कालिका पुराण अध्याय १६ || Kalika Puran Adhyay 16 Chapter
कालिका पुराण अध्याय १६ में दक्ष यज्ञ का आयोजन और सती के देह त्याग का वर्णन है।
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय १६
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- वह कनकों के रूपों से रत्न सुशोभित शिखर था । वह शिखर सूर्य के समान उन्नत था । उस शिखर को सती सखा शिव ने प्राप्त किया था। उसमें जो स्फटिक पाषाण था और शाद्वल एवं द्रुमों से राजित था, विचित्र पुष्पों की लताओं से तथा सरोवरों से संयुत था, वहाँ प्रफुल्लित वृक्षों की शाखाओं की टहनियों पर गुञ्जार करते हुए भ्रमरों के द्वारा परम शोभा हो रही थी । विकसित कमलों के द्वारा तथा नील कमलों के समुदाय के द्वारा चक्रवाकों समूहों से और कादम्ब से शोभित था । प्रमत्त सारस, कौंच और नीलकण्ठ इनसे जो शब्दायमान था एवं कोकिलों की मधुर ध्वनियों से तथा मृगों से सेवित था। तुरंग के समान मुखों वाले सिद्धों, अप्सराओं और गुह्यकों से, विद्याधरों, देवियों तथा किन्नरों के द्वारा विहार किया हुआ था । पर्वतीय पुरन्ध्रियों से और कन्याओं से वह समन्वित था । विपञ्ची तन्त्रिका मन्द मृदंग, पट्टह की ध्वनियों से और नृत्य करती हुई कौतुक से समुत्थित अप्सराओं के द्वारा सुशोभित था । दैवी दिव्य और गन्ध युक्त लताओं से समावृत्त, ऊर्ध्व प्रफुल्ल कुसुमों से तथा निकुन्जों से शोभायमान स्थान था ।
उसमें वृषभध्वज ने इस प्रकार से समन्वित सुशोभन में सती के साथ चिरकाल पर्यन्त रमण किया था। उस स्वर्ग के सदृश स्थान में भगवान् शंकर ने दिव्यमान से दश हजार वर्ष तक आनन्द सहित सती देवी के साथ रमण किया था। पहले वह शंकर भगवान् किसी समय उस स्थान से कैलाश पर चले जाया करते हैं । किसी समय देवों और देवियों से समावृत मेरु पर्वत के शिखर चले जाते हैं । उसी भाँति दिक्पालों के उद्यान में, वनों में और वसुधा तल में जा-जाकर पुन: वहाँ पर सती को साथ में लिए हुए उनसे रमण किया करते थे । उन्होंने रात दिन को नहीं जाना था, न तो वे ब्रह्मा का चिन्तन करते थे, न तप और शम का ही समाचरण किया करते थे । सती के अन्दर समाहित मन वाले शम्भु ने केवल प्रीति ही की थी। सती सभी ओर केवल एक महादेवजी के ही मुख को देखा करती थीं और महादेवजी भी निरन्तर सभी जगह सर्वदा सती के ही मुख का अवलोकन किया करते थे। इस रीति से परस्पर में एक-दूसरे संसर्ग से अनुराग रूपी वृक्ष को सती और शम्भु ने भावरूपी जल के सेवन के समान सेवन किया था ।
कालिका पुराण अध्याय १६
दक्ष यज्ञ का आयोजन
