दो ऋतुओं का संधिकाल है होली लौक‍िकता और पारलौक‍िकता से पर‍िपूर्ण

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दो ऋतुओं का संधिकाल होली बड़ा विलक्षण पर्व है। इसमें लौकिकता और पारलौकिकता दोनों के सूत्र समाहित हैं। यह बाह्य सुख से ज़्यादा अंतर्मन के आनन्द का काल है। इस रात्रि में शब्दयोग को साधना बेहद प्रभावी हो जाती है और ऊपर से उतरने वाली उन ब्रह्मांडीय ध्वनियों का श्रवण सहज हो जाता है, जो सृष्टि के विस्तार का कारक माना जाता है।आत्मा का तत्व भी शब्द है। इसी को नाम और ब्रह्मनाद भी कहते हैं। होलिका दहन के पश्चात स्वयं की इंद्रियों कर क़ाबू पाकर निरंतर अभ्यास से दिव्य दृष्टि, ज्ञान चक्षु जिसे शिव नेत्र भी कहते हैं, जागृत हो सकता है जो दोनों आँखों के मध्य विराजित सुरत की दृष्टि कही जाती है। यह रात्रि आत्मा के जागरण की प्रमुख रात्रियों में शुमार है।

होली भाग्य बदलने का पर्व भी है।आंतरिक क्षमता के विस्तार की वह पावन बेला है होली, जिसके द्वारा हम नवीन कर्मों के माध्यम से नकारात्मकता का उन्मूलन कर अपना जीवन रूपांतरित कर सकते हैं। इसकी इसी विशेषता को पहचान कर ही लिंगपुराण में फाल्गुनिका अर्थात फाल्गुन-पूर्णिमा को ऐश्वर्य प्रदायक कहा गया है।

प्राचीन मान्यताएं इस रात्रि में मदन की उपासना से जीवन को रूपांतरित करने की सरगोशी करती हैं। यह पर्व रति और कामदेव का पर्व माना जाता है। जीवन में समस्त प्रकार की निराशा का मुख्य कारण देह में काम की शक्ति का भ्रमित और असंतुलित होना है। क्योंकि देह में काम। चक्र ही कामना का केंद्र है। इस चक्र को साध कर मनुष्य यदि चाहे तो मोक्ष की तरफ़ अग्रसर हो जाए या विषय-वासनाओं में फँस कर अनमोल साँसों की पूँजी को ज़ाया कर दें। इस पर्व को अग्निदेव का पर्व भी कहा जाता था। मान्यताओं के अनुसार मनु का जन्म भी होली पर ही हुआ था, अत: इसे मन्वादि तिथि भी कहा जाता है। कहते हैं कि चैतन्य महाप्रभु का जन्मदिन भी इसी दिन हुआ था। काठक गृह्य सूत्र के अनुसार प्राचीन काल में होला कर्म विशेष पर्व था जिसके देवता राका यानी पूर्णचंद्र हैं और यह स्त्रियों को सौभाग्य प्रदान करता है। होली पर अग्निकर्म यानी दहन को समस्त नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करने वाला माना जाता है। इस सामूहिक अग्नि संपादन में नारियल, गाय के गोबर के उपले, कण्डे और गोहरी के साथ ऋतु फल व होरहा अर्थात हरे चने का अर्पण समृद्धि कारक व आयु वृद्धि करने वाला कर्म माना गया है।

दहन के बाद का सबेरा धूलिवंदन, धुरखेल, धुलेंडी और धुरड्डी के नाम से प्रख्यात है जो अलग पर्व है। दरअसल होली का नाम आते ही इसी पर्व का स्मरण आता है। इस दिन लोग एक दूसरे को रंग और अबीर-गुलाल से विभूषित करते हैं। होलिका दहन और धुरड्डी जलीय रंगक्रीड़ा ऋतु परिवर्तन के सामंजस्य की प्राचीन तकनीकी का हिस्सा प्रतीत होती हैं। रंगक्रीड़ा और उसके दरमियान मुख से आनन्द के कोलाहल की ध्वनि नकारात्मक ऊर्जा के उन्मूलन के लिए प्रभावी मानी गयी है। इसका ज़िक्र भविष्य पुराण में भी आता है। कोलाहल वाले इस पर्व के सूत्र हमारी पारंपरिक जड़ों में बहुत गहरे तक मिलते हैं। यह पर्व परस्पर कटुता का भी उन्मूलन करता है।

500 से 200 ईसा पूर्व इसे होलाका कहा जाता था। था। तब बसंतागम के इस पर्व पर यज्ञ का विधान था, जिसे समस्त संकटों को नष्ट करने वाला माना जाता था। होली खेलने का अदभुत वर्णन कलयुग से पहले द्वापर युग में भी मिलता है, जो हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत में घुला मिला है। ब्रज की होली,बरसाने की लठमार होली, कुमाऊँ की गीत बैठकी, हरियाणा की धुलंडी, बंगाल की दोल जात्रा महाराष्ट्र की रंग पंचमी, गोवा का शिमगो, पंजाब में होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन, तमिलनाडु में कमन पोडिगई, मणिपुर के याओसांग, छत्तीसगढ़ में होरी, मध्यप्रदेश के मालवा अंचल में भगोरिया, पूर्वांचल और बिहार में फगुआ के रूप में यह पर्व हमारी हमारी धार्मिक और आध्यात्मिक विरासत से आगे बढ़कर सामाजिक तानों-बानों में रूहानी कसीदाकारी की तरह समाहित है।

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