ताकि ऊर्जा इंद्रियों के रास्ते से बाहर न बहे

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सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च। मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।। गीता 8/12।।

अर्थ: सभी द्वारों को संयम कर, मन को हृदय में निरुद्ध कर, प्राण को मस्तक में स्थापित करके अपने को योग धारणा में एकाग्र करें।
व्याख्या: आत्म स्वरूप तक पहुंचने के लिए साधना का क्रम बताते हुए भगवान कृष्ण, अर्जुन से कह रहे हैं कि सबसे पहले साधक को चाहिए कि वह अपनी सभी इंद्रियों के द्वारों को बंद करे, जिससे मन विषयों व संसार में न फंसे और ऊर्जा इंद्रियों के रास्ते से बाहर न बहे।

उसके बाद संकल्प शक्ति के माध्यम से मन को समेटकर, मन को हृदय में स्थित करे, जिससे मन की उछल-कूद थम जाए और और मन, अमन होकर पूरी तरह अंतर्मुखी हो जाए।

उसके बाद साधक को चाहिए कि वो अपने शरीर में फैले सभी दस प्राणों को इकट्ठा कर उसको मस्तक यानी आज्ञा चक्र में स्थापित कर दें और फिर अपने को योग धारणा अर्थात आत्मस्थिति में एकाग्र कर दें।

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