तो वासनाओं की सफाई हो जाती है
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।। गीता 8/10।।
अर्थ : वह प्रयाणकाल में भक्तियुक्त पुरुष, निश्चल मन से योगबल द्वारा भृकुटियों के मध्य प्राण को सम्यक प्रकार से स्थित कर परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।
व्याख्या : जब योगी निरंतर परमात्मा की भक्ति करता हुआ केवल परमात्मा के ही भाव में ही बना रहता है तब उसके चित्त में विकारो व वासनाओं की सफाई हो जाती है।
फिर जब वह ध्यान में बैठता है तब उसका संसार से प्रयाणकाल हो जाता है, ध्यान में वह भक्त अपने मन को पूरी तरह एकाग्र कर अपने योगबल से प्राण को काबू करता है और अपनी सभी इन्द्रियों, मन व बुद्धि की शक्तियों को समेटकर अपनी भृकुटियों के बीच आज्ञाचक्र पर केंद्रित कर देता है।
इसप्रकार यह साधक का निरंतर अभ्यास चलता रहता है, जिससे अंत में वह परम दिव्य पुरुष अर्थात परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।