गीतगोविन्द अष्ट पदि १- दशावतार स्तोत्र कीर्तिधवल – Geetagovinda Ashtapadi 1 Dashavatar Stotra Kirtidhaval

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श्रीगीतगोविन्द के प्रथम सर्ग-सामोद-दामोदर के प्रथम सन्दर्भ-अष्टपदी में दशावतार स्तोत्र कीर्तिधवल का वर्णन हुआ है। इसके प्रथम प्रबन्ध के दश पद्यों में कवि जयदेवजी ने भगवान् श्रीकृष्ण के अवतारों की मनोरम लीलाओं का चित्रण किया है। दश अवतार स्वरूप को प्रकट करनेवाले श्रीकृष्ण ने मत्स्य रूप में वेदों का उद्धार किया, कूर्म रूप में पृथ्वी को धारण किया, वराह रूप में पृथ्वी का उद्धार किया, नृसिंह रूप में हिरण्यकशिपु को विदीर्ण किया, वामन रूप में बलि को छलकर उसे अपना लिया, परशुराम रूप में दुष्ट क्षत्रियों का विनाश किया, बलभद्र रूप में दुष्टों का दमन किया, बुद्ध के रूप में करुणा का विस्तार किया, कल्कि रूप में म्लेच्छों का नाश किया ।

|| गीतगोविन्द अष्ट पदि १-दशावतार कीर्ति धवलम् ||

अथ प्रथम सन्दर्भ

अष्टपदी

गीतम्

प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम् ।

विहितवहित्रचरित्रमखेदम् ॥

केशवाधृतमीनशरीर जयजगदीशहरे ॥ १॥

अन्वय – हे केशव! हे धृत-मीनशरीर! (स्वीकृत-मत्स्य-कलेवर) त्वं प्रलयपयोधिजले (कल्पान्तसागर-सलिले) विहित-वहित्रचरित्रम् (विहितं स्वीकृतम् अवलम्बितमिति यावत्र वहित्रस्य अर्णवपोतस्य चरित्रं व्यवहारो यस्मिन् तद्यथा स्यात् तथा अखेदं (अनायासं यथा स्यात्र तथा) वेदं धृतवानसि (रक्षितवानसि) अत: हे जगदीश, हे हरे, (हरति भक्तानामशेषक्लेशमितिहरि: तत्सम्बुद्धो) त्वं जय (सर्वोत्कर्षे वर्त्तस्व) ॥१॥

अनुवाद- हे जगदीश्वर! हे हरे! नौका (जलयान) जैसे बिना किसी खेद के सहर्ष सलिल स्थित किसी वस्तु का उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रम के निर्मल चरित्र के समान प्रलय जलधि में मत्स्यरूप में अवतीर्ण होकर वेदों को धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान्! आपकी जय हो।

पद्यानुवाद-

जय जगदीश हरे!

प्रलय-जलधिसे नौ सम न्यारे

वेद उबारे, हास्य-सँवारे।

केशव मत्स्य स्वरूप लसे, जय जगदीश हरे ॥१॥

बालबोधिनी – श्रीराधामाधव की लीलामाधुरी की सर्वोत्कर्षता का वर्णन करना ही कवि जयदेव को अभिप्रेत है। वे ग्रन्थ के आरम्भ में ‘प्रलयपयोधिजले’ श्लोक से लेकर इस अष्टपदी के अन्त तक समस्त अवतारों के मूल आश्रय-स्वरूप अखिल नायक शिरोमणि श्रीकृष्ण के मत्स्यादि अवतारों का वर्णन कर रहे हैं। यह अष्टपदी मालव गौड़ राग में तथा रूपक ताल से गायी जाती है।

मालवगौड़ राग का स्वरूप इस प्रकार है-

नितम्बिनीचुम्बितवक्त्रपद्म:, शुकद्युति: कुण्डलवान् प्रमत्त:।

संगीतशालां प्रविशन् प्रदोषे, मालाधरो मालवरागराज:॥

नितम्बिनी नायिका के द्वारा चुम्बित मुखकमल वाला, शुक के समान हरित-वर्ण की कान्ति वाला, कानों में कुण्डल तथा गले में माला पहने हुए, मदमत्त, रागों का राजा मालव संगीतशाला में प्रवेश करता है। इस अष्टपदी का ताल रूपक है। जैसे अन्त में विराम और द्रुत दोनों के मिलन में विलक्षणा रूपक ताल होता है।

इस अष्टपदी में श्रीभगवान के लिए चार सम्बोधन हैं। पहला सम्बोधन है ‘केशव’। भगवान को कई कारणों से ‘केशव’ कहा जाता है-

१. वराहवतार में भगवान के जो बाल गिरे, वे कुश रूप में अङ्कुरित हुए। वेद-विहित यज्ञादि क्रियाकलापों में कुश की आवश्यकता होती है। बिना कुश के वे कार्यकलाप सम्पन्न नहीं होते। इसलिए भगवान केशव कहलाये।

२. ‘केशाद्वोऽन्यतरस्याम’ – इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार केश शब्द से प्रसिद्ध अर्थ में ‘व’ प्रत्यय होकर केशव शब्द बनता है।

