बिना इस ज्ञान के नहीं पा सकते जन्म-मरण का चक्र से मुक्ति
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप |
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि || गीता 9/3||
अर्थ: हे परंतप! जो पुरुष इस धर्म (ज्ञान) में अश्रद्धा रखते हैं, वे मुझे प्राप्त किये बिना ही इस मृत्यु रूपी संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं।
व्याख्या: जन्म-मरण का चक्र बिना परमात्मा में ध्यान लगाए ख़त्म नहीं हो सकता, भले कितने भी दान-पुण्य, तीर्थ, कर्म-काण्ड, शास्त्रों का अध्ययन, सत्कर्म आदि क्यों न कर लिए जाए। परमात्मा में ज्ञान सहित श्रद्धा रखने के बिना मुक्त नहीं हो सकते। इसलिए भगवान कह रहे हैं जो आत्म ज्ञान में श्रद्धा नहीं रखते वो जीवन में कभी भी अंतर मुखी यात्रा शुरू नहीं कर सकते।
ऐसे लोग जीवन भर संसार की सुख-सुविधाओं और अपनी इच्छाओं में ही जीते हैं। बहिर्मुखी होने के कारण उनके अंदर अनेक इच्छाएं व वासनाएं इस जन्म में अधूरी रह जाती है, जिनको पूरा करने के लिए उन्हें फिर से जन्म लेना पड़ता है और यह सिलसिला यूं ही चलता रहता है। लेकिन जो आत्मज्ञान के साधक हैं, वो पूर्ण श्रद्धा के साथ अंत में परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं और मुक्त हो जाते हैं।