कालिका पुराण अध्याय १७ || Kalika Puran Adhyay 17 Chapter

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कालिका पुराण अध्याय १७ में दक्ष यज्ञ-भंग वर्णन का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय १७              

मार्कण्डेय मुनि ने कहा – इसी बीच में भगवान् शम्भु परम शोभन मानस हद में सन्ध्या वन्दना को समाप्त करके आश्रम की ओर आये हुए थे। वृषभध्वज ने विजया के परम दारुण रूदन की ध्वनि को आते हुए ही श्रवण किया था और फिर वे चकित हो गये थे। इसके अनन्तर भगवान् शम्भु बलवान मन और मारुत के वेग से त्वरान्वित होकर शीघ्र ही अपने आश्रम के स्थान पर प्राप्त हो गए थे। उस समय में हर ने प्यारी दाक्षायणी देवी को मृता देखकर भी अत्यधिक प्रियभाव से मृत होने पर भी त्याग नहीं किया था । इसके उपरान्त मुख को देखकर और बार-बार आमृजन करके यह सोई है इसी प्रकार से दाक्षायणी से बार-बार कैसे पूछा था । इसके उपरान्त भर्ग के वचन का श्रवण करके उसकी बहन – पुत्री विजया ने जिस रीति से दाक्षायणी का निधन कहा था।

विजया ने कहा- हे शम्भु ! प्रजापति दक्ष के यज्ञ करने के लिए इन्द्र सहित सभी देवों को बुलाया था तथा दैत्यों, राक्षसों, सिद्धों और गुह्यकों को भी बुलाया था। ब्राह्मणों, श्री गोविन्द और इन्द्रादिक् पतियों को भी उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए बुलाया था तथा देवयोनि को और समस्त साध्य तथा विद्याधरों को भी बुलाया था । हे शंकर ! जो सत्व थे उसने उनको आहूत नहीं किया था जो कि समस्त भुवनों में भी हैं। यह दाक्षायणी इस प्रकार से प्रवर्तित यज्ञ के विषय श्रवण करके जो कि मेरे वचन से ही श्रवण किया था उसने भगवान् शम्भु का और अपने न बुलाने के हेतु के विषय में विचार किया था । मैंने जैसे भी सुना था उसी के अनुसार चिन्ता करती हुई उस सती का ज्ञान प्राप्त करके, हे भूतेष मैंने ही यज्ञ में न बुलाने का कारण कहा था । वह कारण यही था कि दक्ष ने सोचा था कि भगवान् शम्भु कपाल के धारण करने वाले हैं और उसकी पत्नी भी उनके ही संग होने के कारण से विशेष गर्विता हो गयी हैं । अतएव शम्भु और सती भी मेरे यज्ञ में शामिल नहीं होंगे। यही न बुलाने का हेतु मैंने पहले ही अपनी पत्नी वीरणी को उस मन्दिर में बोलते हुए दक्ष के मुख से ही सुना था । यही मेरे वचन का श्रवण करके वह सती कान्तिहीन मुख वाली होकर भूमि में बैठ गई थी। वह कोप परायण होती हुई मुझसे भी कुछ नहीं बोली थी ।

हे हर ! उसी क्षण उसका मुख क्रोध से युक्त हो गया था और उसकी भृकुटियाँ टेढ़ी हो गई थी तथा उसका मुख ऐसा श्याम पड़ गया था जैसा कि धूमकेतु से आकाश हो जाया करता है। उसने थोड़ी ही देर तक ध्यान करके उसने महान् स्फोट से अपने मस्तक का भेदन कर अपने प्रिय प्राणों का उत्सर्जन कर दिया अर्थात् मृत हो गई थी।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- वृषभध्वज ने विजया के इस वचन का श्रवण करके वे अत्यधिक कोप से प्रज्ज्वलित अग्नि की ही भाँति उत्थित हो गये थे । अत्यधिक कोप से आकुल उनके कान्त, चक्षु, नासिका और मुख से अग्नि की महती ध्वनि का सृजन करती हुई परमघोर जलती हुई कणिकायें निकली थीं। कल्प के अन्त में आदित्य के वर्चस वाली बहुत सी उल्कायें विनिःसृत हो गई थी। इसके अनन्तर वे शम्भु वहाँ पर बहुत ही शीघ्र चले गए थे जहाँ पर महान् तपस्वी दक्ष विद्यमान और यज्ञ कर रहे थे । महान् कोप से आवृत्त होकर भर्ग ने उस यज्ञ का अवलोकन किया था जो महान् धन के वैभव से सुसम्पन्न थे और पात्र धूप आदि युक्त था । वह यज्ञ हवन किया हुए आज्य से वृद्धि युक्त था तथा दीप्त हुई वह्नि से विराजित हो रहा था । शम्भु ने समुचित स्थानों पर संस्थित आयुधों और ध्वजों से युक्त सब दिक्पालों को देखा था ।

उस यज्ञ के मध्य में विधाता की ओर व्यवस्थित भगवान् विष्णु का भी अवलोकन किया था । उन सबको देखकर अतीव कोप से शम्भू कुपित हो गये थे । अपनी-अपनी भार्याओं के सहित भग, सूर्य, सोम, सहस्राक्ष, गौतम, पूर्व भाग में अवस्थित सनत्कुमार, आत्रेय, भार्गव, विनतासुता, मरुद्गण साध्य, आग्नेय जातवेदा को देखा था । काल, चित्रगुप्त, कुम्भ्योनि, गालव, समस्त विश्वदेवा, कव्यवाह आदि पितृगणों को देखा था । समस्त अग्निष्वात आदिक को और चारों प्रकार के भूतग्राम को, सौम, प्रेतगणों को, दक्षिण दिशा में अवस्थित सिद्धों को देखा था । वहाँ पर शम्भु ने राक्षसों को, पिशाचों को, भूतों को, मृग, पक्षियों को, कव्यादों को, क्षूद्र जन्तुओं को तथा पुण्य जनेश्वर को देखा था । महर्षि मौद्गल को, नैऋत्य दिशा में राहु को तथा किन्नरों को, महारगों को, नक्रों को, मत्स्यों को, ग्राहों को, कच्छपों को, सात समुद्रों को, सिन्धु को, नदियों को, तीर्थो को और गुह्यकों को देखा था ।

मानस आदि सब मनुओं को तथा गंगा नदियों को, कामदेव को, मधु को, बसन्त को और अनुगों के सहित वरुण को देखा था । शनैश्चर को, समस्त पर्वतों को जो पश्चिम दिशा में व्यवस्थित थे । प्राणादि पाँचों वायुओं और गणों के सहित समीरण को, कल्पद्रुमों को, हेमवान् पर्वत को और महामुनि कश्यप को देखा था । वायव्य दिशा में कमल व्रति को और फलों को तथा कलानिधि को, अनेक रत्नों को, हेमों को, मनुष्यों को तथा पर्वतों को देखा था। हिमाद्रि जिनमें प्रमुख था और यज्ञ, स्थूल, कर्णादि, बुध, नर, कुबेर के सहित नरवाह यक्षराज, ध्रुव, धर और सोम, विष्णु, अनिल और अनल, प्रत्यूष, प्रभास इन सबको कौवेरी दिशा में समवस्थित हुए देखा था । वृषभध्वज के बिना समस्त रुद्रों को, जीवों को तथा मनुओं को, विविध बाहु से संजात वैश्यों को और सभी ओर शूद्रों को देखा था । ऐशानी दिशा में विविध भाँति के अन्नों को, ब्रीहियों को, तिलों को भी देखा था । ऐशानी और पूर्व दिशा के मध्य में सशित व्रतों से संयुत ब्रह्मर्षियों को देखा था।

