कालिका पुराण अध्याय १३ || Kalika Puran Adhyay 13 Chapter

0

कालिका पुराण अध्याय १३ में हर कोप शमन का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय १३            

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर भगवान् ने शम्भु ब्रह्माण्ड का संस्थान दिखलाया था जिस प्रकार से पहले ब्रह्माण्ड जो जल की राशि में स्थित होता हुआ बढ़ा था । उसके मध्य में पद्मगर्भ की आभा वाले जगत् के पति ब्रह्मा को जो ज्योति के रूप वाला प्रकाश के लिए और सृष्टि की रचना करने के लिए पृथक्गत है और शरीरधारी को देखा था । फिर ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत चार भुजाओं से समन्वित ज्योतियों से प्रकाशित कमल पर आसन वाले को देखा था और वहीं पर उन्होंने तीन भागों में स्थित वपु वाले ब्रह्मा को देखा था । जो ऊर्ध्व, मध्य और अन्त भागों के द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और शिव के स्वरूप वाला था। जिस रीति से वायु का ऊर्ध्व भाग उस समय ब्रह्मत्व को प्राप्त हो गया था जो मध्य भाग था। वह एक ही शरीर तीन भागों में बार-बार हर भगवान् ने अपने गर्भ में इस सम्पूर्ण जगत् को उसी भाँति देखा था । कदाचित् वैष्णवकाय अर्थात् विष्णु का शरीर ब्रह्मकाय में अर्थात् ब्रह्मा के शरीर में लय हो जाता है। किसी समय में ब्रह्म वैष्णव में तथा शाम्भव वैष्णवकाय लीन हो जाता है। तात्पर्य यह है कि कभी ब्रह्मा का शरीर विष्णु के शरीर में और शम्भु के शरीर में विष्णु का शरीर लय को प्राप्त हो जाया करता है ।

शम्भु का शरीर विष्णु के वपु में अथवा ब्रह्मा का वपु शम्भु शरीर में लीनता को प्राप्त होता हुआ तथा बार-बार एकता को प्राप्त होने वाला शम्भु भगवान् ने देखा था । वामदेव की भिन्नता को अप्राप्त पृथक्गत परमात्मा में गमन करते हुए अर्थात् लीनता को प्राप्त होते हुए उसके वपु को स्वयं देखा था । शम्भु ने उसके मध्य में जल में वितत अर्थात् विस्तृत पृथ्वी को देखा था । जो महान् पर्वतों के संघातों से विरल हैं । फिर उन्होंने आदि से सर्ग की रचना करते हुए ब्रह्माजी को देखा था तथा अपने आपको पृथक्भूत और गरुड़ पर आसन वाले विष्णु को देखा था । वहाँ पर ही प्रजापति दक्ष को और उसी भाँति अपने गणों को, प्ररीचि आदि दशों को, वैरिणी को, सती, सन्ध्या, रति, कन्दर्प, वसन्त के सहित शृंगार, हावों को, भावों को, मारों को, ऋषियों को, देवों को, गरुड़ गणों को देखा था । मेघों को, चन्द्र, सूर्य, वृक्षगण, वल्ली और तृण, सिद्ध, विद्याधर, यक्ष, राक्षस और किन्नरों को देखा था ।

