गणपति स्तोत्र – Ganapati Stotra जेतुं यस्त्रिपुरं हरेण हरिणा व्याजाद्वलिं बध्नता

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इस गणपति स्तोत्र के नित्य पाठ करने से सभी विघ्नों का नाश और सभी भय, बाधा का नाश होकर भगवान गणेश की कृपा से रिद्धि-सिद्धि व उत्तम बुद्धि की प्राप्ति होता है ।

|| श्रीगणपतिस्तोत्रम् ||

गणपति स्तोत्रम्

जेतुं यस्त्रिपुरं हरेण हरिणा व्याजाद्वलिं बध्नता

स्त्रष्टुं वारिभवोद्भवेन भुवनं शेषेण धर्तुं धरम् ।

पार्वत्या महिषासुरप्रमथने सिद्धाधिपैः सिद्धये

ध्यातः पञ्चशरेण विश्वजितये पायात् स नागाननः ॥ १॥

त्रिपुरासुर को जीतने के लिये शिव ने, बलि को छल से बाँधते समय विष्णु ने, जगत्को रचने के लिये ब्रह्मा ने, पृथ्वी धारण करने के लिये शेषनाग ने, महिषासुर को मारने के समय पार्वती ने, सिद्धि पाने के लिये सिद्धों के अधिपतियों (सनकादि ऋषियों) ने और सब संसार को जीतने के लिये कामदेव ने जिन गणेशजी का ध्यान किया है, वे हमलोगों का पालन करें ॥१॥

विघ्नध्वान्तनिवारणैकतरणिर्विघ्नाटवीहव्यवाड्

विघ्नव्यालकुलाभिमानगरुडो विघ्नेभपञ्चाननः ।

विघ्नोत्तुङ्गगिरिप्रभेदनपविर्विघ्नाम्बुधेर्वाडवो

विघ्नाघौधघनप्रचण्डपवनो विघ्नेश्वरः पातु नः ॥ २॥

विघ्नरूप अन्धकार का नाश करनेवाले एकमात्र सूर्य, विघ्नरूप वन के जलानेवाले अग्नि, विघ्नरूप सर्प कुल का दर्प नष्ट करने के लिये गरुड, विघ्नरूप हाथी को मारनेवाले सिंह, विघ्नरूप ऊँचे पहाड़ के तोड़नेवाले वज्र, विघ्नरूप महासागर के वडवानल, विघ्नरूपी मेघ-समूह को उड़ा देनेवाले प्रचण्ड वायुसदृश गणेशजी हमलोगों का पालन करें ॥ २ ॥

खर्वं स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरं

प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम् ।

दन्ताघातविदारितारिरुधिरैः सिन्दूरशोभाकर

वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम् ॥ ३॥

जो नाटे और मोटे शरीरवाले हैं, जिनका गजराज के समान मुँह और लंबा उदर है, जो सुन्दर हैं तथा बहते हुए मद की सुगन्ध के लोभी भौरों के चाटने से जिनका गण्डस्थल चपल हो रहा है, दाँतों की चोट से विदीर्ण हुए शत्रुओं के खून से जो सिन्दूर की-सी शोभा धारण करते हैं, कामनाओं के दाता और सिद्धि देनेवाले उन पार्वती के पुत्र, गणेशजी की मैं वन्दना करता हूँ॥३॥

गजाननाय महसे प्रत्यूहतिमिरच्छिदे ।

अपारकरुणापूरतरङ्गितदृशे नमः ॥ ४॥

विघ्नरूप अन्धकार का नाश करनेवाले, अथाह करुणारूप जलराशि से तरङ्गित नेत्रोंवाले, गणेश नामक ज्योति को नमस्कार है॥ ४ ॥

अगजाननपद्मार्कं गजाननमहर्निशम् ।

अनेकदन्तं भक्तानामेकदन्तमुपास्महे ॥ ५॥

जो पार्वती के मुखरूप कमल को प्रकाशित करने में सूर्यरूप हैं, जो भक्तों को अनेक प्रकार के फल देते हैं, उन एक दाँतवाले गणेशजी की मैं सदैव उपासना करता हूँ॥५॥

