ऐसे व्यक्ति अपनी आत्मा से जुड़ जाते हैं

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अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना। परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।। गीता 8/8।।
अर्थ : हे पार्थ ! जो अभ्यास द्वारा योग से युक्त होकर अपने चित्त को अन्य कहीं न भटकाते हुए निरंतर चिंतन करता है वह परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।

व्याख्या : चित्त हमेशा भटकता ही रहता है, इसको वश करना बड़ा कठिन काम है। ऐसा कोई भी समय नहीं होता जब चित्त पूर्णतया शांत हो जाए। इसलिए यदि चित्त को शांत करना है तो इसका उपाय केवल अभ्यास और वैराग्य ही है।

यहां भगवान कह रहे हैं हे पार्थ ! जो व्यक्ति निरंतर चित्त को वश करने का अभ्यास करता रहता है, उसके चित्त का भटकाव धीरे-धीरे थमने लगता है और यह एकाग्र हुआ चित्त आत्मा से जुड़ने लगता है।

जिसका चित्त, आत्मा से जुड़ जाता है, वह साधक योग युक्त कहलाता है। इस प्रकार निरंतर व दीर्घकाल तक आत्मा का चिंतन करता हुआ योगी, अंत में परम दिव्य पुरुष अर्थात परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है।

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