३. श्रीभगवान के द्वादश व्यूहों में ‘केशव-व्यूह’ का सर्वप्रथम स्थान है।

४. इस ‘केशव’ नाम की व्याख्या करते हुए भगवण दर्पणकार कहते हैं ‘प्रशस्तस्निग्धनीलकुटिलकुन्तल:’ अर्थात्र ‘केशव’ यह भगवान का नाम उन भगवान के प्रशस्त काले और घुँघराले बालों वाला बतलाता है।

५. ‘केशव: को ब्रह्मा ईशश्च तावपि वयते प्रशस्तीति’ अर्थात क ब्रह्मा, ईश महादेव दोनों के नियामक या शासक को केशव कहते हैं।

६. ‘केशान् वयते’ गोपियों के केश-संस्कार करने वाले रसिक शेखर श्रीकृष्ण ही ‘केशव’ कहलाते हैं।

७. केशी नामक दैत्य का संहार करने वाले केशव हैं।

धृतमीनशरीर‘ – यह भगवान का दूसरा सम्बोधन है। श्रीभगवान सन्तजनों के परित्रण और पापियों के विनाश हेतु विविध रूपों में अवतरित होते हैं। उनके असंख्य अवतारों में से दश प्रधान हैं। उन दश अवतारों में मत्स्यावतार सर्वप्रथम अवतार है। इस अवतार में श्रीभगवान ने वेदों के अपहरणकर्त्ता हयग्रीव का वधकर वेदों का उद्धार किया था।

ये मीन अवतार वीभत्स रस के अधिष्ठाता हैं।

जगदीश‘- इस तीसरे सम्बोधन का अभिप्राय यह है कि श्रीभगवान सम्पूर्ण जगत और प्रकृति के ईश्वर हैं। वे सम्पूर्ण जगत की सृष्टि, स्थिति एवं पालन का नियमन करते हैं तथा जगत के भीतर अन्तर्यामी रूप में स्थित होकर उसका नियमन करते हैं। जगदीश शब्द से भगवान की करुणा भी प्रकट होती है।

हरे‘ – इस चतुर्थ सम्बोधन का तात्पर्य यह है कि भगवान भक्तों के अशेष प्रकार के कष्टों को हरण करने वाले हैं हरति भक्तानां क्लेशम्। इसी हेतु उनका अवतार होता है।

इन चार सम्बोधनों के द्वारा कविराज ने श्रीभगवान के प्रति अतिशय आदर प्रदर्शित किया है।

जय, अर्थात हे प्रभो! आप अपने उत्कर्ष का आविष्कार करने में सिद्धहस्त हैं, आप इस उत्कर्ष को प्रकट करें।

जय जगदीश हरे- यह पंक्ति प्रत्येक पद के साथ आवृत्त करके गायी गई है, अतएव इसे ध्रुव-पद कहा जाता है ‘ध्रुवत्वाच्च ध्रुवो ज्ञेय:’। यह ध्रुव-पद अन्त में प्रयुक्त होता है।

इस अष्टपदी में भगवान श्रीकेशव के मत्स्यावतार के चरित्र का वर्णन किया गया है। इस प्रथम अवतार में श्रीकृष्ण ने प्रलयकालीन महासागर के अगाध जल में वेदों को धारण किया तथा स्वयं अपने सींग से नौका को ग्रहण करके उसमें सम्पूर्ण प्रकार के बीजों तथा मनु सहित सप्तर्षियों को प्रलयकाल तक धारण कर बिना प्रयास के ही उनका वहन करते हुए उनकी रक्षा की। इस अवतार में उन्होंने सत्यव्रत मुनि की भी रक्षा की थी। अतएव मत्स्यावतारधारी भगवान केशव की जय हो।

प्रस्तुत पद में ऊर्ध्वमागधी रीति, उपमा और अतिशयोक्ति अलंकार, उत्साह नामक स्थायी-भाव तथा वीररस है। मत्स्यावतार को वीभत्स रस का अधिष्ठाता भी कहा गया है ॥१॥

क्षितिरतिविपुलतरे तिष्ठति तव पृष्ठे

धरणि-धरणकिण-चक्रगरिष्ठे ।

केशव धृत-कूर्मशरीर

जय जगदीश हरे ॥२॥

अन्वय– हे केशव! हे धृतकच्छपरूप! (स्वीकृत-कच्छप -विग्रह) क्षितिः (मेदिनी) धरणि-धरण-किणचक्र-गरिष्ठे (धरण्याः धरणेन बहनेन यत् किणचक्रं कठिनी-भूतत्त्वक्समूहः) तेन गरिष्ठे सुदृढ़े विपुलतरे (अतिविशाले) तव पृष्ठे तिष्ठति; हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय (सर्वोत्कर्षेण वर्तस्व)॥२॥

अनुवाद– हे केशिनिसूदन! हे जगदीश! हे हरे! आपने कूर्मरूप अङ्गीकार कर अपने विशाल पृष्ठ के एक प्रान्त में पृथ्वी को धारण किया है, जिससे आपकी पीठ व्रण के चिह्नों से गौरवान्वित हो रही है। आपकी जय हो ॥२॥

पद्यानुवाद-

राजित पृष्ठे निज क्षिति विपुला,

धरणी धरण-किण अङ्कित बहुला,

केशव कच्छप रूप लसे, जय जगदीश हरे॥२॥

बालबोधिनी– अष्टपदी के द्वितीय श्लोक में श्रीभगवान् के कच्छपावतार का वर्णन किया है। आपने इस पृथ्वी (मन्दराचल) को मात्र आकर्षित ही नहीं किया अपितु अपनी पीठ पर धारण करते हुए स्थापन किया है। कच्छपावतार धारण करके श्रीभगवान् पृथ्वी के नीचे विद्यमान हैं और पृथ्वी की अपेक्षा अत्यधिक विशाल उनके पृष्ठ पर यह भूमण्डल एक गेंद की भाँति अवस्थित है।

पृथ्वी के धारण करने से उनके पृष्ठ पर घाव-चिन्ह जाल-सा बन गया है। यह व्रण-चिह्न-जाल आपका अलङ्कार ही है। आपकी जय हो।

जय जगदीश हरे! मुखबन्ध की भाँति यह सम्पुट सम्पूर्ण अष्टपदी से संयोजित है॥२॥

वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना

शशिनि कलङ्ककलेव निमग्ना।

केशव धृत-शूकररूप जय जगदीश हरे॥३॥

अन्वय– हे केशव! हे धृत-शूकररूप! (स्वीकृत-वराहविग्रह) तव दशनशिखरे (दन्ताग्रे) लग्ना (अवस्थिता) धरणी (पृथिवी, लोकधारणकर्त्यपि); शशिनि (चन्द्रे) निमग्ना कलङ्ककला (कलङ्करेखा) इव वसति (अवतिष्ठते); हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय (सर्वोत्कर्षेण वर्त्तस्व)॥३॥

अनुवाद– हे जगदीश! हे केशव! हे हरे! हे वराहरूपधारी! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलङ्क के सहित सम्मिलित रूप से दिखाई देता है, उसी प्रकार आपके दाँतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है॥३॥

पद्यानुवाद-

दशन अग्र धरणी यह लग्ना,

शोभित चन्द्र कलङ्क निमग्ना ।

केशव सूकर-रूप लसे, जय जगदीश हरे॥३॥

बालबोधिनी- अष्टपदी के तृतीय पद में भगवान् की स्तुति की गयी है। भगवान् पृथ्वी को धारण करते हैं, इतना ही नहीं, समस्त चराचर को धारण करनेवाली पृथ्वी को अपने दाँतों पर अवस्थित कर चलते भी हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में हिरण्याक्ष जब बीजभूता पृथ्वी का अपहरण करके रसातल में चला गया था, तो श्रीभगवान् ने वराहरूप धारण किया और प्रलयकालीन जल के भीतर प्रविष्ट होकर अपने दाँतों के अग्रभाग पर पृथ्वी को उठाकर ऊपर ले आये तथा अपने सत्यसङ्कल्परूपी योगबल के द्वारा उसे जल के ऊपर स्थापित किया। जिस समय भगवान् अपने दाँतों के अग्रभाग पर पृथ्वी को उठाकर ला रहे थे, उस समय उनके उज्ज्वल दाँतों के ऊपर पृथ्वी ऐसे सुशोभित हो रही थी, जिस प्रकार चन्द्रमा के भीतर उसके बीच में उसकी कालिमा सुशोभित होती है। कवि ने भगवान् के दाँतों को बालचन्द्रमा की उपमा देकर उनके दाँतों के महदाकारत्व तथा धरणी के अल्पाकारत्व को सूचित किया है। धरणी कलङ्क कलावत् निमग्ना है। निमग्न शब्द से वराहदेव भयानक रस के अधिष्ठाता रूप में प्रकाशित होते हैं। इस पद में उपमा अलङ्कार है। हे शूकररूप धारिण! आपकी जय हो॥३॥

तव करकमलवरे नखमद्धतशृङ्गम्

दलितहिरण्यकशिपु-तनुभृङ्गम् ।

केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे॥४॥

अन्वय– हे केशव! हे धृत-नरहरिरूप! (नृसिंहरूपधर) तब कर-कमलवरे (पाणिपङ्कज-श्रेष्ठे) अद्भुतशृङ्ग (अद्भुतं शृङ्गम् अग्रं यस्य तादृशं) दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृङ्गं (दलिता विदारिता हिरण्यकशिपोः असुरराजस्य या तनुः शरीरं सा एव भृङ्गः येन तथाभूतं) नखं [शोभते इति शेषः], [अतिकोमलेन करकमल-केसरेण सुदृढ़-दैत्यदेहरूपभृङ्गदलनम् अदृष्टचरम्; अतएव अद्भुतम्] हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय (सर्वोत्कर्षेण वर्तस्व)॥४॥

अनुवाद– हे जगदीश्वर! हे हरे! हे केशव! आपने नृसिंह रूप धारण किया है। आपके श्रेष्ठ करकमल में नखरूपी अद्भुत शृङ्ग विद्यमान है, जिससे हिरण्यकशिपु के शरीर को आपने ऐसे विदीर्ण कर दिया जैसे भ्रमर पुष्प का विदारण कर देता है, आपकी जय हो॥४॥

पद्यानुवाद-

अम्बुज कर खर नखसे अपने,

हिरण्यकशिपुके हर सब सपने।

केशव नरहरि-रूप लसे, जय जगदीश हरे॥४॥

बालबोधिनी- चौथे पद्य में श्रीजयदेवजी ने नृसिंहावतार के रूप में भगवान्का स्तवन किया है। दुःखकातर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कष्ट स्वीकार कर लेते हैं, पर दूसरों का दुःख सहन नहीं कर पाते। दितिपुत्र हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र महाभागवत प्रह्लाद पर अत्याचार किया तो भगवान् ने नृसिंह वेश में उस महादैत्य के वक्षःस्थल को निज नख से विदीर्णकर उनकी रक्षा की। हे नरहरि रूप धारण करनेवाले केशव! आपके श्रेष्ठ करकमल में नख समुदाय एक श्रेष्ठ कमल के अग्रभाग के समान हैं, उनमें अति तीक्ष्णता है। यह नख समुदाय अति अद्भुत, पहाड़ की चोटी के समान अति आश्चर्यजनक है। कमलाग्ररूप इन नखों का यह वैशिष्ट्य है कि अन्य कमल के अग्रभागों को तो भ्रमर विदीर्ण करते हैं, परन्तु आपके करकमलों के अग्रभाग ने तो दैत्यरूपी भ्रमर का ही दलन कर दिया है। विश्वकोष में शृङ्ग शब्द का अर्थ बजाने वाला विषाण, उत्कर्ष एवं अग्रभाग है। भ्रमर के उदाहरण से कृष्ण-वर्णत्व को भी सूचित किया गया है। यह रूपक अलङ्कार है। श्रीनृसिंह रूप को वात्सल्यरस का अधिष्ठान माना जाता है॥४॥

छलयसि विक्रमणे बलिमद्धतवामन

पद-नख-नीर-जनितजनपावन।

केशव धृत-वामनरूप जय जगदीश हरे॥५॥

अन्वय– हे केशव! हे धृतवामनरूप! (वामनरूपधर) हे पद-नख-नीर-जनित-जन-पावन (पदनख-नीरेण पदनखोद्भूतेन गङ्गाजलेन जनितं जनानां पावनं पवित्रता येन) हे अद्भुतवामन ! (अपूर्ववामनमूर्तिधारिन्), विक्रमणे (पादत्रयेन त्रिभुवनाक्रमेण) बलिं (दानवपतिम् अतिदातृत्वगविणं) छलयसि (प्रतारयसि)। हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय ॥५॥

अनुवाद– हे सम्पूर्ण जगत के स्वामिन्! हे श्रीहरे ! हे केशव! आप वामन रूप धारणकर तीन पग धरती की याचना की क्रिया से बलि राजा की वञ्चना कर रहे हैं। यह लोक समुदाय आपके पद-नख-स्थित सलिल से पवित्र हुआ है। हे अद्भुत वामन देव! आपकी जय हो ॥५॥

पद्यानुवाद-

छलित नृपति बलि अद्भुत वामन,

पदनख नीर हुए जन पावन ।

केशव वामन-रूप लसे, जय जगदीश हरे॥५॥

बालबोधिनी- पाँचवे पद्य में वामनदेव की स्तुति की गयी है। राजा बलि की यज्ञशाला में जाकर आपने भिक्षा के छल से त्रिविक्रमरूप धारणकर ऊपर नीचे के समस्त लोक नाप लिये हैं। छलयसि-इसमें वर्तमान कालिक क्रियापद का प्रयोग है, अर्थात बलि को अपने वरदान से अनुग्रहीतकर उसके साथ पाताल में निवास करते हैं और अनादि काल से ही अद्भुत वामन बनकर उसे छला करते हैं। पदनख नीर जनित जन पावन से तात्पर्य है कि उन्होंने अपने पद-नखों से श्रीगङ्गा को यहाँ प्रकट कर समस्त संसार को पावन किया है। ब्रह्माजी ने पृथ्वी नापते समय भगवान के चरणों को ब्रह्मलोक में देखकर अर्घ्य चढ़ाया। वही जल श्रीगङ्गाजी के रूप में परिणत हो गया। आपकी जय हो। इस पद्य में अद्भुत रस है, यहाँ पर श्रीभगवान् सख्य रस के अधिष्ठाता रूप में प्रकाशित हुए हैं ॥५॥

क्षत्रिय-रुधिरमये जगदपगत-पापम्

स्नपयसि पयसि शमित-भवतापम् ।

केशव धृत-भृगुपतिरूप जय जगदीश हरे॥६॥

अन्वय- हे केशव! हे धृतभृगुपतिरूप! (धृतपरशुरामविग्रह)। [हैययवंशीयैरुन्मार्ग-प्रस्थितैः नृपकुलापसदैः समाधावासक्तं पितरं महर्षि जमदग्निं निहतमवगम्य पितृ-वधामर्षजकोपात् गुरुतरपरशुमादाय] क्षत्रियरुधिरमये (क्षत्रशोणितरूपे) पयसि (जले) अपगतपापम् (अपगतानि पापानि यस्य तत्) [अतएव] शमित-भवतापम् (शमितः उपशमतां प्राप्तः भवस्य संसारस्य तापः सन्तापो यस्य तादृशं) जगत् स्नपयसि (प्रक्षालयसि)। हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय ॥६॥

अनुवाद– हे जगदीश! हे हरे! हे केशिनिसूदन! आपने भृगु (परशुराम) रूप धारणकर क्षत्रियकुल का विनाश करते हुए उनके रक्तमय सलिल से जगत को पवित्र कर संसार का सन्ताप दूर किया है। हे भृगुपतिरूपधारिन्, आपकी जय हो ॥६॥

पद्यानुवाद-

‘वीर-रुधिर’ से धो पापों को,

और शमन कर भव-तापों को ।

केशव भृगुपति-रूप लसे, जय जगदीश हरे॥६॥

बालबोधिनी- छठवें पद्य में श्रीपरशुराम अवतार की स्तुति की है, हे प्रभो! भृगुपतिरूप धारण कर आपने एक बार नहीं, इकतीस बार ब्राह्मणविद्वेषी क्षत्रियों का विनाशकर उनके रुधिर से निर्मित सरोवर को कुरुक्षेत्र का ह्रद तीर्थ बना दिया है, जिसमें स्नान करने से समस्त जगत के प्राणियों के पापों का मोचन होता है और संसार के समस्त तापों से मुक्ति मिलती है। ज्ञान की उत्पत्ति होने से उत्तापों की शान्ति होती है। प्रस्तुत पद में स्वाभाविकोक्ति अलङ्कार तथा अद्भुत रस है। परशुराम अवतार को रौद्र रस का अधिष्ठाता माना जाता है। यहाँ तक छह पद्यों के नायक को धीरोद्धत नायक कहा जाता है॥६॥

वितरसि दिक्षु रणे दिक्पति-कमनीयं

दशमुख-मौलि-बलिं रमणीयम् ।

केशव धृत-रामशरीर जय जगदीश हरे॥७॥

अन्वय– हे केशव! हे धृत-रघुपतिरूप! (स्वीकृत-दाशरथि -देह) रणे (युद्धे) दिक्पति-कमनीयं (दिशां पतीनाम् इन्द्रादिलोकपालानां कमनीयं वाञ्छनीयं) [दशसु] दिक्षु रमणीयं (शोभाकर) दशमुखमौलिवलिं (रावणदशमुण्डोपहार) वितरसि (ददासि)। हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय ॥७॥

अनुवाद-हे जगत् स्वामिन् श्रीहरे! हे केशिनिसूदन ! आपने रामरूप धारण कर संग्राम में इन्द्रादि दिकपालों को कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावण के किरीट भूषित शिरों की बलि दशदिशाओं में वितरित कर रहे हैं। हे रामस्वरूप! आपकी जय हो ॥७॥

पद्यानुवाद

दिक्पति कान्ति हुई कमनीया,

पा रावणकी बलि रमणीया ।

केशव रघुपति-रूप लसे, जय जगदीश हरे॥७॥

बालबोधिनी- सातवें पद्य में श्रीराम-स्वरूप का वर्णन हुआ है। हे प्रभो! प्रिया वियोगादि दुःख को सहन करने के लिए आप रघुकुल तिलक श्रीराम रूप में अवतरित हुए। भयानक संग्राम में संसार को रुलानेवाले रावण के दश मस्तकों को अनन्तकाल के लिए समर्पित कर दिया है अर्थात् रावण के शिरों को काटकर श्रीभगवान् ने दिक्पालों को बलि चढ़ाया जिससे कि संसार में राक्षसों के द्वारा बढ़े हुए उत्पातों की शान्ति हो जाय।

दिक्पालों को रावण की बलि अत्यन्त अभीष्ट थी। रावण का वध हो जाने से यह बलि लोकाभिराम बनी। इस बात को जयदेव कवि ने ‘दिक्पति कमनीयम्’ एवं ‘रमणीयम्’ इन दो पदों के द्वारा अभिव्यक्त किया है। दिक्पालों की संख्या दश है तथा रावण के किरीट मण्डित शिरों की संख्या भी दश ही है। यही कारण है कि दिकपालों को यह बलि अत्यन्त कमनीय थी।

दूसरों को उद्वेग देनेवाले रावण का संहारकर भगवान् ने जगत में सभी का आनन्दवर्द्धन किया है।

इस पद के नायक धीरोदात्त हैं। भगवान्के राम अवतार में करुण रस का प्रकाश होता है।

दशमुख मौलि बलिम्-इस पद की व्युत्पत्ति दशमुखस्य ये मौलया तान्येव बलिम् अर्थात् रावण के किरीट मण्डित शिर ही बलि हैं। यद्यपि मौलि शब्द शिर और किरीट दोनों का वाचक है तथापि मौलि मण्डित शिर यह अर्थ तटस्थ लक्षण के द्वारा स्वीकार किया जाता है॥७॥

वहसि वपुषि विशदे वसनं जलदाभम्

हलहति-भीति-मिलित-यमुनाभम् ।

धृत-हलधररूप जय जगदीश हरे॥८॥

अन्वय- हे केशव! हे धृतहलधररूप! (धृतबलदेवशरीर!) त्वं विशदे (शुभ्रे) वपुषि (देहे) जलदाभं (नवघनश्याम) [अतएव] हल-हति-भीति-मिलित-यमुनाभं (हलस्य लाङ्गलस्य हत्या आघातेन या भीतिः तया मिलिता पादपतिता शरणागता इति यावत् या यमुना तस्या भाः प्रभाइव भा दीप्तिर्यस्य तादृशं) वसनं (वस्त्रं नीलाम्बरमित्यर्थः) वहसि (धारयसि)। हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय ॥८॥