श्वेताङ्गं श्वेतवस्त्रं सितकुसुमगणैः पूजितं श्वेतगन्धैः

क्षीराब्धौ रत्नदीपैः सुरनरतिलकं रत्नसिंहासनस्थम् ।

दोर्भिः पाशाङ्कुशाब्जाभयवरमनसं चन्द्रमौलिं त्रिनेत्रं

ध्यायेच्छान्त्यर्थमीशं गणपतिममलं श्रीसमेतं प्रसन्नम् ॥ ६॥

जिनका शरीर श्वेत है, कपड़े श्वेत हैं, श्वेत फूल, चन्दन और रत्नदीपों से क्षीरसमुद्र के तट पर जिनकी पूजा हुई है; देवता और मनुष्य जिनको अपना प्रधान पूज्य समझते हैं, जो रत्न के सिंहासन पर बैठे हैं, जिनके हाथों में पाश (एक प्रकार की डोरी), अंकुश और कमल के फूल हैं, जो अभयदान और वरदान देनेवाले हैं, जिनके सिर में चन्द्रमा रहते हैं और जिनके तीन नेत्र हैं; निर्मल लक्ष्मी के साथ रहनेवाले, उन प्रसन्न प्रभु गणेशजी का अपनी शान्ति के लिये ध्यान करे ॥ ६॥

आवाहये तं गणराजदेवं रक्तोत्पलाभासमशेषवन्द्यम् ।

विघ्नान्तकं विघ्नहरं गणेशं भजामि रौद्रं सहितं च सिद्ध्या ॥ ७॥

जो देवताओं के गण के राजा हैं, लाल कमल के समान जिनके देह की आभा है, जो सबके वन्दनीय हैं, विघ्न के काल हैं, विघ्न के हरनेवाले हैं, शिवजी के पुत्र हैं; उन गणेशजी का मैं सिद्धि के साथ आवाहन और भजन करता हूँ ॥ ७ ॥

यं ब्रह्म वेदान्तविदो वदन्ति परं प्रधानं पुरुषं तथाऽन्ये ।

विश्वोद्गतेः कारणमीश्वरं वा तस्मै नमो विजविनाशनाय ॥ ८॥

जिनको वेदान्ती लोग ब्रह्म कहते हैं और दूसरे लोग परम प्रधान पुरुष अथवा संसार की सृष्टि के कारण या ईश्वर कहते हैं; उन विघ्नविनाशक गणेशजी को नमस्कार है॥८॥

विघ्नेश वीर्याणि विचित्रकाणि वन्दीजनैर्मागधकैः स्मृतानि ।

श्रुत्वा समुत्तिष्ठ गजानन त्वं ब्राह्मे जगन्मङ्गलकं कुरुष्व ॥ ९॥

हे विघ्नेश ! हे गजानन ! मागध और वन्दीजनों के मुख से गाये जाते हुए अपने विचित्र पराक्रमों को सुनकर, ब्रह्ममुहूर्त में उठो और जगत्का कल्याण करो॥९॥

गणेश हेरम्ब गजाननेति महोदर स्वानुभवप्रकाशिन् ।

वरिष्ठ सिद्धिप्रिय बुद्धिनाथ वदन्त एवं त्यजत प्रभीतीः ॥ १०॥

हे गणेश! हे हेरम्ब ! हे गजानन ! हे लम्बोदर! हे अपने अनुभव से प्रकाशित होनेवाले ! हे श्रेष्ठ ! हे सिद्धि के प्रियतम ! हे बुद्धिनाथ !’ ऐसा कहते हुए, हे मनुष्यो ! अपना भय छोड़ दो। १० ।।

