गंगा प्रार्थना और आरती || Ganga Prarthana aur Aarati

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श्री गंगाजी के नित्य प्रार्थना व आरती करने से मन निर्मल,पवित्र होता और सारे पाप राशि नष्ट होकर पुण्य का उदय होता है।

गंगा प्रार्थना और आरती

श्रीतुलसीदासजी की गंगा-प्रार्थना

जय जय भगीरथनन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दिनि,

नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जलु बालिका ।

बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,

त्रिपथगासि, पुन्यरासि, पाप-छालिका ॥१॥

हे भगीरथनन्दिनी! तुम्हारी जय हो, जय हो। तुम मुनियों के समूहरूपी चकोरों के लिये चन्द्रिकारूप हो। मनुष्य, नाग और देवता तुम्हारी वन्दना करते हैं। हे जह्नु की पुत्री! तुम्हारी जय हो। तुम भगवान् विष्णु के चरणकमल से उत्पन्न हुई हो; शिवजी के मस्तक पर शोभा पाती हो; स्वर्ग, भूमि और पाताल-इन तीन मार्गों से तीन धाराओं में होकर बहती हो। पुण्यों की राशि और पापों को धोनेवाली हो॥१॥

बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,

भँवर बर बिभंगतर तरंग-मालिका ।

पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,

भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका ॥२॥

तुम अगाध निर्मल जल को धारण किये हो, वह जल शीतल और तीनों तापों को हरनेवाला है। तुम सुन्दर भँवर और अति चंचल तरंगों की माला धारण किये हो। नगर-निवासियों ने पूजा के समय जो सामग्रियाँ भेंट चढ़ायी हैं, उनसे तुम्हारी चन्द्रमा के समान धवल धारा शोभित हो रही है। वह धारा संसार के जन्म-मरणरूप भार को नाश करनेवाली तथा भक्तिरूपी कल्पवृक्ष की रक्षा के लिये थाल्हारूप है॥२॥

निज तटबासी बिहंग, जल-थर-चर पसु-पतंग,

कीट, जटिल तापस सब सरिस पालिका ।

तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस-बीर,

बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका॥३॥

तुम अपने तीर पर रहनेवाले पक्षी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग, कीट और जटाधारी तपस्वी आदि सबका समान भाव से पालन करती हो। हे मोहरूपी महिषासुर को मारने के लिये कालिकारूप गङ्गाजी! मुझ तुलसीदास को ऐसी बुद्धि दो कि जिससे वह श्रीरघुनाथजी का स्मरण करता हुआ तुम्हारे तीर पर विचरा करे॥३॥ [विनय-पत्रिका]

श्रीगंगाजी की आरती

जय गंगा मैया-माँ जय सुरसरि मैया ।

भव-वारिधि उद्धारिणि अतिहि सुदृढ़ नैया ॥

हरि-पद-पद्म-प्रसूता विमल वारिधारा ।

मृतकी अस्थि तनिक तुव जल-धारा पावै ।

ब्रह्मद्रव भागीरथि शुचि पुण्यागारा ॥

सो जन पावन होकर परम धाम जावै ॥

शंकर-जटा विहारिणि हारिणि त्रय-तापा ।

तव तटबासी तरुवर, जल-थल-चरप्राणी ।

सगर-पुत्र-गण-तारिणि, हरणि सकल पापा ॥

पक्षी-पशु-पतंग गति पार्दै निर्वाणी ॥

‘गंगा-गंगा’ जो जन उच्चारत मुखसों ।

मातु! दयामयि कीजै दीननपर दाया ।

दूर देशमें स्थित भी तुरत तरत सुखसों ॥

प्रभु-पद-पद्म मिलाकर हरि लीजै माया ॥

इति: गंगा प्रार्थना और आरती ॥

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