कालिका पुराण अध्याय १२ || Kalika Puran Adhyay 12 Chapter
कालिका पुराण अध्याय १२ में तीनो देवों का अनन्यत्व का वर्णन है।
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय १२
ऋषिगणों ने कहा- भगवान् जनार्दन ने तीनों देवों की जो अनन्यता को कहा था । हे द्विजोत्तम! शम्भु के लिए सदा अद्वय के श्रवण करने की इच्छा रखते हैं अथवा गरुड़ध्वज ने कैसे एकत्व को दिखाया था ? हे विपेन्द्र ! उसको बतलाइए । हमको बहुत ही अधिक कौतूहल है ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे मुनिगणों! आप लोग श्रवण करिए। यह तीनों देवों की अनन्यता अर्थात् उनके एकत्व का दर्शन परम गोपनीय है । भगवान् हर ने भगवान् गोविन्द से पूछा था और बहुत ही आदर के साथ सम्भाषण करके ही पूछा था । हे मुनिश्रष्ठों ! इन्होंने इनकी अभिन्नता का प्रतिपादन करने वाला यहीं कहा था ।
श्री भगवान् ने कहा- यह जब भुवन वर्जिततमोमय अर्थात् तम से परिपूर्ण था । यह अप्रज्ञात, अलक्ष्य और सभी ओर से प्रसुप्त के ही तुल्य था । यहाँ पर दिन रात्रि का भाग नहीं है, न आकाश है और न काश्यपी ही है, न ज्योति है, न जल है और न वायु है अन्य किञ्चित् संस्थित नहीं है । परमब्रह्म एक ही था जो सूक्ष्म, नित्य और इन्द्रियों की पहुँच से परे हैं, यह अव्यक्त और ज्ञानरूप से द्वैत से ही परिपूर्ण है ।
प्रकृति और पुरुष ये दोनों सर्व सहित नित्य हैं । हे भूतेश ! काल भी स्थित हैं जो एक ही जगत् का कारण है । हे हर ! जो एक परमब्रह्म है वह स्वरूप से परे है उसी जगत के पति के यह तीनों रूप नित्य हैं । काल नाम वाला दूसरा रूप है जो अनाद्य है और वह तो कारण है वह सब भूतों का अवच्छेद से संगत होता है । फिर वह अपने प्रकाश से भास्वद्रुप वाला प्रकाशित होता है। पहले सृष्टि की रचना करने के लिए अतुल रूप से स्वयं प्रकृति से क्षोभयुत करता हुआ था । प्रकृति के संक्षुब्ध हो जाने पर महत्तत्व की उत्पत्ति हुई थी। पीछे महत्तत्व से तीन प्रकार का अहंकार समुत्पन्न हुआ था । अहंकार के समुत्पन्न होने पर शब्द तन्मात्रा से विष्णु ने आकाश का सृजन किया था जो आकाश अनन्त है और मूर्ति से रहित है अर्थात् आकाश की कोई भी मूर्ति नहीं है । इसके उपरान्त महेश्वर ने रस तन्मात्र से जल का सृजन किया था । उस समय वह अपनी माया से निराधार ने स्वयं ही धारण किया था ।
इसके अनन्तर प्रभु ने तीनों गुणों की अर्थात् सत्व, रज, तम इनकी समता ने संस्थित प्रकृति को परमेश्वर ने पुनः सृष्टि की रचना के लिए संक्षप्त किया था । इसके पश्चात् उस प्रकृति ने उस जल में त्रिगुण के भाग वाले निराकुल जगत् के बीच स्वरूप बीज को भली-भाँति सृजन किया था । वही निश्चत रूप से क्रम से ही वृद्ध महान् सुवर्ण अण्ड हुआ था । उस अण्ड ने गर्भ में ही उस सम्पूर्ण जल को ग्रहण कर लिया था और अण्ड के गर्भ में जल के स्थित हो जाने पर भगवान् विष्णु ने उस अण्ड को आपकी ही माया से इस अतुल ब्रह्माण्ड को धारण कर लिया था । जल, अग्नि, वायु तथा नभ से वह अण्डक बाहिर सब पार्श्व में और सभी ओर आछन्न हो गया था । सात सागरों के मान से जैसे नदी आदि के मान से ब्रह्माण्ड के अन्दर जल है उसी तरह से उसके अन्दर यह भगवान् विष्णु स्वयं ही ब्रह्मा के रूप के धारण करने वाले हैं । एक वर्ष तक निवास करके ही मैंने उस अण्ड का भेदन किया था ।