अनुवाद-हे जगत् स्वामिन्! हे केशिनिसूदन! हे हरे! आपने बलदेवस्वरूप धारण कर अति शुभ्र गौरवर्ण होकर नवीन जलदाभ अर्थात् नूतन मेघों की शोभा के सदश नील वस्त्रों को धारण किया है। ऐसा लगता है, यमुनाजी मानो आपके हल के प्रहार से भयभीत होकर आपके वस्त्र में छिपी हुई हैं। हे हलधरस्वरूप! आपकी जय हो ॥८॥

पद्यानुवाद

घन सम वसन विशद तन धारे,

यमुन-तरङ्गित हल-भय मारे।

केशव हलधर-रूप लसे जय जगदीश हरे॥८॥

बालबोधिनी-आठवें पद में भगवान् के हलधारी श्रीबलरामस्वरूप की स्तुति की जा रही है।

विशद वपु- बलरामजी का वर्ण गौर है, वे शुभ्र हैं।

केशवजलदाभ- बलरामजी नील हरित वर्ण का वस्त्र धारण करते हैं। जल से भरे कृष्णवर्ण के मेघ को जलद कहते हैं।

जलदस्य आभा- श्यामा यस्य तम्-यह जलदाभ पद का विग्रह है। जलद कृषक को जिस प्रकार आनन्दित करता है, उसी प्रकार बलरामजी के वस्त्र भक्तों को आनन्द प्रदान करते हैं।

हलहतिभीति मिलित यमुनाभम्- हलेन या हतिः तद् भीत्या मिलिता या यमुना तस्या आभा इव आभा यस्य तत्। भगवान् केवल प्रिया-वियोगादि-दु:ख सहन नहीं कर पाते, ऐसा नहीं है। आपने प्रेयसी के श्रमरूप क्लेश को दूर करने हेतु अपनी प्रिय भक्त यमुनाजी को आकर्षित किया है। आपके शुभ्र कान्ति विशिष्ट श्रीअङ्ग में धारण किये हुए नील वसनों से ऐसा लगता है मानो आपके हल के प्रहार से भयभीत होकर यमुनाजी आपके नीले सरम्य वस्त्रों में समा गयी हैं।

प्रस्तुत पद के नायक श्रीबलरामजी धीर ललित नायक हैं। इन्हें हास्य रस का अधिष्ठाता माना जाता है॥८॥

निन्दसि यज्ञ-विधेरहह श्रुतिजातम्

सदय-हृदय दर्शितपशुघातम् ।

केशव धृत-बुद्धशरीर जय जगदीश हरे॥९॥

अन्वय- हे केशव! हे सदय-हृदय ! (पशुष्वपि करुणामयचित्त) धृतबुद्धशरीर! (बुद्धरूपधर! अहह (खेदे), दर्शित-पशुघातं (दैत्यमोहनाय अहिंसा परमोधर्म इति दर्शितः पशुधातः यस्मिन् तथोक्त) यज्ञविधेः (क्रतुविधानस्य) श्रुतिजातं (पशुना रुद्रं यजेत इत्यादिकं वेदकामसमूह) निन्दसि। [वेदान् स्वयमेव प्रकाश्य स्वयमेव तान् निन्दसीत्यद्भुतमित्यर्थः] हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय ॥९॥

अनुवाद- हे जगदीश्वर! हे हरे! हे केशिनिसूदन! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओं की हिंसा देखकर श्रुति समुदाय की निन्दा की है। आपकी जय हो॥९॥

पद्यानुवादनिन्दे यज्ञ नियम श्रुति-मगके,

माने मानव सम पश जगके।

केशव बुद्ध-शरीर लसे, जय जगदीश हरे॥९॥

बालबोधिनी- नवें पद में भगवान्के बुद्धावतार की स्तुति की जा रही है। वेद श्रीभगवान्के श्वासस्वरूप हैं; ‘तस्य निःश्वसितं वेदाः’। वेदों को स्वयं भगवान की आज्ञास्वरूप माना जाता है। वेद शास्त्रों में जब विरोधी मत अर्थात् वेदों के विरुद्ध विचार धाराएँ बढ़ने लगीं, तब आपने बुद्धावतार ग्रहण किया।

यह प्रश्न होता है कि स्वयं यज्ञ विधि को बनाकर फिर यज्ञ विधायिका श्रुतियों की क्यों निन्दा की? अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि स्वयं ही वेदों के प्रकाशक हैं और स्वयं ही वेदों की भर्त्सना कर रहे हैं।

इसके उत्तर में ‘सदय हृदय दर्शित पशुधातम्’ अर्थात् आपने पशुओं के प्रति दयावान होकर अहिंसा परमो धर्मः, यह उपदेश प्रदानकर दैत्यों को मोहित किया है। आपने जैसे अमृत की रक्षा करने के लिए दैत्यों को मोहित किया था, उसी प्रकार प्राणियों की रक्षा करने के लिए आपने दैत्यों को मोहितकर यज्ञों को अनुचित बतलाया है।।

यज्ञ में की जानेवाली पशुओं की हिंसा को देखकर श्रीभगवान्के हृदय में दया प्रसूत हुई और दया विवश होकर अपने इस अवतार में यज्ञ प्रतिपादक वेद शास्त्रों की निन्दा की।