इसी बीच में जगतों के हित को करने वाले प्रजापति दक्ष के एक महान् यज्ञ के यजन करने का समारम्भ किया था जो कि सर्वजीवन था । जहाँ पर अट्ठासी हजार ऋत्विज हवन करते । हे सुरर्षियों! इसमें चौसठ हजार उद्गाता थे। उतने ही अध्वर्यु और नारद आदि होता गण थे । समस्त मरुद्गणों के साथ विष्णु भगवान् स्वयं ही अधिष्ठाता हुए थे । ब्रह्माजी स्वयं वहाँ पर त्रयी की विधि के निदर्शक थे। उसी भाँति सब दिक्पाल उसके द्वारपाल और रक्षक थे । वहाँ पर यज्ञ स्वयं उपस्थित हुआ था और धरा स्वयं वेदी हुई थी अर्थात् पृथ्वी ने ही स्वयं वेदी का स्वरूप धारण किया था। अग्नि ने उस यज्ञ के महोत्सव में हवियों के शीघ्र ग्रहण करने के लिए ही अपने अनेक स्वरूप धारण किए थे। शीघ्र ही मरीचि आदि को आमन्त्रित करके जो पवित्रैक धारण करने वाले थे वहाँ पर बुलाया था और उन्होंने सामिधेनी से अर्चि को प्रज्ज्वलित किया था । सप्तर्षि गण पृथक-पृथक सामगाथा करते थे जो कि श्रुतियों के स्वरों से पृथ्वी, दिशाओं को और विदिशाओं को एवं आकाश को पूरित कर रहे थे ।
महात्मा दक्ष ने वहाँ पर योगियों में किन्हीं को भी परावृत नहीं किया था। न तो कोई ऋषिगण, न देवगण, न मनुष्य और न पक्षीगण, न उद्भेद, न तृण, न पशु और मृग पराव्रत किए गए थे। उस दक्ष ने सुमदाध्वरों में गन्धर्व, विद्याधर, सिद्धों के समुदाय, आदित्य, साध्य, ऋषिगण, यक्ष, समस्त स्थावर नागदर को भी परावृत नहीं किया था । कल्प, मन्वन्तर, युग, वर्ष, मास, दिन, रात्रि, कला, काष्ठा, निमेष आदि सब वृत किए हुए वहाँ पर सब समागत हुए थे। उस दक्ष के द्वारा वृत किए हुए महर्षि, राजर्षि, सुरभि संघ, पुत्रों के सहित नृप, गण देवता ये सब उस समय आगत हुए थे । कीट, पतंग, सब जल में समुत्पन्न जीव, वानर, श्वापद, घोर, विघ्न, शैल, नदियाँ और समुद्र, सरोवर, वापी, वृत हुए थे और सब गये थे। सभी हवियों के अपने भाग को ग्रहण करने की इच्छा वाले थे। वे दृढ़ यज्वीक्रतु के गमन करने वाले हुए थे । पाताल में निवास करने वाले असुर भी वहाँ पर समागत हुए थे । नागों की स्त्रियाँ और समस्त देवों की सभा आई थी ।
जो कुछ भी इस जगत में वर्त्तन करने वाले थे चाहे चेतन हो या अचेतन ही वे सब में वरण इस सर्वस्व दक्षिणा वाले यज्ञ का समारम्भ किया था । उस यज्ञ में महात्मा दक्ष ने केवल भगवान् शम्भु का वरण नहीं किया था अर्थात् शम्भु को आमन्त्रण नहीं दिया था। शम्भु कपाल धारण करने वाले हैं अतएव उनमें यज्ञ में सम्मिलित होने की योग्यता ही नहीं है ऐसा ही निश्चय करके शम्भु को निमन्त्रित नहीं किया गया था । सती भी यद्यपि परमप्रिय अपनी पुत्री थी किन्तु क्योंकि वह भी कपाली शिव की भार्या थी अतएव उनका भी वृत नहीं किया गया था क्योंकि यज्ञ के विषय में दक्ष ने दोषों को विचार कर लिया था । सती ने यह श्रवण करके कि पिताजी ने एक उत्तम यज्ञ करने का आरम्भ किया है किन्तु क्योंकि मैं कपालधारी की भार्या हूँ इसीलिए वास्तव में मुझको नहीं बुलाया गया है। वह सती अत्यन्त क्रोधित हो गयी थी जो कि कोप उसे अपने पिता दक्ष के ऊपर उनको हुआ था। उस अवसर पर उनका मुख और नेत्र क्रोध से लाल हो गये थे। उसी समय में सती ने शाप द्वारा दक्ष प्रजापति को दग्ध करने के लिए मनन किया था । यद्यपि वह सती क्रोध में आविष्ट थीं तो भी इस पूर्व समय को उसने स्मरण किया था । मन से ऐसा निश्चय करके उस समय में सती ने शाप नहीं दिया था क्योंकि मैंने पहले दृढ़ प्रतिज्ञा की है मेरी अवज्ञा होने पर मैं फिर निश्चय ही अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगी ।
जिस समय दक्ष ने तनया की इच्छा वाले होते हुए बहुत समय तक मेरा स्तवन किया था उसी समय में मैंने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं उसको शाप नहीं दूँगी । इसके अनन्तर अपने नित्य स्वरूप का उस देवी ने चिन्तन करके अत्यन्त उग्र, निष्कल और जगत् से परिपूर्ण का स्मरण किया था। उस सती ने हरि की योगनिद्रा नाम वाले पूर्व स्वरूप का स्मरण करती हुई उस समय में दक्ष की पुत्री ने मन के द्वारा इस प्रकार से चिन्तन किया था। ब्रह्मा के द्वारा उदित दक्ष प्रजापति ने जिसके लिए मेरी स्तुति की थी वह कुछ भी नहीं जाना था और भगवान् शंकर भी पुत्रवान् नहीं हुए थे । इस समय में देवगण का एक ही कार्य सम्पन्न हुआ था कि भगवान् शंकर मेरे लिए स्त्री में अनुराग करने वाले हो गये थे । मेरे अतिरिक्त अन्य कोई भी शम्भु के अनुराग की वृद्धि करने के लिए समर्थ नहीं थी और न कोई होगी क्योंकि अन्य किसी को भी शंकर ग्रहण नहीं करेंगे। तो भी मैं पूर्वयोजित समय से पूर्व ही अपने शरीर का त्याग कर दूँगी और जगत् की भलाई के लिए फिर गिरि अर्थात् हिमवान् में अपना प्रादुर्भाव करूँगी ।
पूर्वकाल में हिमवान् के सुरम्य एवं देवों के गृह के सदृश प्रस्थ में शम्भु ने प्रीति से संयुत मेरे साथ रमण करने को बहुत समय तक मुझसे प्रेम किया था । वहाँ पर जो मेनका देवी है वह सुन्दर अंगों वाली और व्रत का समाचरण करने वाली है । वह परम सुशीला और पुर की स्त्रियों में अत्युत्तमा है जो कि पार्वती के गण हैं उनमें श्रेष्ठ है। उसमें मेरे साथ एक माता की ही भाँति चेष्टा की थी जो कि सभी कर्मों से यथोचित थी । उसमें मेरा अनुराग हो गया था और वह अनुराग ऐसा ही था कि वही मेरी माता होगी। पर्वतीय कन्याओं के साथ मैं बचपन की क्रीड़ायें चिरकाल पर्यन्त कर-करके मेनका की उत्तम प्रसन्नता को उत्पन्न करूँगी। मैं फिर भगवान् शम्भु की अत्यन्त प्यारी जाया (पत्नी) होऊँगी। फिर मैं उनके उपाय से बिना किसी संशय के देवों कार्यों को करूँगी । इस प्रकार से चिन्तन करते हुए वह फिर कोप से समावृत्त हो गयी थी । वहाँ पर क्रोध से लाल नेत्रों वाली उस समय में अपने शरीर को योग के द्वारा समस्त द्वारों को आवृत करके मस्तक स्फोटित कर दिया था ।
उस महान स्फोट ने उस सती की प्राणवायु आत्मा के दशम द्वार पर निर्भेदन करके बाहर चली गयी थी। सब ऋषिगणों ने प्राणों का परित्याग करने वाली उसको देखकर आकाश में स्थित उन्होंने हा-हाकार किया था और वे शोक से व्याकुल नेत्र वाले हो गये थे। इसके अनन्तर उसी सती के बहिन की पुत्री वहाँ पर सती को मृत देखकर शोक से पुन: विजया ने रुदन किया था । हा! सती तुम कहाँ गयीं ? हा! सती आपको यह क्या हुआ ? हा! मौसी ! इस प्रकार का उस समय में महान् क्रन्दन का शब्द हो गया था । हे सती! अप्रिय के श्रवण करने ही से तुमने अपने प्राणों का परित्याग कर दिया है । अब मैं ऐसे सुदृढ़ विप्रिय को देखकर कैसे जीवित रहूँ । उस समय में अपने हाथ से सती के मुख का बार-बार मार्जन करती हुई उसने करुणापूर्वक विलाप करती हुई ने उसी सती के मुख को सूँघा था। वह अपने नेत्रों से निकलते हुए जलों से उस सती के हृदय और मुख का सिंचन करती हुई हाथों से उसके केशों को उल्लासित करके बार-बार मुख को देख रही थी ।
ऊपर और नीचे की ओर कम्पित शिर वाली शोक से व्याकुल इन्द्रियों से समन्वित हुई पाँचों अंगुलियों से अपने वृक्ष-स्थल और शिर को पीट रही थी । उस विजया ने अश्रुओं से युक्त कण्ठ वाली होती हुई यह वचन कहा था। माता वीरणी तेरे मरण का श्रवण करके शोक से कर्षित हो जायेंगी। वह माता कैसे प्राणों को धारण करने वाली होगी। वह तो तुरन्त ही जीवन को त्याग देगी । उसके द्वारा क्रूर कर्म करने वाले आपके पिता कैसे होंगे ? आपको मृत सुनकर कोई कैसे अपना जीवन धारण करेगा। आपके प्रति निश्चय ही अपने कर्मों का विचिन्तन करके उस समय शोक से व्याकुल दक्ष ने ये बहुत ही क्रूर एवं कठोर कर्म किए थे और ज्ञान से हीन वह यजन करने वाला होकर कैसे कर्म के करने में प्रवृत्त हो रहे हैं क्योंकि वह श्रद्धा से रहित और बुद्धि का त्याग कर देने वाला है। हा! माता! बालक की भाँति रुदन करती हुई मुझे कुछ उत्तर तो दो । भक्ति से दयाशून्य मैं शोक से अपने प्राण शल्य ही समान धारण कर रही हूँ। हे माता! क्या किसी समय शम्भु के द्वारा विहित का स्मरण कर रही हो ?
आपका वही सचन चक्षु, मुख और नासिका से सभी हैं । इन सबके सब विभ्रम इस समय में कहाँ चले गये हैं और आपका वह हसित भी कहाँ चला गया है ? वे भगवान् शम्भु आपके विभ्रमों से हीन, सुन्दर नासिका से युक्त नेत्रों से युग्म वाले मन्द हास से रहित, आपके मुख को देखकर कैसे सहन करेंगे ? हे माता! आपके बिना हर के आश्रम में समागत हुओं को बार-बार सुधा के तुल्य सुवृत वाक्य को कौन कहेंगी ? बान्धवों में श्रद्धा वाली और पति के भावों के वश में अनुगमन करने वाली, सुलक्षणों से पूर्ण उसके समान अब कौन होगी । ‘हे देवी! अब आपके बिना देवेश्वर शम्भु शोक से उपहत चेतना वाले होकर दुःखित आत्मा से युक्त निरुत्साह और चेष्टा रहित हो जायेंगे । इस रीति से विशेष रूप से दुःखित होकर सती के प्रति विलाप करती हुई विजया सती को मृत देखकर अत्यधिक शोक से आहत हो गयी थी। वह ऊपर की ओर भुजाओं को किए हुए विशेष क्रन्दन करती हुई कम्प से संयुत होती हुई भूमि पर गिर गयी थी ।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे दक्षयज्ञ च सतीदेहत्याग नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