अनेकविघ्नान्तक वक्रतुण्ड स्वसंज्ञवासिंश्च चतुर्भुजेति ।

कवीश देवान्तकनाशकारिन् वदन्त एवं त्यजत प्रभीतीः ॥ ११॥

हे अनेक विघ्नों का नाश करनेवाले ! हे वक्रतुण्ड ! गणेश आदि अपने नामवालों में भी निवास करनेवाले ! हे चतुर्भुज ! हे कवियों के नाथ ! हे दैत्यों का नाश करनेवाले !’ ऐसा कहते हुए, हे मनुष्यो ! अपने भय को भगा दो ।। ११ ॥

अनन्तचिद्रूपमयं गणेशं ह्यभेदभेदादिविहीनमाद्यम् ।

हृदि प्रकाशस्य धरं स्वधीस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १२॥

जो गणेश अनन्त हैं, चेतनरूप हैं, अभेद और भेद आदि से रहित और सृष्टि के आदि कारण हैं, अपने हृदय में जो सदा प्रकाश धारण करते है तथा अपनी ही बुद्धि में स्थित रहते हैं; उन एकदन्त गणेशजी की शरण में हम जाते हैं ।। १२ ।।

विश्वादिभूतं हृदि योगिनां वै प्रत्यक्षरूपेण विभान्तमेकम् ।

सदा निरालम्बसमाधिगम्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १३॥

जो संसार के आदि कारण हैं, योगियों के हृदय में अद्वितीय रूप से साक्षात् प्रकाशित होते हैं और निरालम्ब समाधि के द्वारा ही जानने योग्य हैं, उन एकदन्त गणेश की शरण में हम जाते हैं ।। १३ ॥

यदीयवीर्येण समर्थभूता माया तया संरचितं च विश्वम् ।

नागात्मकं ह्यात्मतया प्रतीतं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १४॥

जिनके बल से माया समर्थ हुई है और उसके द्वारा यह संसार रचा गया है, उन नागस्वरूप तथा आत्मारूप से प्रतीत होनेवाले एकदन्त गणेशजी की शरण में हम जाते हैं ॥ १४ ॥

सर्वान्तरे संस्थितमेकमूढं यदाज्ञया सर्वमिदं विभाति ।

अनन्तरूपं हृदि बोधकं वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १५॥

जो सब लोगों के अन्तःकरण में अकेले गूढभाव से स्थित रहते हैं, जिनकी आज्ञा से यह जगत् विराजमान है, जो अनन्तरूप हैं और हृदय में ज्ञान देनेवाले हैं; उन एकदन्त गणेश की शरण में हम जाते हैं ॥ १५॥

यं योगिनो योगबलेन साध्यं कुर्वन्ति तं कः स्तवनेन नौति ।

अतः प्रणामेन सुसिद्धिदोऽस्तु तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १६॥

जिनको योगीजन योगबल से साध्य करते (जान पाते) हैं, स्तुति से उनका वर्णन कौन कर सकता है ? इसलिये हम उनको केवल प्रणाम करते हैं कि हमें सिद्धि दें; उन प्रसिद्ध एकदन्त की शरण में हम जाते हैं ।। १६ ।।

देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणाः ।

विघ्नान् हरन्तु हेरम्बचरणाम्बुजरेणवः ॥ १७॥

जो इन्द्र के मुकुट में गुंथे हुए मन्दारपुष्पों के मकरन्दकणों से लाल हो रही है, वह गणेशजी के चरण-कमलों की रज विघ्नों का हरण करे ॥ १७॥

एकदन्तं महाकायं लम्बोदरगजाननम् ।

विघ्ननाशकरं देवं हेरम्बं प्रणमाम्यहम् ॥ १८॥

एक दाँतवाले, बडे शरीरवाले, स्थूल उदरवाले, हाथी के समान मुखवाले और विघ्नों का नाश करनेवाले गणेशदेव को मैं प्रणाम करता हूँ॥ १८ ॥

यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् ।

तत्सर्वं क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर ॥ १९॥

हे देव ! जो अक्षर, पद अथवा मात्रा छूट गयी हो, उसके लिये क्षमा करो और हे परमेश्वर ! प्रसन्न होओ ॥ १९॥

इति श्रीगणपतिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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