इस पद के नायक धीर शान्त हैं। भगवान् बुद्ध को शान्त रस का अधिष्ठाता माना गया है॥९॥

म्लेच्छ-निवहनिधने कलयसि करवालं

धूमकेतुमिव किमपि करालम् ।

धृत-कल्किशरीर जय जगदीश हरे॥१०॥

अन्वय- हे केशव! हे धृत-कल्किशरीर ! [त्वं] म्लेच्छनिवहनिधने (वेद-बाह्यान् उन्मार्गप्रस्थितान् दुराचारान् हत्वा पुनर्वर्णाश्रम-स्थापनायेत्यर्थः) धूमकेतुमिव किमपि (अनिर्वचनीयम् अतिशयमित्यर्थः) करालं (भीषणं) करवालं (असिं) कलयसि (धारयसि); हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय॥१०॥

अनुवाद- हे जगदीश्वर श्रीहरे! हे केशिनिसूदन! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छों का विनाश करते हुए धूमकेतु के समान भयङ्कर कृपाण को धारण किया है। आपकी जय हो ॥१०॥

पद्यानुवाद

म्लेच्छ-नाश-असि धरे विशाला,

धूमकेतु-सम बने कराला ।

केशव कल्कि-रूप लसे, जय जगदीश हरे॥१०॥

बालबोधिनी- दशवें पद में भगवान्के कल्कि अवतार की प्रशंसा की जा रही है। बिना युद्ध किये प्राणियों का संहार नहीं होगा, बिना संहार किये शान्ति भी नहीं आयेगी। इसलिए आप कल्कि रूप धारणकर म्लेच्छों का विनाश करते हैं। दुष्ट मनुष्यों का संहार करने के लिए भगवान् भयङ्कर काल कराल रूप तलवार को धारण करते हैं। ‘किमपि’ पद से कवि द्वारा कृपाण की भयङ्कर स्वरूपता दिखाई है।

धूमकेतुमिव- धूमकेतु एक ताराविशेष का नाम है। जिसके उदित होने पर महान उपद्रव की शङ्का की जाती है। भगवान्का कृपाणरूपी धूमकेतु म्लेच्छों के अमङ्गल का सूचक है। धूमकेतु शब्द अग्नि का भी वाचक है, जिससे म्लेच्छ समुदाय का अनिष्ट सूचित होता है।

प्रस्तुत पद के नायक धीरोद्धत हैं। कल्कि भगवान्को वीर रस का अधिष्ठाता माना जाता है॥१०॥

श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारम्

शृणु सुखदं शुभदं भवसारम् ।

केशव धृत-दशविधरूप जय जगदीश हरे॥११॥

अन्वय- हे केशव! हे धृत-दशविधरूप! (स्वीकृतदशावतारविग्रह) हे जगदीश, हे हरे, [त्वं] जय (सर्वोत्कर्षेण वर्तस्व); [तथा] उदारं (महार्थयुक्त) सुखदं (ऐहिकामुष्मिकपरमानन्दप्रदं) शुभदं (कल्याणप्रदं) भवसारं (भवे संसारे सारं सर्वोत्कृष्टं; यद् वा अवताराणां जन्मनः सारम् आविर्भाव-रहस्यं यत्र तत्) श्रीजयदेवकवेः उदितम् (भाषितं) इदं (दशावतारस्तोत्रं) शृणु, [अथवा अयि महानुभाव भक्तजन इति अध्याहार्यम् ॥११॥

अनुवाद- हे जगदीश्वर! हे श्रीहरे! हे केशिनिसूदन! हे दशबिध रूपों को धारण करनेवाले भगवन्! आप मुझ जयदेव कवि की औदार्यमयी, संसार के सारस्वरूप, सुखप्रद एवं कल्याणप्रद स्तुति को सुनें ॥११॥

पद्यानुवाद

श्रीजयदेव कथित हरि-लीला,

सुनो सुखद यह शुभ गतिशीला ।

केशव दशविध-रूप लसे, जय जगदीश हरे॥११॥

बालबोधिनी- इस प्रकार दशावतार स्तुति के अन्त में महाकवि जयदेव प्रत्येक रस के अधिष्ठान स्वरूप एक-एक अवतार का जयगान कर अब समस्त रसों के अधिनायक श्रीकृष्ण से निवेदन करते हैं कि हे दशविध स्वरूप! आपकी जय हो।

सुखद-सद्यः परनिवृत्तिकारक होने के कारण यह स्तुतिकाव्य श्रवणकाल में ही परमानन्द प्रदान करनेवाला है। यह स्तोत्र जगन्मङ्गलकारी है जो कि आपके आविर्भाव के रहस्यों को अभिव्यक्त करनेवाला है।

शुभदं-शुभदायी होने से परमात्मा की प्राप्ति के समस्त प्रतिबन्धकों का विनाश करनेवाला है।

