हिरण्यगर्भ सूक्त || Hiranyagarbha Sukta

0

हिरण्यगर्भ सूक्त- हिरण्यगर्भ शब्द भारतीय विचारधारा में सृष्टि का आरंभिक स्रोत माना जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ है – प्रदीप्त गर्भ (या अंडा या उत्पत्ति-स्थान)। इस शब्द का प्रथमतः उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है।

हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।

स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ — सूक्त ऋग्वेद -10-121-1

श्लोक का अर्थ – सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार जो जगत हो और होएगा उसका आधार परमात्मा जगत की उत्पत्ति के पूर्व विद्य़मान था। जिसने पृथ्वी और सूर्य-तारों का सृजन किया उस देव की प्रेम भक्ति किया करें।

इस श्लोक से हिरण्यगर्भ ईश्वर का अर्थ लगाया जाता है – यानि वो गर्भ जहाँ हर कोई वास करता हो।

वेदान्त और दर्शन ग्रंथों में हिरण्यगर्भ शब्द कई बार आया है। अनेक भारतीय परम्पराओं में इस शब्द का अर्थ अलग प्रकार से लगाया जाता है। सामान्यतः हिरण्यगर्भ शब्द का प्रयोग जीवात्मा के लिए हुआ है जिसे ब्रह्मा जी भी कहा गया है। ब्रह्म और ब्रह्मा जी एक ही ब्रह्म के दो अलग अलग तत्त्व हैं। ब्रह्म अव्यक्त अवस्था के लिए प्रयुक्त होता है और ब्रह्माजी ब्रह्म की तैजस अवस्था है। ब्रह्म का तैजस स्वरूप ब्रह्मा जी हैं। हिरण्यगर्भ शब्द का अर्थ है सोने के अंडे के भीतर रहने वाला।

सोने का अंडा क्या है और सोने के अंडे के भीतर रहने वाला कौन है?

पूर्ण शुद्ध ज्ञान की शांतावस्था ही हिरण्य – सोने का अंडा है। उसके अंदर अभिमान करनेवाला चैतन्य ज्ञान ही उसका गर्भ है जिसे हिरण्यगर्भ कहते हैं। स्वर्ण आभा को पूर्ण शुद्ध ज्ञान का प्रतीक माना गया है जो शान्ति और आनन्द देता है जैसे प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिमा। इसके साथ ही अरुणिमा सूर्य के उदित होने (जन्म) का संकेत है।

ब्रह्म की ४ अवस्थाएँ हैं-

प्रथम अवस्था अव्यक्त है, जिसे कहा नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता।

दूसरी प्राज्ञ है जिसे पूर्ण विशुद्ध ज्ञान की शांतावस्था कहा जाता है। इसे हिरण्य कह सकते हैं। क्षीर सागर में नाग शय्या पर लेटे श्री हरि विष्णु इसी का चित्रण है। मनुष्य की सुषुप्ति इसका प्रतिरूप है। शैवों ने इसे ही शिव कहा है।

तीसरी अवस्था तैजस है जो हिरण्य में जन्म लेता है इसे हिरण्यगर्भ कहा है। यहाँ ब्रह्म ईश्वर कहलाता है। इसे ही ब्रह्मा जी कहा है। मनुष्य की स्वप्नावाथा इसका प्रतिरूप है। यही मनुष्य में जीवात्मा है। यह जगत के आरम्भ में जन्म लेता है और जगत के अन्त के साथ लुप्त हो जाता है।

ब्रह्म की चौथी अवस्था वैश्वानर है। मनुष्य की जाग्रत अवस्था इसका प्रतिरूप है। सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण विस्तार ब्रह्म का वैश्वानर स्वरूप है।