मनुष्यों को, भुजंगों को, ग्राह, मत्स्य, कच्छप, उल्का, निर्घात, केतुकों को, कृमि, कीट और पतंगों को देखा था । वहाँ पर किसी वनिता को देखा था जो द्वन्द्व भाव को कर रही थी। किसी को उत्पन्न, उत्पत्ति को प्राप्त होते हुए विपद्ग्रस्त को देखा था । कुछ लोगों को हास-विलास करते हुए और कुछ को विलाप करते हुए तथा कुछ दौड़ लगाते हुओं को परमेश्वर ने देखा था जो कि शम्भु की ओर ही भाग रहे थे । कुछ लोग दिव्य अंलकारों से युक्त थे, कुछ माला और चन्दन से चर्चित हुए थे, कुछ लोग वीक्षा करते थे और कुछ पुनः शम्भु के साथ क्रीड़ित थे । कुछ लोग स्तुति कर रहे थे, कुछ शम्भु का स्तवन करते हुए – विष्णु और ब्रह्मा का स्तवन करने वाले थे। उनके द्वारा कुछ मुनि और तपस्वी गण भी देखे गये थे । कुछ लोग नदी के तट पर तपोवन में तपस्या करते हुए देखे गये थे । कुछ लोग स्वाध्याय तथा वेदों में रत देखे गये थे और कुछ पढ़ाते हुए देखे गये थे। वहीं पर सात सागर, नदियाँ और देव सरोवर देखे गए थे । वही पर यह पर्वत पर स्थित थे, ऐसा स्वयं शम्भु के द्वारा देखा गया था ।

यह महालक्ष्मी के रूप से भगवान् हरि को पर्याप्त रूप से मोहित किया करती है । सती के स्वरूप वाली उसी भाँति आत्मा को अर्थात् अपने आप को मोहित करती हुई को शंकर ने देखा था। वे स्वयं सती के साथ मेरु पर्वत कैलाश में रमण करते थे तथा मन्दिर में देव विपिन में जो शृंगार रस से सेवित था। वह देवी सती के रूप का परित्याग करके हिमवान् की सुता होकर समुत्पन्न हुई थी। जिस प्रकार से पुनः उसने उन सती को प्राप्त किया था और जैसे अन्धक मारा गया था। जैसे कार्तिकेय समुत्पन्न हुए और जिस तरह से तारक नाम वाले का हनन किया था यह सब विस्तारपूर्वक भली-भाँति वृषभध्वज ने देखा था । जिस रीति से नरसिंह के स्वरूप धारण करने वाले के द्वारा हिरण्यकशिपु मारा गया था और जिस प्रकार से हिरण्याक्ष और कालनेमि नष्ट हुआ था तथा जैसे पहले किया हुआ दानवों के समुदाय के साथ विष्णु भगवान् के द्वारा युद्ध हुआ था तथा जो-जो भी वहाँ पर निहित हुए थे यह सभी कुछ भगवान् हर ने देखा था। जगत् के प्रपञ्चरूप ब्रह्मा आदि नक्षत्र ग्रह और मनुष्य, सिद्ध और विद्याधर आदि को पृथक-पृथक देख-देखकर ईश्वर शम्भु ने उन सबका संहार करते अपने आप को देखा था । इन्होंने फिर संहार के अन्त में ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वरी को देखा था । यह सम्पूर्ण चर और अचरों से समन्वित जगत् शून्य हो गया था । इस समस्त शून्य जगत् में ब्रह्मा, विष्णु के शरीर में गमन करने वाले तथा शम्भु लीन होते हुए उसी के शरीर में प्रवेश कर गये थे । इन्होंने एक ही अव्यक्त रूप वाले विष्णु को देखा था और इन्होंने अन्य कुछ भी नहीं देखा था जो उस समय में विष्णु के बिना होवें । इसके अनन्तर विष्णु भगवान् को देखा गया था । परमात्मा में लय को प्राप्त, भासमान पर तत्व, सनातन ज्योति के रूप वाले परमतत्व देखे गये थे । इसके अनन्तर ज्ञान से परिपूर्ण, नित्य, आनन्दमय, ब्रह्म से पर, केवल ज्ञान के द्वारा ही जानने के योग्य को देखा था और अन्य कुछ भी नहीं देखा था । परमात्मा में उस जगत् का एकत्व और पृथक्त्व अपने शरीर के अन्दर मर्ग, स्थित और संयमों को देखा था ।

प्रकाशरूप, शान्त, नित्य और इन्द्रियों की पहुँच से परे परमात्मा को देखा था कि ब्रह्मा एक ही पर है। जो अद्वय द्वैत से रहित है। इससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं देखा था । कौन भगवान् विष्णु है, कौन ब्रह्मा है अथवा क्या यह जगत् है ? शम्भु के द्वारा परमात्मा का यह भेद ग्रहण नहीं किया गया था । इस प्रकार से देखते हुए उनके शरीर के सुन्दर से बाहर माया आदि निर्गत हुए थे और वृषभध्वज (शिव) में प्रवेश कर गए थे। जनार्दन प्रभु ने अनन्यत्व और पृथक्त्व दिखलाकर शम्भु के लिए उनके शरीर से शीघ्र ही फिर बाहर हो गये थे । इसके उपरान्त समाधि से परित्याग करने वाले चलित आत्मा से युक्त शिव का मन सती की ओर गया था जो शिवमाया से मोहित हो गये थे । हे द्विजोत्तमों ! फिर भगवान् हर ने दाक्षायणी के मनोहर और विकसित कमल के आकार वाले मुख को देखा था । इसके आगे दक्ष, मारीचि आदि मुनियों को, अपने गणों को, कमलासन (ब्रह्मा) को और भगवान् विष्णु को वहाँ पर देखकर भगवान् शंकर अत्यन्त विस्मित हो गये थे । इसके अनन्तर विस्मय में स्मित ( मन्द मुस्कराहट ) से प्रफुल्लित मुख से संयुत वृषभध्वज महादेव से भगवान् जनार्दन ने कहा ।

श्री भगवान् ने कहा- हे शंकर! जो-जो भी आपने एकत्व में और भिन्नता में देखा और आपने तीनों देवों को स्वरूप जान लिया है । आपने अपने अन्तर में प्रकृति, पुरुष, काल और माया को अच्छी तरह से जान लिया है। हे महादेव ! वे फिर किस प्रकार वाले हैं ? ब्रह्म एक ही हैं और वह शान्त, नित्य, परम महत् हैं। वह किस तरह से भिन्नता को प्राप्त हुआ और कैसा है यह आपने देख लिया है।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इस रीति से भगवान् वृषभध्वज जब भगवान् विष्णु के द्वारा पूजे गये थे हे द्विजोतमों! हर ने हरि के लिए यह तथ्य वचन कहा था ।

ईश्वर ने कहा- एक शिव परमशान्त, अनन्त, अच्युत ब्रह्म हैं और उनसे अन्य ऐसा कुछ भी नहीं है उनसे अभिन्न सम्पूर्ण जगत् हरि के कला आदि रूप से सृष्टि की रचना का हेतु होता है । वह समस्त प्राणियों को प्रभव है और निरञ्जन है और हम सब उसके ही सदा अंश स्वरूप वाले हैं । सृष्टि, स्थिति (पालन ) और संयमन (संहार) उसके द्वारा कथित भेद से तीनों रूप शोभित होते हैं। न तो मैं, न आप और न हिरण्यगर्भ, न कालरूप, न प्रकृति और उसकी प्रेरणा करने के लिए समर्थ है । यहाँ पर कुछ रूप के बिना भी उसका सत् भी है ।

श्री भगवान् ने कहा- हे वृषभध्वज ! यह तत्व आपने कहा और जान लिया है। हम ब्रह्मा, विष्णु और पिनाकी (शिव) उसके अंशभूत ही हैं । इस कारण आपके द्वारा ब्रह्मा वध के योग्य नहीं हैं। यदि आपको एकता विदित है जो कि हे शम्भो ! ब्रह्मा, विष्णु और पिनाकधारी शिव की होती है ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- अपरिमित तेज के धारण करने वाले भगवान् विष्णु के इस वचन का श्रवण करके महादेव जी ने सबकी एक स्वरूपता को देखकर ब्रह्मा का हनन नहीं किया । भगवान् विष्णु ने जिस रीति से एकता को आदिष्ट किया था वह सब मैंने आपको बतला दिया है।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे हरकोपशमने नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *