हंसगीता २ भागवतपुराणे एकादशस्कन्धे || Hansagita 2
आपने इससे पूर्व में हंसगीता १ पढ़ा जिसे की श्रीमद्भागवतमहापुराण से लिया गया है। अब यहाँ हंसगीता २ श्लोक हिंदी अनुवाद सहित दिया जा रहा है जो की महाभारत पुराण के शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व) अध्याय नवनवत्यधिकद्विशततम (299) से लिया गया है, इसमें हंसरूपधारी ब्रह्मा का साध्य गणों को उपदेश का वर्णन है।
हंसगीता २
युधिष्ठिर उवाच ।
सत्यं दमं क्षमां प्रज्ञां प्रशंसन्ति पितामह ।
विद्वांसो मनुजा लोके कथमेतन्मतं तव ॥ १॥
भीष्म उवाच ।
अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम् ।
साध्यानामिह संवादं हंसस्य च युधिष्ठिर ॥ २॥
हंसो भूत्वाथ सौवर्णस्त्वजो नित्यः प्रजापतिः ।
स वै पर्येति लोकांस्त्रीनथ साध्यानुपागमत् ॥ ३॥
साध्या ऊचुः ।
शकुने वयं स्म देवा वै साध्यास्त्वामनुयुज्महे ।
पृच्छामस्त्वां मोक्षधर्मं भवांश्च किल मोक्षवित् ॥ ४॥
श्रुतोऽसि नः पण्डितो धीरवादी
साधुशब्दश्चरते ते पतत्रिन् ।
किं मन्यसे श्रेष्ठतमं द्विज त्वं
कस्मिन्मनस्ते रमते महात्मन् ॥ ५॥
तन्नः कार्यं पक्षिवर प्रशाधि
यत्कर्मणां मन्यसे श्रेष्ठमेकम् ।
यत्कृत्वा वै पुरुषः सर्वबन्धैर्-
विमुच्यते विहगेन्द्रेह शीघ्रम् ॥ ६॥
हंस उवाच ।
इदं कार्यममृताशाः श्रृणोमि
तपो दमः सत्यमात्माभिगुप्तिः ।
ग्रन्थीन् विमुच्य हृदयस्य सर्वान्
प्रियाप्रिये स्वं वशमानयीत ॥ ७॥
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी
न हीनतः परमभ्याददीत ।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत
न तां वदेद्रुषतीं पापलोक्याम् ॥ ८॥
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति
तान् पण्डितो नावसृजेत्परेषु ॥ ९॥
परश्चेदेनमति वादबानैर्-
भृशं विध्येच्छम एवेह कार्यः ।
संरोष्यमाणः प्रतिहृष्यते यः
स आदत्ते सुकृतं वै परस्य ॥ १०॥
क्षेपाभिमानादभिषङ्गव्यलीकं
निगृह्णाति ज्वलितं यश्च मन्युम् ।
अदुष्टचेता मुदितोऽनसूयुः
स आदत्ते सुकृतं वै परेषाम् ॥ ११॥
आक्रुश्यमानो न वदामि किंचित्
क्षमाम्यहं ताड्यमानश्च नित्यम् ।
श्रेष्ठं ह्येतत् यत् क्षमामाहुरार्याः
सत्यं तथैवार्जवमानृशंस्यम् ॥ १२॥
वेदस्योपनिषत्सत्यं सत्यस्योपनिषद्दमः ।
दमस्योपनिषन्मोक्षं एतत्सर्वानुशासनम् ॥ १३॥
वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं विवित्सा वेगमुदरोपस्थ वेगम् ।
एतान् वेगान् यो विषहदुदीर्णांस्तं मन्येऽहं ब्राह्मणं वै मुनिं च ॥ १४॥
अक्रोधनः क्रुध्यतां वै विशिष्टस्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः ।
अमानुषान्मानुषो वै विशिष्टस् तथा ज्ञानाज्ज्ञानवान्वै प्रधानः ॥ १५॥
आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः ।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति ॥ १६॥
यो नात्युक्तः प्राह रूक्षं प्रियं वा
यो वा हतो न प्रतिहन्ति धैर्यात् ।
पापं च यो नेच्छति तस्य हन्तुस्-
तस्मै देवाः स्पृहयन्ते सदैव ॥ १७॥
नित्यम् ।
पापीयसः क्षमेतैव श्रेयसः सदृशस्य च ।
