापी मनुष्य यमलोक के महामार्ग में जाते हैं और किन पापों से वैतरणी में गिरते हैं तथा किन पापों के कारण नरक में जाते हैं? वह मुझे बताइए।

श्रीभगवान बोले – सदा पापकर्मों में लगे हुए, शुभ कर्म से विमुख प्राणी एक नरक से दूसरे नरक को, एक दु:ख के बाद दूसरे दु:ख को तथा एक भय के बाद दूसरे भय को प्राप्त होते हैं। धार्मिक जन धर्मराजपुर में तीन दिशाओं में स्थित द्वारों से जाते हैं और पापी पुरुष दक्षिण-द्वार के मार्ग से ही वहाँ जाते हैं।

इसी महादु:खदायी दक्षिण मार्ग में वैतरणी नदी है, उसमें जो पापी पुरुष जाते हैं, उन्हें मैं तुम्हें बताता हूँ – जो ब्राह्मणों की हत्या करने वाले, सुरापान करने वाले, गोघाती, बाल हत्यारे, स्त्री की हत्या करने वाले, गर्भपात करने वाले और गुप्तरूप से पाप करने वाले हैं, जो गुरु के धन को हरण करने वाले, देवता अथवा ब्राह्मण का धन हरण करने वाले, स्त्रीद्रव्यहारी, बालद्रव्यहारी हैं, जो ऋण लेकर उसे न लौटानेवाले, धरोहर का अपहरण करने वाले, विश्वासघात करने वाले, विषान्न देकर मार डालने वाले, दूसरे के दोष को ग्रहण करने वाले, गुणों की प्रशंसा ना करने वाले, गुणवानों के साथ डाह रखने वाले, नीचों के साथ अनुराग रखने वाले, मूढ़, सत्संगति से दूर रहने वाले हैं, जो तीर्थों, सज्जनों, सत्कर्मों, गुरुजनों और देवताओं की निन्दा करने वाले हैं, पुराण, वेद, मीमांसा, न्याय और वेदान्त को दूषित करने वाले हैं।

दु:खी व्यक्ति को देखकर प्रसन्न होने वाले, प्रसन्न को दु:ख देने वाले, दुर्वचन बोलने वाले तथा सदा दूषित चित्तवृत्ति वाले हैं। जो हितकर वाक्य और शास्त्रीय वचनों को कभी न सुनने वाले, अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले, घमण्डी, मूर्ख होते हुए अपने को विद्वान समझने वाले हैं – ये तथा अन्य बहुत पापों का अर्जन करने वाले अधर्मी जीव रात-दिन रोते हुए यममार्ग में जाते हैं। यमदूतों के द्वारा पीटे जाते हुए वे पापी वैतरणी की ओर जाते हैं और उसमें गिरते हैं, ऎसे उन पापियों के विषय में मैं तुम्हें बताता हूँ –

जो माता, पिता, गुरु, आचार्य तथा पूज्यजनों को अपमानित करते हैं, वे मनुष्य वैतरणी में डूबते हैं। जो पुरुष पतिव्रता, सच्चरित्र, उत्तम कुल में उत्पन्न, विनय से युक्त स्त्री को द्वेष के कारण छोड़ देते हैं, वे वैतरणी में पड़ते हैं। जो हजारों गुणों के होने पर भी सत्पुरुषों में दोष का आरोपण करते हैं और उनकी अवहेलना करते हैं, वे वैतरणी में पड़ते हैं।

वचन दे करके जो ब्राह्मण को यथार्थ रूप में दान नहीं देता है और बुला करके जो व्यक्ति “नहीं है” ऎसा कहता है, वे दोनों सदा वैतरणी में निवास करते हैं। स्वयं दी हुई वस्तु का जो अपहरण कर लेता है, दान देकर पश्चात्ताप करता है, जो दूसरे की आजीविका का हरण कर लेता है, दान देने से रोकता है, यज्ञ का विध्वंस करता है, कथा-भंग करता है, क्षेत्र की सीमा का हरण कर लेता है और गोचर भूमि को जोतता है, वह वैतरणी में पड़ता है।

ब्राह्मण होकर रसविक्रय करने वाला, वृषली का पति (शूद्र स्त्री का ब्राह्मण पति), वेद प्रतिपादित यज्ञ के अतिरिक्त अपने लिए पशुओं की हत्या करने वाला, ब्रह्मकर्म से च्युत, मांसभोजी, मद्य पीने वाला, उच्छृंखल स्वभाव वाला, शास्त्र अध्ययन से रहित (ब्राह्मण), वेद पढ़ने वाला शूद्र, कपिला का दूध पीने वाला शूद्र, यज्ञोपवीत धारण करने वाला शूद्र, ब्राह्मणी का पति बनने वाला शूद्र, राजमहिषी के साथ व्यभिचार करने वाला, परायी स्त्री का अपहरण करने वाला, कन्या के साथ कामाचार की इच्छा रखने वाला तथा जो सतीत्व नष्ट करने वाला है।

ये सभी तथा इसी प्रकार और भी बहुत निषिद्धाचरण करने में उत्सुक तथा शास्त्रविहित कर्मों को त्याग वाले वे मूढ़जन वैतरणी में गिरते हैं। सभी मार्गों को पार करके पापी यम के भवन में पहुँचते हैं और पुन: यम की आज्ञा से आकर दूत लोग उन्हें वैतरणी में फेंक देते हैं। हे खगराज! यह वैतरणी नदी कष्ट प्रदान करने वाले सभी प्रमुख नरकों में सर्वाधिक कष्टप्रद है। इसलिए यमदूत पापियों को उस वैतरणी में फेंकते हैं।

जिसने अपने जीवनकाल में कृष्णा (काली) गाय का दान नहीं किया अथवा मृत्यु के पश्चात जिसके उद्देश्य से बान्धवों द्वारा कृष्णा गौ नहीं दी गई तथा जिसने अपनी और्ध्वदैहिक क्रिया नहीं कर ली या जिसके उद्देश्य से और्ध्वदैहिक क्रिया नहीं की गई हो, वे वैतरणी में महान दु:ख भोग करके वैतरणी तटस्थित शाल्मली-वृक्ष में जाते हैं। जो झूठी गवाही देने वाले, धर्म पालन का ढोंग करने वाले, छल से धन का अर्जन करने वाले, चोरी द्वारा आजीविका चलाने वाले, अत्यधिक वृक्षों को काटने वाले, वन और वाटिका को नष्ट करने वाले, व्रत तथा तीर्थ का परित्याग करने वाले, विधवा के शील को नष्ट करने वाले हैं।

जो स्त्री अपने पति को दोष लगाकर परपुरुष में आसक्त होने वाली है – ये सभी और इस प्रकार के अन्य पापी भी शाल्मली वृक्ष द्वारा बहुत ताड़ना प्राप्त करते हैं। पीटने से नीचे गिरे हुए उन पापियों को यमदूत नरकों में फेंकते हैं। उन नरकों में जो पापी गिरते हैं, उनके विषय में मैं तुम्हें बतलाता हूँ – वेद की निन्दा करने वाले नास्तिक, मर्यादा का उल्लंघन करने वाले, कंजूस, विषयों में डूबे रहने वाले, दम्भी तथा कृतघ्न मनुष्य निश्चय ही नरकों में गिरते हैं। जो कुंआ, तालाब, बावली, देवालय तथा सार्वजनिक स्थान, धर्मशाला आदि – को नष्ट करते हैं, वे निश्चय ही नरक में जाते हैं।

स्त्रियों, छोटे बच्चों, नौकरों तथा श्रेष्ठजनों को छोड़कर एवं पितरों और देवताओं की पूजा का परित्याग करके जो भोजन करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। जो मार्ग को कीलों से, पुलों से, लकड़ियों से तथा पत्थरों एवं काँटों से रोकते हैं, निश्चय ही वे नरकगामी होते हैं।

जो मन्द पुरुष भगवान शिव, भगवती शक्ति, नारायण, सूर्य, गणेश, सद्गुरु और विद्वान – इनकी पूजा नहीं करते, वे नरक में जाते हैं। दासी को अपनी शय्या पर आरोपित करने से ब्राह्मण अधोगति को प्राप्त होता है और शूद्रा में संतान उत्पन्न करने से वह ब्राह्मणत्व से ही च्युत हो जाता है। वह ब्राह्मणधम कभी भी नमस्कार के योग्य नहीं होता। जो मूर्ख ऎसे ब्राह्मण की पूजा करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। दूसरों के कलह से प्रसन्न होने वाले जो मनुष्य ब्राह्मणों के कलह तथा गौओं की लड़ाई को नहीं रुकवाते हैं (प्रत्युत ऎसा देखकर प्रसन्न होते हैं) अथवा उसका समर्थन करते हैं, बढ़ावा देते हैं, वे अवश्य ही नरक में जाते हैं।

जिसका कोई दूसरा शरण नहीं है, ऎसी पतिपरायणा स्त्री के ऋतुकाल की द्वेषवश उपेक्षा करने वाले निश्चित ही नरकगामी होते हैं। जो कामान्ध पुरुष रजस्वला स्त्री से गमन करते हैं अथवा पर्व के दिनों (अमावस्या, पूर्णिमा आदि) में, जल में, दिन में तथा श्राद्ध के दिन कामुक होकर स्त्रीसंग करते हैं, वे नरकगामी होते हैं।