चारों महर्षियों को, वेदों को और छै वेदों के अंगों को देखा था । नैर्ऋत्य और पश्चिम दिशा के अन्तःस्थित आनन्द श्वेत पर्वत को देखा था। सहस्त्र काद्रवेय के सहित सात भोगियों को, वहाँ पर ही केतु की ओर डाकिनियों से समन्वित कूष्माण्ड को देखा था तथा नाना वर्णों से संयुत तथा विद्युत के सहित अन्य जलधरों को वहीं पर स्थित दिग्गजों को, जिनमें ऐरावत प्रमुख था भगवान् हर ने देखा था । यथास्थान पर दिक्करिणी से समन्वित सबको देखा था । महान् धन से संयुत उस यज्ञ को दूर ही से देखकर शिव ने वीरभद्र नामक गण को शीघ्र ही उसकी ओर प्रेषित किया था । वह वीरभद्र महागण भी बहुत से अनेक गणों संवृत हुआ था । उसने महात्मा दक्ष के यज्ञ का फिर ध्वंस कर दिया था । उस महान् यज्ञ के विध्वंस करते हुए वीरभद्र को देखकर समस्त देवगणों से आवृत भगवान् वैकुण्ठ ने वरण किया था । उनको निवारण करते हुए देखकर ही ईश्वर के लोचन क्रोध से लाल हो गये वे फिर ईश्वर स्वयं ही उस महायज्ञ में प्रविष्ट हो गये थे और उस यज्ञ का ध्वंस कर दिया था ।

भग आगे से ही उस यज्ञ में प्रवेश करते हुए उनको सर्वप्रथम देखकर अपनी बाहुओं को फैलाकर भगत्वरा से संयुत होकर भगवान् भूतेश के पास गया था । उसको सामने आते हुए देखकर भगवान् भर्ग भी अत्यन्त कुपित हो गये थे और अपनी अंगुलि के अग्रभाग के प्रहार से उन्होंने उस भग के नेत्रों का हनन कर दिया था। नेत्रों से हीन विरुपाक्ष भग को देखकर दिवाकर से त्वरायुक्त होते हुए स्पर्धा करने वाले भगवान् शर्व के समीप आये थे । इसके उपरान्त महादेव ने सूर्य को कर से पकड़कर हाथ से दूर हटाकर अत्यन्त क्रोध युक्त होकर उस यज्ञ की ओर ही धावमान हो गये थे। मार्त्तण्ड (सूर्य) हँसते हुए बड़े वेग के साथ दोनों बाहुओं को फैलाकर कहने लगा आओ, मैं तुम्हारे साथ युद्ध करूँगा । इतना कहकर सूर्य ने उस शिव को आगे चलकर फिर रोक दिया था । हँसते हुए उस सूर्य के दाँतों को वृषभध्वज ने क्रोधयुत होकर हाथ के ही प्रहार से मुख से गिरा दिया था। इस प्रकार से सूर्य को बिना दाँतों वाला तथा भग को हीन मन्त्रों वाला देखकर समस्त देवगण, ऋषि लोग और जो भी वहाँ पर अन्य थे वे सब भाग गये थे ।

भगवान् सब देवगण आदि को भागकर परमाधिक कोप वाले होते हुए वे मृग के रूप से अपमान करते हुए उस यज्ञ को ही पकड़ने के लिए पीछे दौड़े थे । वह यज्ञ भी आकाश के मार्ग के द्वारा ब्रह्मस्थान में प्रवेश कर गया था। वृषभध्वज भी उसके पीछे से कुपित होते हुए ब्रह्मस्थान को गमन कर गये थे। भर्ग से डरा हुआ यज्ञ ब्रह्मा के कहने पर नीचे उतर आया था और अवतरित होकर अपनी माया से सती के देह में प्रवेश कर गया था । भगवान् भर्ग भी मृत हुई दक्ष की दुहिता के निकट चले गये थे उस समय में भर्ग पीछे हो गए थे और वहाँ पर यज्ञ तथा सती के शव को उन्होंने देख लिया था। उस समय भगवान् हर दाक्षायणी देवी सती को मृता देखकर यज्ञ को भूलकर उसके समीप में स्थित हुए उन्होंने बहुत अधिक उस सती के विषय में शोक किया था । शूलपाणि भगवान् शम्भु अनेक प्रकार के सती के गुण गणों का चिन्तन करते हुए उस देवी सती की परमाधिक सुन्दर दाँतों की पंक्ति को, कमल के समान प्रकाशित मुख को, अरुण दर्शन वस्त्र, उसकी दोनों भृकुटियों के जोड़े को देखकर बहुत ही तीव्रतर शोक से व्याकुल होकर रुदन करने लगे थे ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे दक्षयज्ञभंगनाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

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