विमानितो हतोऽऽक्रुष्ट एवं सिद्धिं गमिष्यति ॥ १८॥
सदाहमार्यान्निभृतोऽप्युपासे
न मे विवित्सा न चमेऽस्ति रोषः ।
न चाप्यहं लिप्समानः परैमि
न चैव किंचिद्विषयेण यामि ॥ १९॥
नाहं शप्तः प्रतिशपामि किंचिद्
दमं द्वारं ह्यमृतस्येह वेद्मि ।
गुह्यं ब्रह्म तदिदं वा ब्रवीमि
न मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित् ॥ २०॥
विमुच्यमानः पापेभ्यो धनेभ्य इव चन्द्रमाः ।
विरजाः कालमाकाङ्क्षन् धीरो धैर्येण सिध्यति ॥ २१॥
यः सर्वेषां भवति ह्यर्चनीय
उत्सेधनस्तम्भ इवाभिजातः ।
यस्मै वाचं सुप्रशस्तां वदन्ति
स वै देवान्गच्छति संयतात्मा ॥ २२॥
न तथा वक्तुमिच्छन्ति कल्याणान् पुरुषे गुणान् ।
यथैषां वक्तुमिच्छन्ति नैर्गुण्यमनुयुञ्जकाः ॥ २३॥
यस्य वाङ्मनसी गुप्ते सम्यक्प्रणिहिते सदा ।
वेदास्तपश्च त्यागश्च स इदं सर्वमाप्नुयात् ॥ २४॥
आक्रोशनावमानाभ्यां नाबुधान् गर्हयेद् बुधः ।
तस्मान्न वर्धयेदन्यं न चात्मानं विहिंसयेत् ॥ २५॥
अमृतस्येव सन्तृप्येदवमानस्य वै द्विजः ।
सुखं ह्यवमतः शेते योऽवमन्ता स नश्यति ॥ २६॥
यत्क्रोधनो यजते यद्ददाति
यद्वा तपस्तप्यति यज्जुहोति ।
वैवस्वतस्तद्धरतेऽस्य सर्वं
मोघः श्रमो भवति हि क्रोधनस्य ॥ २७॥
चत्वारि यस्य द्वाराणि सुगुप्तान्यमरोत्तमाः ।
उपस्थमुदरं हस्तौ वाक्चतुर्थी स धर्मवित् ॥ २८॥
सत्यं दमं ह्यार्जवमानृशंस्यं
धृतिं तितिक्षामभिसेवमानः ।
स्वाध्यायनित्योऽस्पृहयन्परेषाम्
एकान्तशील्यूर्ध्वगतिर्भवेत्सः ॥ २९॥
सर्वानेताननुचरन् वत्सवच्चतुरः स्तनान् ।
न पावनतमं किंचित्सत्यादध्यगमं क्वचित् ॥ ३०॥
आचक्षेऽहं मनुष्येभ्यो देवेभ्यः प्रतिसञ्चरन् ।
सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव ॥ ३१॥
यादृशैः संनिवसति यादृशांश्चोपसेवते ।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पूरुषः ॥ ३२॥
यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं
तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव ।
वासो यथा रङ्गवशं प्रयाति
तथा स तेषां वशमभ्युपैति ॥ ३३॥
सदा देवाः साधुभिः संवदन्ते
न मानुषं विषयं यान्ति द्रष्टुम् ।
नेन्दुः समः स्यादसमो हि वायुर्-
उच्चावचं विषयं यः स वेद ॥ ३४॥
अदुष्टं वर्तमाने तु हृदयान्तरपूरुषे ।
तेनैव देवाः प्रीयन्ते सतां मार्गस्थितेन वै ॥ ३५॥
शिश्नोदरे येऽभिरताः सदैव
स्तेना नरा वाक्परुषाश्च नित्यम् ।
अपेतदोषानिति तान् विदित्वा
दूराद्देवाः सम्परिवर्जयन्ति ॥ ३६॥
न वै देवा हीनसत्त्वेन तोष्याः
सर्वाशिना दुष्कृतकर्मणा वा ।
सत्यव्रता ये तु नराः कृतज्ञा
धर्मे रतास्तैः सह सम्भजन्ते ॥ ३७॥
अव्याहृतं व्याकृताच्छ्रेय आहुः
सत्यं वदेद्व्याहृतं तद्द्वितीयम् ।
धर्मं वदेद्व्याहृतं तत्तृतीयं
प्रियंवदेद्व्याहृतं तच्चतुर्थम् ॥ ३८॥
साध्या ऊचुः ।
केनायमावृतो लोकः केन वा न प्रकाशते ।
केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति ॥ ३९॥
हंस उवाच ।
अज्ञानेनावृतो लोको मात्सर्यान्न प्रकाशते ।
लोभात्त्यजति मित्राणि सङ्गात्स्वर्गं न गच्छति ॥ ४०॥
साध्या ऊचुः ।
कः स्विदेको रमते ब्राह्मणानां
कः स्विदेको बहुभिर्जोषमास्ते ।
कः स्विदेको बलवान् दुर्बलोऽपि
कः स्विदेषां कलहं नान्ववैति ॥ ४१॥
हंस उवाच ।
प्राज्ञ एको रमते ब्राह्मणानां
प्राज्ञश्चैको बहुभिर्जोषमास्ते ।
प्राज्ञ एको बलवान् दुर्बलोऽपि
प्राज्ञ एषां कलहं नान्ववैति ॥ ४२॥
साध्या ऊचुः ।
किं ब्राह्मणानां देवत्वं किं च साधुत्वमुच्यते ।
असाधुत्वं च किं तेषां किमेषां मानुषं मतम् ॥ ४३॥
हंस उवाच ।
स्वाध्याय एषां देवत्वं व्रतं साधुत्वमुच्यते ।
असाधुत्वं परीवादो मृत्युर्मानुष्यमुच्यते ॥ ४४॥
भीष्म उवाच ।
संवाद इत्ययं श्रेष्ठः साध्यानां परिकीर्तितः ।
क्षेत्रं वै कर्मणां योनिः सद्भावः सत्यमुच्यते ॥ ४५॥
एतद् यशस्यमायुष्यं पुण्यं स्वर्गाय च ध्रुवम् ।
दर्शितं देवदेवेन परमेणाव्ययेन च ॥ ४६॥
॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि हंसगीता समाप्ता ॥
हंसगीता २ श्लोक का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! संसार में बहुत-से विद्वान सत्यव, इन्द्रिय-संयम, क्षमा और प्रज्ञा (उत्तम बुद्धि) की प्रशंसा करते हैं। इस विषय में आपका कैसा मत है? भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में साध्यगणों का हंस के साथ जो संवाद हुआ था, वही प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें सुना रहा हूँ। एक समय नित्यक अजन्मा? प्रजापति सुवर्णमय हंस का रूप धारण करके तीनों लोकों में विचर रहे थे। घूमते-घामते वे साध्य गणों के पास जा पहुँचे। उस समय साध्यों ने कहा- हंस! हमलोग साध्य देवता हैं और आपसे मोक्षधर्म के विषय में प्रश्न करना चाहते हैं; क्योंकि आप मोक्ष-तत्व के ज्ञाता हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है। महात्मन! हमने सुना है कि आप पण्डित और धीर वक्ता हैं। पतत्रिन्! आपकी उत्तम वाणी का सर्वत्र प्रचार है। पक्षिप्रवर! आपके मत में सर्वश्रेष्ठ वस्तु क्या है? आपका मन किसमें रमता है? पक्षिराज! खगश्रेष्ठ! समस्त कार्यों में से जिस एक कार्य को आप सबसे उत्तम समझते हों तथा जिसके करने से जीव को सब प्रकार के बन्धनों से शीघ्र छुटकारा मिल सके, उसी का हमें उपदेश कीजिये। हंस ने कहा- अमृतभोजी देवताओं! मैं तो सुनता हूँ कि तप, इन्द्रियसंयम, सत्यभाषण और मनोनिग्रह आदि कार्य ही सबसे उत्तम हैं। हृदय की सारी गाँठें खोलकर प्रिय और अप्रिय को अपने वश में करे अर्थात उनके लिये हर्ष एवं विषाद न करे। किसी के मर्म में आघात न पहुँचाये। दूसरों से निष्ठुर वचन न बोले। किसी नीच मनुष्य से अध्यात्मशास्त्र का उपदेश न ग्रहण करे तथा जिसे सुनकर दूसरों को उद्वेग हो, ऐसी नरक में डालने वाली अमंगलमयी बात भी मुँह से न निकाले। वचनरूपी बाण जब मुँह से निकल पड़ते हैं, तब उनके द्वारा बींधा गया मनुष्य रात-दिन शोक में डूबा रहता है; क्योंकि वे दूसरों के मर्म पर आघात पहुँचाते हैं, इसलिये विद्वान पुरुष को किसी दूसरे मनुष्य पर वाग्बाण का प्रयोग नहीं करना चाहिये। दूसरा कोई भी यदि इस विद्वान पुरुष को कटुवचन रूपी बाणों से बहुत अधिक चोट पहुँचाये तो भी उसे शान्त रहना चाहिये। जो दूसरों के क्रोध करने पर भी स्वयं बदले में प्रसन्न ही रहता है, वह उसके पुण्य को ग्रहण कर लेता है। जो जगत में निन्दा कराने वाले और आवेश में डालने के कारण अप्रिय प्रतीत होने वाले प्रज्वलित क्रोध को रोक लेता है, चित्त में कोई विकार या दोष नहीं आने देता, प्रसन्न रहता और दूसरों के दोष नहीं देखता है, वह पुरुष अपने प्रति शत्रुभाव रखने वाले लोगों के पुण्य ले लेता है। मुझे कोई गाली दे तो भी बदले में कुछ नहीं कहता हूँ। कोई मार दे तो उसे सदा क्षमा ही करता हूँ; क्योंकि श्रेष्ठ जन क्षमा, सत्य, सरलता और दया को ही उत्तम बताते हैं। वेदाध्ययन का सार है सत्य भाषण, सत्यभाषण का सार है इन्द्रियसंयम और इन्द्रियसंयम का फल है मोक्ष। यही सम्पू्र्ण शास्त्रों का उपदेश है। जो वाणी का वेग, मन और क्रोध का वेग, तृष्णा का वेग तथा पेट और जननेन्द्रिय का वेग-इन सब प्रचण्ड् वेगों को सह लेता है, उसी को मैं ब्रह्मवेता और मुनि मानता हूँ ।
क्रोधी मनुष्यों से क्रोध न करने वाला मनुष्य श्रेष्ठ है। असहनशील से सहनशील पुरुष बड़ा है। मनुष्येतर प्राणियों से मनुष्य ही बढ़कर है तथा अज्ञानी से ज्ञानवान ही श्रेष्ठ है। जो दूसरे के द्वारा गाली दी जाने पर भी बदले में उसे गाली नहीं देता, उस क्षमाशील मनुष्य का दबा हुआ क्रोध ही उस गाली देने वाले को भस्म कर देता है और उसके पुण्य को भी ले लेता है। जो दूसरों के द्वारा अपने लिये कड़वी बात कही जाने पर भी उसके प्रति कठोर या प्रिय कुछ भी नहीं कहता तथा किसी के द्वारा चोट खाकर भी धैर्य के कारण बदले में न तो मारने वाले को मारता है और न उसकी बुराई ही चाहता है, उस महात्मा से मिलने के लिये देवता भी सदा लालायित रहते हैं। पाप करने वाला अपराधी अवस्था में अपने से बड़ा हो या बराबर, उसके द्वारा अपमानित होकर, मार खाकर और गाली सुनकर भी उसे क्षमा ही कर देना चाहिये। ऐसा करने वाला पुरुष परम सिद्धि को प्राप्त़ होगा। यद्यपि मैं सब प्रकार से परिपूर्ण हूँ (मुझे कुछ जानना या पाना शेष नहीं है) तो भी मैं श्रेष्ठ पुरुषों की उपासना (सत्संग) करता रहता हॅूं। मुझ पर न तृष्णा का वश चलता है न रोष का। मैं कुछ पाने के लोभ से धर्म का उल्लंघन नहीं करता और न विषयों की प्राप्ति के लिये ही कहीं आता-जाता हूँ। कोई मुझे शाप दे दे तो भी मैं बदले में उसे शाप नहीं देता। इन्द्रियसंयम को ही मोक्ष का द्वार मानता हूँ। इस समय तुम लोगों को एक बहुत गुप्त बात बता रहा हूँ, सुनो। मनुष्य योनि से बढकर कोई उत्तम योनि नही है। जिस प्रकार चन्द्रमा बादलों के ओट से निकलने पर अपनी प्रभा से प्रकाशित हो उठता है, उसी प्रकार पापों से मुक्त हुआ निर्मल अन्तो:करणवाला धीर पुरुष धैर्यपूर्वक काल की प्रतीक्षा करता हुआ सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। जो अपने मन को वश में रखने वाला विद्वान पुरुष ऊँचे उठाने वाले खम्भे