जो अपने शरीर के मल को आग, जल, उपवन, मार्ग अथवा गोशाला में फेंकते हैं, वे निश्चित ही नरक में जाते हैं। जो हथियार बनाने वाले, बाण और धनुष का निर्माण करने वाले तथा इनका विक्रय करने वाले हैं, वे नरकगामी होते हैं। चमड़ा बेचने वाले वैश्य, केश (योनि) का विक्रय करने वाली स्त्रियाँ तथा विष का विक्रय करने वाले – ये सभी नरक में जाते हैं।

जो अनाथ के ऊपर कृपा नहीं करते हैं, सत्पुरुषों से द्वेष करते हैं और निरपराध को दण्ड देते हैं, वे नरकगामी होते हैं। आशा लगाकर घर पर आये हुए ब्राह्मणों और याचकों को पाकसम्पन्न रहने पर भी जो भोजन नहीं कराते, वे निश्चय ही नरक प्राप्त करने वाले होते हैं। जो सभी प्राणियों में विश्वास नहीं करते और उन पर दया नहीं करते तथा जो सभी प्राणियों के प्रति कुटिलता का व्यवहार करते हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं। जो अजितेन्द्रिय पुरुष नियमों को स्वीकार कर के बाद में उन्हें त्याग देते हैं, वे नरकगामी होते हैं।

जो अध्यात्म विद्या प्रदान करने वाले गुरु को नहीं मानते और जो पुराणवक्ता को नहीं मानते, वे नरक में जाते हैं। विवाह को भंग करने वाला, देव यात्रा में विघ्न करने वाला तथा तीर्थयात्रियों को लूटने वाला घोर नरक में वास करता है और वहाँ से उसका पुनरावर्तन नहीं होता।

जो महापापी घर, गाँव तथा जंगल में आग लगाता है, यमदूत उसे ले जाकर अग्निकुण्डों में पकाते हैं। इस अग्नि में जले हुए अंगवाला वह पापी जब छाया की याचना करता है तो यमदूत उसे असिपत्र नामक वन में ले जाते हैं। जहाँ तलवार के समान तीक्ष्ण पत्तों से उसके अंग जब कट जाते हैं तब यमदूत उससे कहते हैं – रे पापी! शीतल छाया में सुख की नींद सो।

जब वह प्यास से व्याकुल होकर जल पीने की इच्छा से पानी माँगता है तो दूतों के द्वारा उसे खौलता हुआ तेल पीने के लिये दिया जाता है। “पानी पीयो और अन्न खाओ” – ऎसा उस समय उनके द्वारा कहा जाता है। उस अति उष्ण तेल के पीते ही उनकी आँतें जल जाती हैं और वे गिर पड़ते हैं। किसी प्रकार पुन: उठकर अत्यन्त दीन की भाँति प्रलाप करते हैं। विवश होकर ऊर्ध्व श्वास लेते हुए वे कुछ कहने में भी समर्थ नहीं होते।

हे तार्क्ष्य! इस प्रकार की पापियों की बहुत सी यातनाएँ बतायी गई हैं। विस्तारपूर्वक इन्हें कहने की क्या आवश्यकता? इनके संबंध में सभी शास्त्रों में कहा गया है। इस प्रकार हजारों नर-नारी नारकीय यातना को भोगते हुए प्रलयपर्यन्त घोर नरकों में पकते रहते हैं। उस पाप का अक्षय फल भोगकर पुन: वहीं पैदा होते हैं और यम की आज्ञा से पृथ्वी पर आकर स्थावर आदि योनियों को प्राप्त करते हैं।

वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली, गिरि (पर्वत) तथा तृण आदि ये स्थावर योनियाँ कही गई हैं, ये अत्यन्त मोह से आवृत हैं। कीट, पशु-पक्षी, जलचर तथा देव – इन योनियों को मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ कही गई हैं।

इन सभी योनियों में घूमते हुए जब जीव मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं और मनुष्य योनि में भी नरक से आये व्यक्ति चाण्डाल के घर जन्म लेते हैं तथा उसमें भी कुष्ठ आदि पाप चिह्नों से वे बहुत दु:खी रहते हैं। किसी को गलित कुष्ठ हो जाता है, कोई जन्म से अन्धे होते हैं और कोई महारोग से व्यथित होते हैं। इस प्रकार पुरुष और स्त्री में पाप के चिह्न दिखाई पड़ते हैं।

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