इससे यह न समझें कि ब्रह्म या ईश्वर चार प्रकार का होता है, यह एक ब्रह्म की चार अवस्थाएँ है। इसकी छाया मनुष्य की चार अवास्थों में मिलती है, जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और स्वरूप स्थिति जिसे बताया नहीं जा सकता।

|| हिरण्यगर्भसूक्तम् ||

ऋग्वेदसंहितायां दशमं मण्डलं, एकविंशत्युत्तरशततमं सूक्तम् ।

ऋषिः हिरण्यग्रभः प्रजापतिपत्यः, देवता कः (प्रजापति),

छन्दः १, ३, ६, ८, ९ त्रिष्टुप्, २, ५ निचृत्त्रिष्टुप्, ४, १० विराट्त्रिष्टुप्,

७ स्वराट्त्रिष्टुप्, स्वरः धैवतः ॥

हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत् ।

स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ १०.१२१.०१

य आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य॒ विश्व॑ उ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॑ दे॒वाः ।

यस्य॑ छा॒यामृतं॒ यस्य॑ मृ॒त्युः कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ १०.१२१.०२

यः प्रा॑ण॒तो नि॑मिष॒तो म॑हि॒त्वैक॒ इद्राजा॒ जग॑तो ब॒भूव॑ ।

य ईशे॑ अ॒स्य द्वि॒पद॒श्चतु॑ष्पदः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ १०.१२१.०३

यस्ये॒मे हि॒मव॑न्तो महि॒त्वा यस्य॑ समु॒द्रं र॒सया॑ स॒हाहुः ।

यस्ये॒माः प्र॒दिशो॒ यस्य॑ बा॒हू कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ १०.१२१.०४

येन॒ द्यौरु॒ग्रा पृ॑थि॒वी च॑ दृ॒ळ्हा येन॒ स्वः॑ स्तभि॒तं येन॒ नाकः॑ ।

यो अ॒न्तरि॑क्षे॒ रज॑सो वि॒मानः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ १०.१२१.०५

यं क्रन्द॑सी॒ अव॑सा तस्तभा॒ने अ॒भ्यैक्षे॑तां॒ मन॑सा॒ रेज॑माने ।

यत्राधि॒ सूर॒ उदि॑तो वि॒भाति॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ १०.१२१.०६

आपो॑ ह॒ यद्बृ॑ह॒तीर्विश्व॒माय॒न्गर्भं॒ दधा॑ना ज॒नय॑न्तीर॒ग्निम् ।

ततो॑ दे॒वानां॒ सम॑वर्त॒तासु॒रेकः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ १०.१२१.०७

यश्चि॒दापो॑ महि॒ना प॒र्यप॑श्य॒द्दक्षं॒ दधा॑ना ज॒नय॑न्तीर्य॒ज्ञम् ।

यो दे॒वेष्वधि॑ दे॒व एक॒ आसी॒त्कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ १०.१२१.०८

मा नो॑ हिंसीज्जनि॒ता यः पृ॑थि॒व्या यो वा॒ दिवं॑ स॒त्यध॑र्मा ज॒जान॑ ।

यश्चा॒पश्च॒न्द्रा बृ॑ह॒तीर्ज॒जान॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ १०.१२१.०९

प्रजा॑पते॒ न त्वदे॒तान्य॒न्यो विश्वा॑ जा॒तानि॒ परि॒ ता ब॑भूव ।

यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ अस्तु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥ १०.१२१.१०

||हिरण्यगर्भः सूक्तम् ||

स्वररहितम् ।

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।

स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.०१

य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।

यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.०२

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव ।

य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.०३

यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः ।

यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.०४

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळ्हा येन स्वः स्तभितं येन नाकः ।

यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.०५

यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने ।

यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.०६

आपो ह यद्बृहतीर्विश्वमायन्गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम् ।

ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.०७

यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद्दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम् ।

यो देवेष्वधि देव एक आसीत्कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.०८

मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान ।

यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.०९

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव ।

यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥ १०.१२१.१०

|| हिरण्यगर्भ सूक्त हिंदी भावार्थ सहित ||

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्॥

स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥

भावार्थ: हे देव! सूर्य आदि सभी तेजोमय पदार्थ आप में ही निहित है। आप सृष्टि के नियामक है। आप ही पृथ्वी, आकाश आदि लोकों के आधार है। हम आपकी अभ्यर्थना करते हैं।