हे महेश्वर ! उससे इसमें मेरु हुआ था । उस जल से जरायु पर्वत हुए और सात समुद्र हुए था। उसके मध्य में गन्ध की तन्मात्रा से पृथ्वी समुत्पन्न हुई थी । ईश्वर द्वारा और प्रवृत्ति से वह त्रिगुणात्मिका ज्योति की थी। पहले ही पर्वत आदि से वसुन्धरा समुत्पन्न हुई थी । ब्रह्माण्ड के खण्ड के संयोग से वह अत्यन्त दृढ़ हो गई थी । उसमें ही सब लोकों के गुरु ब्रह्माजी स्वयं संस्थित हैं । तब ही से सब लोकों के गुरु ब्रह्माजी स्वयं संस्थित हैं । जब ब्रह्माजी ब्रह्माण्ड के मध्य में स्थित थे तो वह व्यक्त नहीं हुए । उसी समय में रूप की तन्मात्रा से भली-भाँति तेज उत्पन्न हुआ था । प्रकृति के द्वारा विनियोतिज स्पर्श तन्मात्रा से वायु उत्पन्न हुआ था जो वायु सभी ओर से समस्त प्राणियों का प्राणभूत हुआ था । अतुल जलों से, तेजों से, वायुओं से तथा नभ से उस अण्ड के अन्दर और बाहर व्याप्त था और गर्भ में गमन करने वाला था। इसके अनन्तर महेश्वर ने ब्रह्मा के शरीर को तीन भागों में विभक्त कर दिया था । हे शम्भो ! स्वभाव की इच्छा के वश से त्रिगुण त्रिगुणीकृत हो गया ।
उसका जो उर्ध्वभाग था चतुर्मुख और चतुर्भुज हो गया था । पद्म केशर के समान और रंग काया वाला ब्रह्म महेश्वर था । उसका जो मध्य भाग था वह नीले अंगों वाला, एक मुख से युक्त चार भुजाओं वाला था । शंख, चक्र, गदा और पद्म हाथों में लिए हुए वह काम वैष्णव था। उसका अधोभाग पाँच मुखों से समन्वित, चार भुजाओं वाला था । वह स्फटिक के तुल्य शुक्ल था और वह काम चन्द्रशेखर था । इधर-उधर ब्रह्म के कार्य में सृष्टि की शक्ति नियोजित किया था और वह लोकभूत ब्रह्म के रूप से सृष्टा हो गया था। महेश ने वैष्णव काम में अपनी ज्ञान की शक्ति को महेश्वर में ही स्थिति अर्थात् पालन का करने वाला विष्णु हो गया था । सर्वशक्तियों के नियोग से मेरा सदा ही तद्रूपता है ।
वही परमेश्वर संहार करने वाले शम्भु हो गये थे । इनका वे फिर तीनों शरीरों में अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव इन तीनों में वह स्वयं ही प्रकाश किया करते हैं । ज्ञानरूप परमात्मा भगवान् प्रभु अनादि हैं। सृजन, पालन और संहार के करने से एक ही हैं। वही ब्रह्मा, विष्णु और महेश पृथक्-पृथक् नहीं हैं । इस प्रकार शरीर, रूप और ज्ञान हमारा अन्तर होता है।
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस प्रकार से शिव भगवान् ने उन अमित तेज वाले भगवान् विष्णु के वचन का श्रवण करके अतिरेक से विकसित मुख वाले होकर पुनः जनार्दन प्रभु बोले- यदि ज्योति स्वरूप वाला और निरञ्जन महेश ही है, कौन सी माया है अथवा कौन काल है अथवा कौन प्रकृति कही जाया करती है ? कौन से पुरुष उनसे भिन्न अभिन्न हैं यदि ऐसा है तो फिर एकता किस रीति से होती हैं ? हे गोविन्द ! उनके प्रभाव को मुझे बतलाइए।
श्री भगवान् ने कहा-आप ही सदा ध्यान में समवस्थित होकर परमेश्वर को देखा करते हैं जो आत्मा में आत्मस्वरूप हैं और वह ज्योति के रूप वाला सहक्षर है। हे विभो ! माया को, प्रकृति को, काल को और पुरुष को आप स्वयं जानने वाले हैं जब आप ध्यान का भोग करते हैं तो उसी के द्वारा ज्ञाता हैं । इसीलिए आप ध्यान में तत्पर हो जाइए क्योंकि इस समय में आप हमारी माया से मोहित हो रहे हैं । इसी कारण से आप निश्चय ही परम ज्योति का विस्मरण करके वनिता में निरत हो रहे हैं । अब आप कोप से युक्त हैं अतएव कोप को भूलकर हे प्रथमों के स्वामिन् ! प्रकृति के आदिरूप जिसको आप पूछ रहे हैं ।
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा-फिर तो वहाँ पर महादेवजी ने इस परम सुनिश्चित वाक्य का श्रवण करके समस्त मुनियों के देखते हुए ये योग से युक्त होकर ध्यान में परायण हो गये थे । इस समय में बन्ध का आसाद न करके विर्निमीलित लोचनों वाले महेश्वर ने सब आत्मा का चिन्तन किया था । परमपुरुष का चिन्तन करते हुए उनका शरीर बहुत अधिक कान्तियुक्त होकर चमक रहा था। तेज से उज्ज्वल उनको देखने के लिए उस समय में मुनिगण भी समर्थ नहीं हुए थे। उसी क्षण में जब ये शम्भु ध्यान से मुक्त हो गये तो भगवान् विष्णु की माया ने भी उनका परित्याग कर दिया था उस समय वे तप के तेज से अतीव उज्जवल एवं कान्तिमान् होकर चमक रहे थे ।
जो-जो भी गण उस अवसर पर सेवा करने के लिए शंकर के समीप में स्थित रहते थे वे सब भी उन शंकर अथवा दिवाकर के देखने में समर्थ नहीं थे अर्थात् उन्हें देख नहीं सकते थे। उस काल में स्वयं ही भगवान विष्णु समाधि में मन लगाने वाले शिव के शरीर के अन्दर ज्योति के स्वरूप से प्रविष्ट हुए थे। उन शंकर ने जठर में प्रवेश करके जैसे पहले सृष्टि का क्रम था ठीक उसी भाँति स्वयं अव्यय नारायण ने दिखा दिया था । वह न तो स्थूल है और न सूक्ष्म ही हैं, न विशेषण के गोचर हैं, वह नित्य आनन्दरूप हैं, निरानन्दन हैं, एक हैं, शुद्ध हैं और इन्द्रियों की पहुँच के बाहर हैं वह अस्पृश्य हैं और सब का दृष्टा अर्थात् देखने वाला है, वह निर्गुण है, परमपद हैं, परमात्मा में गमन करने वाला आनन्द हैं और जगत् के कारण का भी कारण हैं । सबसे प्रथम शम्भु ने तत्स्वरूपी आत्मा को देखा था। वह पर प्रविष्ट हुए मन में बाहर के ज्ञान से विवर्जित उसी के रूप प्रकृति को जो सृष्टि की रचना के लिए भिन्नता को प्राप्त हुई थी । उसी के समीप एक उसको पृथक् भूत हुई की भांति देखा था ।
फिर इनमें जिस रीति से वास कर रहे पुरुषों को देखा था । हे द्विजसत्तमों! जैसे स्थूल अग्नि के कण से निरन्तर होवें । वह ही काल के रूप से बारम्बार भासित होता है। सृष्टि, पालन और अहंकार के योगों का अवच्छेद से कारण है। प्रकृति और पुरुष ही काल भी जो अभिन्न थे और सर्ग के लिए भिन्नता को प्राप्त हुए भी समान थे । इन सबको पृथक भूत और अभिन्न चन्द्रशेखर प्रभु ने देखा था । एक ही ब्रह्म है जो द्वैत से रहित और यहाँ पर कुछ भी नानारूप वाला नहीं है । वह ही प्रधान रूप से और काल के स्वरूप से भासमान होता है तथा पुरुष के रूप में संसार के लिए प्रवृत्त हुआ करता है ।
भोग करने के लिए निरन्तर वह प्राणधारियों के शरीर में प्रवत्तित होता है । वह ही माया या प्रकृति हैं जो शंकर भगवान् को मोहित करती है । वह ही हरि को और ब्रह्माजी को मोहयुक्त करती हैं। ठीक उसी भाँति से आप अन्य जन्म वाले हैं । माया के नाम वाली प्रकृति जात हुई और जन्तु को सम्मोहित भी किया करती है । वह सदा स्त्री के स्वरूप से लक्ष्मीभूता हुई हरि भगवान् की प्रिया है । वह ही सावित्री, रति, सन्ध्या, सती और वारिणी है। वह देवी स्वयं बुद्धि के रूप वाली है जो चण्डिका इन नाम ‘गायन की जाया करती है । यह ध्यान के मार्ग में गमन किए हुए भगवान् हर ने शीघ्र स्वयं ही देखा था । महत्तत्व आदि के भेद से फिर सृष्टि के क्रम को स्वयं देखा था । भगवान् ने काल-प्रकृति तथा पुरुषों को दिखलाकर हे द्विजोत्तमों! उसी प्रकार से उनके शरीर को अन्य दिखलाया था ।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे त्रीदेव: अनन्यत्वनाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