द्वयोपनिषद् || Dvay Upanishad
द्वयोपनिषद् इस उपनिषद् में गुरु किसे कहते हैं बताया गया है ।
|| अथ द्वयोपनिषद् ||
आचार्यों वेदसंपन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः ।
मन्त्रज्ञो मन्त्रभक्तश्च सदामन्त्राश्रयः शुचिः ॥१॥
जो आचार्य वेद सम्पन्न, मंत्रों का ज्ञाता, मंत्रों का भक्त, मंत्रों का आश्रय लेने वाला, पुराणज्ञ, विशेषज्ञ, पवित्र, ईर्ष्यारहित, विष्णु भक्त और गुरु भक्त है, ऐसे लक्षणों से सम्पन्न व्यक्ति को ‘गुरु’ कहते हैं ॥
गुरुभक्तिसमायुक्तः पुराणज्ञो विशेषवित्।
एवं लक्षणसंपन्नो गुरुरित्यभिधीयते ॥२॥
जो आचार्य वेद सम्पन्न, मंत्रों का ज्ञाता, मंत्रों का भक्त, मंत्रों का आश्रय लेने वाला, पुराणज्ञ, विशेषज्ञ, पवित्र, ईर्ष्यारहित, विष्णु भक्त और गुरु भक्त है, ऐसे लक्षणों से सम्पन्न व्यक्ति को ‘गुरु’ कहते हैं ॥
आचिनोति हि शास्त्रार्थानाचारस्थापनादपि।
स्वयमाचरते यस्तु तस्मादाचार्य उच्यते ॥३॥
जो शास्त्रों के अर्थ को सम्यक् प्रकार से चुनता है (समझता है) और सदाचार की न केवल स्थापना करता है, वरन् स्वयं भी वैसा ही आचरण (सदाचरण) करता है, उसे आचार्य कहते हैं ॥
गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधकः।
अन्धकारनिरोधित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते ॥४॥
गुरु शब्द में ‘गु’ का अर्थ अन्धकार और ‘रु’ शब्द का अर्थ उसका (अन्धकार का) निरोधक है। (अज्ञान के) अन्धकार को रोकने के कारण ही (अन्धकार रोकने वाले व्यक्ति को) गुरु कहते हैं ॥
गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गतिः ।
गुरुरेव परं विद्या गुरुरेव परं धनम् ॥५॥
गुरु ही परम ब्रह्म है, गुरु ही परागति है, गुरु ही परम विद्या है और गुरु को ही परम धन कहा गया है।।
गुरुरेव परः कामः गुरुरेव परायणः ।
यस्मात्तदुपदेष्टासौ तस्मादगुरुतरो गुरुः ॥६॥
गुरु ही सर्वोत्तम अभिलषित वस्तु है, गुरु ही परम आश्रय स्थल है तथा परम ज्ञान का उपदेष्टा होने के कारण ही गुरु महान् (गुरुतर) होता है ॥
यस्सकृदुच्चारणः संसारविमोचनो भवति ।
सर्वपुरुषार्थसिद्धिर्भवति।
न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तत इति।
य एवं वेदेत्युपनिषत् ॥७॥
‘गुरु’ शब्द का उच्चारण एक बार भी कर लेने से संसार से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उसके (गुरु उच्चारण से) सभी पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं। फिर वह कदापि इस संसार में पुनरागमन नहीं करता, कभी पुनरावर्तन नहीं करता, यह सत्य है। जो इसे ठीक प्रकार समझता है (उसे सभी फल प्राप्त होते हैं) ॥
इति: द्वयोपनिषद् ॥