य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः॥

यस्य छायामृतम् यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ २ ॥

भावार्थ: हे देव! आप आत्म ज्ञान,आत्मशक्ति और पुरुषार्थ चतुष्ट्य के प्रदाता है। समस्त विश्व आपकी उपासना करता है। आपका आश्रय परम सुख देने वाला है। आपसे विमुख होना मृत्यु का आमंत्रण है। आपकी कृपा अमृतत्व प्रदान करने वाला है। आप हमारी रक्षा करें।

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव॥

यः ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ३ ॥

भावार्थ: हे देव! आप अपने महान सामर्थ्य से ही समस्त चराचर जगत् के एकमात्र अधिपति और पोषक हैं। आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य के दाता हैं। हम आपकी अभ्यर्थना करते हैं।

यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः॥

यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ४ ॥

भावार्थ: जिसके (महिमा) महत्त्व को ये हिमालय पर्वत, नदी के साथ समुद्र भी वर्णन करते हुए से लगते हैं, जिसकी ये सब चारों ओर की दिशाएँ भुजाओं जैसी-फैली हुयी हैं। हम आपकी अभ्यर्थना करते हैं।

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळहा येन स्वः स्तभितं येन नाकः॥

यो अंतरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ५ ॥

भावार्थ : हे देव! आपने ही द्युलोक को प्रकाशित किया है। आपने ही पृथ्वी आदि लोकों को सुस्थिर किया है। आपने ही समस्त लोकों का निर्माण किया है। आप आनंद स्वरूप हैं। हम आपके इस विराट स्वरूप को प्रणाम करते हैं।

यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने॥

यत्राधि सूर उदतो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ६ ॥

भावार्थ : आपने ही द्युलोक और पृथिवीलोक को आमने-सामने स्तम्भित (स्थिर) कर रखा है जिसके आधार पर सूर्य उदय (प्रकाशित) होता है ऐसे ईश्वर की हम अभ्यर्थना करते हैं।

आपो ह यद् बृहतीर्विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम्॥

ततो देवानाम् समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ७ ॥

भावार्थ : जब सारा संसार जल में निमग्न था। उस समय सृष्टि के आरम्भ में परमाणु प्रवाह आग्नेय तत्त्व को अपने अन्दर धारण करता हुआ प्रकट होता है, तब समस्त देवों का प्राणभूत एक देव परमात्मा वर्त्तमान था ऐसे हिरण्यगर्भ रूप की हम अभ्यर्थना करते हैं।

यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद् दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम्॥

यो देवेष्वधि देवः एक आसीत कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ८ ॥

भावार्थ : हे देव! महा जलराशि में आपने अपने महत्त्व से सृष्टियज्ञ को-प्रकट करने के हेतु, बल वेग धारण करते हुए अप्तत्त्व-परमाणुओं को जो सब ओर से देखता है जानता है, जो सब देवों के ऊपर अधिष्ठाता होकर वर्त्तमान है, उस देव की हम अभ्यर्थना करते हैं।

मा नो हिंसीज्जनिताः यः पृथिव्या यो वा दिव सत्यधर्मा जजान॥

यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ९ ॥

भावार्थ : जिस परमात्मा ने पृथिवीलोक, द्युलोक, चन्द्रताराओं से भरा मन भानेवाला अन्तरिक्ष उत्पन्न किया है, हम उनकी अभ्यर्थना करते हैं।

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव॥

यत् कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥ १० ॥

भावार्थ: हे देव! आप भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों कालों में व्याप्त हैं। समस्त जड़-चेतन में आप ही व्याप्त हैं। आप सर्वोपरि हैं। आप ही सकल ऐश्वर्य के स्वामी हैं। हम अपनी सुख-समृद्धि के लिए आपकी उपासना करते हैं। हमारी कामना पूर्ण हो।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

इति: हिरण्यगर्भः सूक्तम्॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *