दीनबन्ध्वष्टक – Dinabandhvashtak ( यस्मादिदं जगदुदेति चतुर्मुखाद्यं यस्मिन्नवस्थितमशेषमशेषमूले )

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जो लोग ब्रह्मानन्द के कहे हुए इस दीनबन्ध्वष्टक नामक पवित्र स्तोत्र का नित्य पाठ करते हैं उनके ऊपर दीनबन्धु भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर उनके सब अपराधों व समस्त पापों को अपनी करुणा दृष्टि से जलाकर नष्ट कर देते हैं।

|| श्रीदीनबन्ध्वष्टकम् ||

यस्मादिदं जगदुदेति चतुर्मुखाद्यं यस्मिन्नवस्थितमशेषमशेषमूले ।

यत्रोपयाति विलयं च समस्तमन्ते दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः ॥ १॥

जिन परमात्मा से यह ब्रह्मा आदि रूप जगत् प्रकट होता है और सम्पूर्ण जगत्के कारणभूत जिस परमेश्वर में यह समस्त संसार स्थित है तथा अन्तकाल में यह समस्त जगत् जिनमें लीन हो जाता है-वे दीनबन्धु भगवान् आज मेरे नेत्रों के समक्ष दर्शन दें॥१॥

चक्रं सहस्रकरचारु करारविन्दे गुर्वी गदा दरवरश्च विभाति यस्य ।

पक्षीन्द्रपृष्ठपरिरोपितपादपद्मो दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः ॥ २॥

जिनके करकमल में सूर्य के समान प्रकाशमान चक्र, भारी गदा और श्रेष्ठ शङ्ख शोभित हो रहा है, जो पक्षिराज (गरुड़) की पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं, वे दीनबन्धु भगवान् आज मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दें ॥२॥

येनोद्धृता वसुमती सलिले निमग्ना नग्ना च पाण्डववधूः स्थगिता दुकूलैः ।

सम्मोचितो जलचरस्य मुखाद्गजेन्द्रो दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः ॥ ३॥

जिन्होंने जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार किया, नग्न की जाती हुई पाण्डववधू (द्रौपदी) को वस्त्रों से ढक लिया और ग्राह के मुख से गजराज को बचा लिया-वे दीनबन्धु भगवान् आज मेरे नेत्रों के समक्ष हो जायें ॥३॥

यस्यार्द्रदृष्टिवशतस्तु सुराः समृद्धिम् कोपेक्षणेन दनुजा विलयं व्रजन्ति ।

भीताश्चरन्ति च यतोऽर्कयमानिलाद्याः दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः ॥ ४॥

जिनकी स्नेहदृष्टि से देखे जाने के कारण देवता लोग ऐश्वर्य पाते हैं और कोपदृष्टि के द्वारा देखे जाने से दानव लोग नष्ट हो जाते हैं तथा सूर्य, यम और वायु आदि जिनके भय से भीत होकर अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, वे दीनबन्धु भगवान् आज मेरे नेत्रों के सामने हो जायँ ॥ ४॥

गायन्ति सामकुशला यमजं मखेषु ध्यायन्ति धीरमतयो यतयो विविक्ते ।

पश्यन्ति योगिपुरुषाः पुरुषं शरीरे दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः ॥ ५॥

सामवेद के गान में चतुर लोग यज्ञों में जिन अजन्मा भगवान्के गुणों को गाते हैं, धीर बुद्धिवाले संन्यासी लोग एकान्त में जिनका ध्यान करते हैं और योगीजन अपने शरीर के भीतर पुरुषरूप से जिनका साक्षात्कार करते हैं, वे दीनबन्धु भगवान् आज मेरे नेत्रों के सामने हों ॥ ५॥

आकाररूपगुणयोगविवर्जितोऽपि भक्तानुकम्पननिमित्तगृहीतमूर्तिः ।

यः सर्वगोऽपि कृतशेषशरीरशय्यो दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः ॥ ६॥

जो भगवान् आकार, रूप और गुण के सम्बन्ध से रहित होकर भी भक्तों के ऊपर दया करने के निमित्त अवतार धारण करते हैं और जो सर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी शेषनाग के शरीर को अपनी शय्या बनाये हुए हैं, वे दीनबन्धु भगवान् आज मेरे नेत्रों के प्रत्यक्ष हों॥६॥

यस्याङ्घ्रिपङ्कजमनिद्रमुनीन्द्रवृन्दै- राराध्यते भवदवानलदाहशान्त्यै ।

सर्वापराधमविचिन्त्य ममाखिलात्मा दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः ॥ ७॥

आलस्यहीन मुनिवरों का समूह संसार के दुःखरूपी दावानल की जलन शान्त करने के लिये जिन भगवान्के चरणकमल की आराधना करता है, वे समस्त जगत्के आत्मभूत दीनबन्धु मेरे सब अपराधों को भूलकर आज मेरे नेत्रों के समक्ष दर्शन दें॥७॥

यन्नामकीर्तनपरः श्वपचोऽपि नूनं हित्वाखिलं कलिमलं भुवनं पुनाति ।

दग्ध्वा ममाघमखिलं करुणेक्षणेन दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः ॥ ८॥

जिन भगवान के नामकीर्तन में तत्पर चाण्डाल भी निश्चय ही सम्पूर्ण कलिमल (पाप)को त्याग कर जगत्को पवित्र कर देता है, वे दीनबन्धु भगवान् मेरे समस्त पाप को अपनी करुणा दृष्टि से जलाकर आज मेरे नेत्रों को प्रत्यक्ष दर्शन दें॥ ८॥

दीनबन्ध्वष्टकं पुण्यं ब्रह्मानन्देन भाषितम् ।

यः पठेत् प्रयतो नित्यं तस्य विष्णुः प्रसीदति ॥ ९॥

जो लोग ब्रह्मानन्द के कहे हुए इस दीनबन्ध्वष्टक नामक पवित्र स्तोत्र का नित्य संयत चित्त से पाठ करेंगे उनके ऊपर विष्णु भगवान् प्रसन्न रहेंगे ॥९॥

इति श्रीपरमहंसस्वामिब्रह्मानन्दविरचितं श्रीदीनबन्ध्वष्टकं सम्पूर्णम्॥

2 thoughts on “दीनबन्ध्वष्टक – Dinabandhvashtak ( यस्मादिदं जगदुदेति चतुर्मुखाद्यं यस्मिन्नवस्थितमशेषमशेषमूले )

  1. Your article gave me a lot of inspiration, I hope you can explain your point of view in more detail, because I have some doubts, thank you.

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