भवसारम्-संसाररूपी सागर को पार करने के जितने भी साधन हैं, उन सबमें प्रधान है।

भवच्छेदक हेतु मध्ये सारम्-यह मध्यपदलोपी समास ‘भवसारम्’ पद में जानना चाहिए।

जय-वर्तमानकालिक क्रियापद के द्वारा यह सूचित होता है कि भगवान्के समस्त अवतार नित्य एवं उनकी लीलाएँ भी नित्य हैं। कवि ने यह भी प्रमाणित कर दिया है कि श्रीकृष्ण सभी अवतारों के मूल कारण हैं। उन्हीं से सभी अवतारों का प्राकट्य हुआ है, वे सभी रूपों में सत्य हैं, अतएव पूर्णावतारी, नित्य लीलाविलासी, दशावतार स्वरूप, सर्वाकर्षक एवं आनन्द प्रदाता आपकी नित्य ही जय जयकार हो। उदात्त तथा सरल भाषा में मैंने आपकी स्तुति की है। आप इसका श्रवण करें। आपका भक्त कवि जयदेव आपको यह स्तुति निवेदन कर रहा है।

प्रस्तुत श्लोक में शान्त रस तथा पर्यायोक्ति अलङ्कार है॥११॥

वेदानुद्धरते जगन्ति वहते भूगोलमुद्विभ्रते

दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते ।

पौलस्तं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते

म्लेच्छान् मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ॥१२॥

इति श्रीगीतगोविन्दे प्रथमः सन्दर्भः।

अन्वय- अधुना सर्वेषामेव दशावताराणां पूर्णपुरुषे श्रीकृष्णे परिणति भङ्गिक्रमेणाह।-[प्रलयपयोधिमग्नान्] वेदान् उद्धरते [मीनरूपाय तुभ्यं,-जगन्ति वहते (पृष्ठदेशेन उद्वहते) [कूर्मरूपाय तुभ्य]- भूगोलम् (भूमण्डलम्) उद्विभ्रते (दशनेन ऊवं तोलयते) [वराहरूपाय तुभ्य],-दैत्यं (हिरण्यकशिपुं) दारयते (नखैः विदारयते) [नृसिंहरूपाय तुभ्यं],-बलिं (दैत्येश्वर) छलयते (वञ्चयते) [वामनरूपाय तुभ्यं],-क्षत्रक्षयं (क्षत्रियध्वस) कुर्वते [जामदग्न्यरूपाय तुभ्यं],-पौलस्त्यं (रावणं) जयते [रामरूपाय तुभ्य], [दुष्टदमनाय] हलं (लाङ्गलं) कलयते (धारयते) [बलभद्ररूपाय तुभ्यं], म्लेच्छान् [अनार्याचारान] मूर्च्छयते (नाशयते) [कल्किरूपाय तुभ्यं] -[अतएव] दशाकृतिकृते (दशावतार रूपधराय) कृष्णाय (स्वयं भगवते वासुदेवाय) तुभ्यं नमः [एतेषामवतारित्वेन श्रीकृष्णस्य सर्वरसत्वं सिद्धम्। “बुद्धो नारायणोपेन्द्रौ नृसिंहो नन्दनन्दनः। बलः कूर्मस्तथा कल्की राघवो भार्गवः किरिः। मीन इत्येताः कथिताः क्रमाद्वादशः देवताः ॥” इति भक्तिरसामृतसिन्धौ रसाधिष्ठातारः ॥ ॥१२॥

अनुवाद- वेदों का उद्धार करनेवाले, चराचर जगत्को धारण करनेवाले, भूमण्डल का उद्धार करनेवाले, हिरण्यकशिपु को विदीर्ण करनेवाले, बलि को छलनेवाले, क्षत्रियों का क्षय करनेवाले, पौलस्त (रावण) पर विजय प्राप्त करनेवाले, हल नामक आयुध को धारण करनेवाले, करुणा का विस्तार करनेवाले, म्लेच्छों का संहार करनेवाले-इस दश प्रकार के शरीर धारण करनेवाले हे श्रीकृष्ण! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥१२॥

बालबोधिनी- इस गीतगोविन्द काव्य के प्रथम सर्ग के प्रथम प्रबन्ध के दश पद्यों में कवि जयदेवजी ने भगवान् श्रीकृष्ण के अवतारों की मनोरम लीलाओं का चित्रण किया है। दश अवतार स्वरूप को प्रकट करनेवाले श्रीकृष्ण ने मत्स्य रूप में वेदों का उद्धार किया, कूर्म रूप में पृथ्वी को धारण किया, वराह रूप में पृथ्वी का उद्धार किया, नृसिंह रूप में हिरण्यकशिपु को विदीर्ण किया, वामन रूप में बलि को छलकर उसे अपना लिया, परशुराम रूप में दुष्ट क्षत्रियों का विनाश किया, बलभद्र रूप में दुष्टों का दमन किया, बुद्ध के रूप में करुणा का विस्तार किया, कल्कि रूप में म्लेच्छों का नाश किया-इस प्रकार दशविध अवतार धारण करनेवाले हे भगवान् श्रीकृष्ण! आपको नमस्कार है॥१२॥

इति दशावतार कीर्तिधवलो नाम प्रथमः प्रबन्धः।

इस प्रकार प्रथम प्रबन्ध में दशावतार स्तोत्र कीर्त्तिधवल नामक छन्द है। प्रस्तुत प्रबन्ध में पारस्वर, मध्यमादि राग,आदि ताल, विलम्बित लय, माध्यमी रीति तथा शृङ्गार रस है। इसमें वासुदेव भगवान् के यश का वर्णन है॥

इति श्रीगीतगोविन्दे प्रथमः सन्दर्भः अष्ट पदि दशावतार स्तोत्र कीर्त्तिधवलम् ।

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