गीता माहात्म्य अध्याय ४ || Gita Mahatmya Adhyay 4

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इससे पूर्व आपने श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय पढ़ा। चौथे अध्याय में, जिसका नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है, यह बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस उपाय से प्राप्त किया जा सकता है। यहीं गीता का वह प्रसिद्ध आश्वासन है कि जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब मनुष्यों के बीच भगवान का अवतार होता है, अर्थात् भगवान की शक्ति विशेष रूप से मूर्त होती है।

यहीं पर एक वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है- क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा (४१२)। ‘कर्म से सिद्धि’-इससे बड़ा प्रभावशाली जय सूत्र गीतादर्शन में नहीं है। किंतु गीतातत्व इस सूत्र में इतना सुधार और करता है कि वह कर्म असंग भाव से अर्थात् फलासक्ति से बचकर करना चाहिए।

भगवान बताते हैं कि सबसे पहले मैंने यह ज्ञान भगवान सूर्य को दिया था। सूर्य के पश्चात गुरु परंपरा द्वारा आगे बढ़ा। किन्तु अब यह लुप्तप्राय हो गया है। अब वही ज्ञान मैं तुम्हे बताने जा रहा हूँ। अर्जुन कहते हैं कि आपका तो जन्म हाल में ही हुआ है तो आपने यह सूर्य से कैसे कहा? तब श्री भगवान ने कहा है की तेरे और मेरे अनेक जन्म हुए लेकिन तुम्हे याद नहीं पर मुझे याद है।

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥„

“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥„

श्री कृष्ण कहते हैं की जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अपने स्वरूप की रचना करता हूँ ॥४-७॥

साधुओं की रक्षा के लिए, दुष्कर्मियों का विनाश करने के लिए, धर्म की स्थापना के लिए मैं युग युग में मानव के रूप में अवतार लेता हूँ ॥४-८॥

अब यहाँ गीता के इस अध्याय ४ का माहात्म्य अर्थात् इसके पढ़ने सुनने की महिमा के विषय में पढेंगे।

 

गीता माहात्म्य – अध्याय ४

श्रीभगवान कहते हैं: प्रिये ! अब मैं चौथे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। गंगा के तट पर वाराणसी नाम की एक पुरी है, वहाँ विश्वनाथ जी के मन्दिर में भरत नाम के एक योग-निष्ठ महात्मा रहते थे, जो प्रतिदिन आत्म-चिन्तन में तत्पर हो आदर-पूर्वक गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ किया करते थे, उसके अभ्यास से उनका मन निर्मल हो गया था, वे सर्दी- गर्मी आदि द्वन्द्वों से कभी व्यथित नहीं होते थे।

एक समय की बात है, वे तपोधन नगर की सीमा में स्थित देवताओं का दर्शन करने की इच्छा से भ्रमण करते हुए नगर से बाहर निकल गये, वहाँ बेर के दो वृक्ष थे, उन्हीं की जड़ में वे विश्राम करने लगे, एक वृक्ष की जड़ मे उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्ष के मूल में उनका पैर टिका हुआ था, थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गये, तब बेर के वे दोनों वृक्ष पाँच-छः दिनों के भीतर ही सूख गये, उनमें पत्ते और डालियाँ भी नहीं रह गयीं, तत्पश्चात् वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मण के पवित्र गृह में दो कन्याओं के रूप में उत्पन्न हुए।

वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्ष की हो गयीं, तब एक दिन उन्होंने दूर देशों से घूमकर आते हुए भरत मुनि को देखा, उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणों में पड़ गयी और मीठी वाणी में बोलीं- ‘मुनि ! आपकी ही कृपा से हम दोनों का उद्धार हुआ है, हमने बेर की योनि त्यागकर मानव-शरीर प्राप्त किया है,’ उनके इस प्रकार कहने पर मुनि को बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने पूछाः ‘पुत्रियो ! मैंने कब और किस साधन से तुम्हें मुक्त किया था? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेर होने के क्या कारण था? क्योंकि इस विषय में मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है।’

तब वे कन्याएँ पहले उन्हे अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोलीं- ‘मुनि ! गोदावरी नदी के तट पर छिन्नपाप नाम का एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्यों को पुण्य प्रदान करने वाला है, वह पावनता की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ है, उस तीर्थ में सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे, वे ग्रीष्म ऋतु में प्रज्जवलित अग्नियों के बीच में बैठते थे।

वारिश के समय में जल की धाराओं से उनके सिर के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े के समय में जल में निवास करने के कारण उनके शरीर में हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे, वे बाहर भीतर से सदा शुद्ध रहते, समय पर तपस्या करते तथा मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए परम शान्ति प्राप्त करके आत्मा मंे ही रमण करते थे, वे अपनी विद्वत्ता के द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे, उसे सुनने के लिए साक्षात् ब्रह्मा जी भी प्रति-दिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे, ब्रह्माजी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था, अतः उनके आने पर भी वे सदा तपस्या में मग्न रहते थे।

परमात्मा के ध्यान में निरन्तर संलग्न रहने के कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी, सत्यतपा को जीवन-मुक्त के समान मान कर इन्द्र को अपने समृद्धिशाली पद के सम्बन्ध में कुछ भय हुआ, तब उन्होंने उनकी तपस्या में सैंकड़ों विघ्न डालने आरम्भ किये, अप्सराओं के समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इन्द्र ने इस प्रकार आदेश दियाः ‘तुम दोनों उस तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालो, जो मुझे इन्द्र-पद से हटा कर स्वयं स्वर्ग का राज्य भोगना चाहता है।’

“इन्द्र का यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर, जहाँ वे मुनि तपस्या करते थे, आयीं, वहाँ मन्द और गम्भीर स्वर से बजते हुए मृदंग तथा मधुर वेणुनाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वर में गाना आरम्भ किया, इतना ही नहीं उन योगी महात्मा को वश में करने के लिए हम लोग स्वर, ताल और लय के साथ नृत्य भी करने लगीं, बीच-बीच में जरा-जरा सा अंचल खिसकने पर उन्हें हमारी छाती भी दिख जाती थी, हम दोनों की उन्मत्त गति काम-भाव का जगाने वाली थी, किंतु उसने उन निर्विकार चित्तवाले महात्मा के मन में क्रोध का संचार कर दिया, तब उन्होंने हाथ से जल छोड़कर हमें क्रोधपूर्वक शाप दियाः ‘अरी ! तुम दोनों गंगाजी के तट पर बेर के वृक्ष हो जाओ।’

यह सुन कर हम लोगों ने बड़ी विनय के साथ कहाः ‘महात्मन् ! हम दोनों पराधीन थीं, अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है उसे आप क्षमा करें,’ यह कह कर हमने मुनि को प्रसन्न कर लिया, तब उन पवित्र चित्त वाले मुनि ने हमारे शाप उद्धार की अवधि निश्चित करते हुए कहाः ‘भरत मुनि के आने तक ही तुम पर यह शाप लागू होगा, उसके बाद तुम लोगों का मृत्यु-लोक में जन्म होगा और पूर्व-जन्म की स्मृति बनी रहेगी। “मुनि ! जिस समय हम दोनों बेर-वृक्ष के रूप में खड़ी थीं, उस समय आपने हमारे समीप आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हुए हमारा उद्धार किया था, अतः हम आपको प्रणाम करती हैं, आपने केवल शाप ही से नहीं, इस भयानक संसार से भी गीता के चतुर्थ अध्याय के पाठ द्वारा हमें मुक्त कर दिया।”

श्रीभगवान कहते हैं: उन दोनों के इस प्रकार कहने पर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ भी बड़े आदर के साथ प्रति-दिन गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ करने लगीं, जिससे उनका उद्धार हो गया।

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