की भाँति उच्च कुल में उत्पन्नत हुआ सब के लिये आदर के योग्य हो जाता है तथा जिसके प्रति सब लोग प्रसन्नतापूर्वक मधुर वचन बोलते हैं, वह मनुष्य देवभाव को प्राप्त होता है। किसी से ईर्ष्या रखने वाले मनुष्य जिस तरह उसके दोषों का वर्णन करना चाहते हैं, उस प्रकार उसके कल्याणमय गुणों का बखान करना नहीं चाहते हैं। जिसकी वाणी और मन सुरक्षित होकर सदा सब प्रकार से परमात्मा में लगे रहते हैं, वह वेदाध्ययन, तप और त्याग- इन सबके फल को पा लेता है। अत: समझदार मनुष्य को चाहिये कि वह कटुवचन कहने या अपमान करने वाले अज्ञानियों को उनके उक्त दोष बताकर समझाने का प्रयत्न करे। उसके सामने दूसरे को बढावा न दे तथा उस पर आक्षेप करके उसके द्वारा अपनी हिंसा न कराये। विद्वान को चाहिये कि वह अपमान पाकर अमृत पाने की भाँति संतुष्ट हो; क्योंकि अपमानित पुरुष तो सुख से सोता है, किंतु अपमान करने वाले का नाश हो जाता है।
क्रोधी मनुष्य जो यज्ञ करता है, दान देता है, तप करता है अथवा जो हवन करता है, उसके उन सब कर्मो के फल को यमराज हर लेते हैं। क्रोध करने वाला का वह किया हुआ सारा परिश्रम व्यर्थ जाता है। देवेश्वरो! जिस पुरुष के उपस्थत, उदर, दोनों हाथ और वाणी – ये चारों द्वार सुरक्षित होते हैं, वही धर्मज्ञ है। जो सत्य, इन्द्रिय-संयम, सरलता, दया, धैर्य और क्षमा का अधिक सेवन करता है, सदा स्वाध्याय में लगा रहता है, दूसरे की वस्तु नहीं लेना चाहता तथा एकान्त में निवास करता है, वह ऊर्ध्व गति को प्राप्त होता है। जैसे बछड़ा अपनी माता के चारों स्तनों का पान करता है, उसी प्रकार मनुष्य को उपर्युक्त सभी सद्गुणों का सेवन करना चाहिये। मैंने अब तक सत्य से बढकर परम पावन वस्तु कहीं किसी को नही समझा है। मैं चारों ओर घूमकर मनुष्यो और देवताओं से कहा करता हूँ कि जैसे जहाज समुद्र से पार होने का साधन है, उसी प्रकार सत्य ही स्वर्ग लोक में पहुँचने की सीढी है। पुरुष जैसे लोगो के साथ रहता है, जैसे मनुष्यों का सेवन करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही होता है। जैसे वस्त्र जिस रंग में रँगा जाय, वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असज्जन, तपस्वी अथवा चोर का सेवन करता है तो वह उन्हीं -जैसा हो जाता है अर्थात उस पर उन्हीं का रंग चढ जाता है। देवता लोग सदा सत्पुरुषों का संग-उन्हीं के साथ वार्तालाप करते हैं; इसीलिये वे मनुष्यों के क्षणभंगुर भोगों की ओर देखने भी नहीं जाते। जो विभिन्न विषयों के नश्वर स्वभाव को ठीक-ठीक जानता है, उसकी समानता न चन्द्रमा कर सकते हैं न वायु। हृदय गुफा में रहने वाला अन्तर्यामी आत्मा जब दोषभाव से रहित हो जाता है, उस अवस्था में उसका साक्षात्कार करने वाला पुरुष सन्मार्गगामी समझा जाता है। उसकी इस स्थिति से ही देवता प्रसन्न होते हैं। किंतु जो सदा पेट पालने और उपस्थ इन्द्रियों के भोग भोगने में ही लगे रहते हैं तथा जो चोरी करने एवं सदा कठोर वचन बोलने वाले हैं, वे यदि प्रायश्चित आदि के द्वारा