गुणों में रहकर गुणातीत का अनुभव नहीं कर सकते
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् | मोहितं नाभिजानाति मामभ्य: परमव्ययम् || गीता 7/13||
अर्थ : इन तीनों गुणों के भावों से यह संपूर्ण जगत मोहित हो रहा है, इसीलिये गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जान पाता।
व्याख्या : प्रकृति के सभी पदार्थों में सत्व, रज व तम गुण रचे- बसे हैं, मनुष्य भी इन तीनों गुणों के कारण ही कार्य करता रहता है। ये तीनों गुणों के अलग-अलग भाव ही व्यक्ति को संसार में बांधे रखते हैं। हमारी इंद्रियां, शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार आदि सभी चौबीस तत्त्वों में इन तीनों गुणों का प्रभाव रहता है।
कभी कोई गुण प्रबल हो जाता है और कभी कोई दुर्बल। इस प्रकार ऐसा कोई भी समय नहीं जाता जब हम गुणों के पार हों। लेकिन हमारी आत्मा इन तीनों गुणों से परे है। वह गुणातीत है।
क्योंकि हम गुणों में ही फंसे रहते हैं इसलिए अपने गुणातीत भाव तक नहीं पहुंच पाते। यहां भगवान कह रहे हैं कि इन तीनों गुणों के अलग-अलग भावों से सारा संसार मोहित रहता है इसलिए वो इन गुणों को बनाने वाले मुझ अविनाशी स्वरूप को नहीं जान पाते, क्योंकि गुणों में रहकर गुणातीत का अनुभव नहीं कर सकते।