उक्त कर्मों के दोष से छूट जायें तो भी देवता लोग उन्हें पहचान कर दूर से ही त्याग देते हैं। सत्वगुण से रहित और सब कुछ भक्षण करने वाले पापाचारी मनुष्य देवताओं को संतुष्ट नहीं कर सकते। जो मनुष्य नियमपूर्वक सत्य बोलने वाले, कृता और धर्मपरायण हैं, उन्हीं के साथ देवता स्नेह-संबंध स्थापित करते हैं। व्यर्थ बोलने की अपेक्षा मौन रहना अच्छा बताया गया है, (यह वाणी की प्रथम विशेषता है ) सत्य, बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है, प्रिय बोलना वाणी की तीसरी विशेषता है। धर्मसम्मत बोलना यह वाणी की चौथी विशेषता है। (इनमें उत्तरोंतर श्रेष्ठता है)। साध्यों ने पूछा – हंस! इस जगत को किसने आवृत कर रखा है ? किस कारण से उसका स्वरूप प्रकाशित नहीं होता है ? मनुष्य किस हेतु से मित्रों का त्याग करता है ? और किस दोष से वह स्वर्ग में नहीं जाने पाता ?
हंस ने कहा – देवताओ! अज्ञान ने इस लोक को आवृत कर रखा है। आपस में डाह होने के कारण इसका स्वरूप प्रकाशित नहीं होता। मनुष्य लोभ से मित्रों का त्याग करता है और आसक्ति दोष के कारण वह स्वर्ग में नहीं जाने पाता। साध्यों ने पूछा – हंस! ब्राह्मणों में कौन एकमात्र सुख का अनुभव करता है ? वह कौन ऐसा एक मनुष्य है, जो बहुतो के साथ रहकर भी चुप रहता है ? वह कौन एक मनुष्य है, जो दुर्बल होने पर भी बलवान है तथा इनमें कौन ऐसा है, जो किसी के साथ कलह नहीं करता ? हंस ने कहा – देवताओं! ब्राह्मणों में जो ज्ञानी है, एकमात्र वही परम सुख का अनुभव करता है। ज्ञानी ही बहुतों के साथ रहकर भी मौन रहता है। एकमात्र ज्ञानी दुर्बल होने पर भी मौन रहता है। एकमात्र ज्ञानी दुर्बल होने पर भी बलवान है और इनमें ज्ञानी ही किसी के साथ कलह नहीं करता है। साध्यों ने पूछा – हंस! ब्राह्मणों का देवत्व क्या है ? उनमें साधुता क्या बतायी जाती है ? उनके भीतर असाधुता और मनुष्यता क्या मानी गयी है ? हंस ने कहा- साध्यगण! वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय ही ब्राह्मणों का देवत्व है। उत्तम व्रतों का पालन करना ही उनमें साधुता बतायी जाती है। दूसरों की निन्दा करना ही उनकी असाधुता है और मृत्यु को प्राप्त होना ही उनकी मनुष्यता बतायी गयी है। भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर नित्य अविनाशी परमदेव भगवान ब्रह्मा साध्य देवताओं के साथ ही ऊपर स्वर्ग लोक की ओर चल दिये। सर्वश्रेष्ठ अविनाशी देवाधिदेव ब्रह्माजी के द्वारा प्रकाश में लाया हुआ यह पुण्यमय तत्वज्ञान यश और आयु की वृद्धि करने वाला है तथा यह स्वर्ग लोक की प्राप्ति का निश्चित साधन है। युधिष्ठिर! इस प्रकार साध्यों के साथ जो हंस का संवाद हुआ था, उसका मैंने तुमसे वर्णन किया। यह शरीर ही कर्मों की योनि है और सद्भभाव को ही सत्य कहते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में हंसगीता २ की समाप्ति विषयक दो सौ निन्याननबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
इति: हंसगीता सम्पूर्ण ।