कालिका पुराण अध्याय १८ || Kalika Puran Adhyay 18 Chapter
कालिका पुराण अध्याय १८ में विजया सखी के शोक विचार, शनैश्चर स्तवन, सती के शरीर के खण्ड-खण्ड होकर गिरना, त्र्यम्बक स्तवन और वृषभध्वज स्तुति का वर्णन है।
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय १८
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- उस अवसर पर भगवान शिव दक्षा के गुणगणों को परिगणन करते हुए हुए अत्यधिक दुःख से प्रपीड़ित होकर प्राकृत मनुष्य की ही भाँति शोकाकुल हो गये थे । उस समय में विलाप करते हुए शिव को जानकर अर्थात् सती के वियोग में शम्भु को रुदन करते हुए देखकर कामदेव, रति और बसन्त के सहित महेश्वर प्रभु के समीप में प्राप्त हो गया था। उस रति के पति कामदेव ने शोक से अत्यन्त परिभ्रष्ट उस शम्भु को जो भ्रष्ट चेतना वाले और रुदन करने वाले थे, एक ही साथ अपने पाँचों बाणों से प्रहार किया था। शोक के कारण अभिहत चित्त वाले भी शम्भु कामदेव के बाणों के प्रहार से व्याकुल होकर अत्यन्त ही संकीर्ण भाव को प्राप्त हो गये थे और उन्होंने बहुत शोक किया था और वे मोह को भी प्राप्त हो गये थे अर्थात् शोक के वेग से मूर्छित हो गये थे । वे एक क्षण में तो शोकाकुल होकर भूमि पर गिर जाया करते थे और एक क्षण में ही उठकर दौड़ लगाते थे । एक ही क्षण में वे भ्रमण करने लगते थे अथवा चक्कर काटा करते थे और फिर वे विभु वहीं पर अपने नेत्रों को निमीलित कर लिया करते थे। किसी समय में देवी दाक्षायणी का ध्यान करते हुए हास करने वाले हो जाते थे अर्थात् खूब अधिक हँसते रहा करते थे । किसी समय में भूमि में लेटी हुई उस सती का आलिंगन किया करते थे मानों वह रस के भावों से युक्त ही स्थित होवे । भगवान शंकर ‘हे सती! हे सती!‘ इस प्रकार से निरन्तर सती के नाम का कथन करके ऐसा कहा करते थे कि अब इस व्यर्थ में किए हुए नाम का परित्याग कर दो। ऐसा कहकर अपने हाथ से उस सती के शव का स्पर्श किया करते थे । शम्भु भगवान् अपने हाथ से इस सती का परिमार्जन करके उसके यथास्थित अलंकारों को विश्लेषित करके अर्थात् शरीर से दूर करके फिर उन अलंकारों को वहाँ पर ही अर्थात् उस सती के मृत शरीर पर अलंकारित किया करते थे । तात्पर्य यह है कि कभी तो आभूषणों को सती के मृत शव से दूर हटा लेते थे और उसी सती को सजीव समझकर आभूषणों को उनके अंगों में धारण कराया करते थे ।
भूतेश्वर भगवान् शम्भु के इस प्रकार से विलाप -कलाप करने पर भी जिस समय में वह मृत हुई सती ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया था तो उस समय भगवान् शिव शोक की उद्गाढ़तापूर्वक अत्यधिक रूदन करने लगे थे। जब वे रूदन करें रहे थे तो उसके आँसू नीचे गिर रहे थे । उस समय में देवगण ने उसको देखा था और वे ब्रह्मादिक देव चिन्ता में परायण होते हुए अत्यधिक चिन्तातुर हो गये थे । भूमि पर गिरे हुए ये वाष्पक अर्थात् आँसू यदि पृथ्वी का दाह कर देंगे तो वहाँ पर क्या उपाय करना चाहिए अर्थात् इन आँसुओं के द्वारा पृथ्वी का दाह का क्या प्रीतकार होगा इससे ये सभी हाहाकार करने लगे थे । इसके अनन्तर ब्रह्मादिक देवों ने शनैश्चर के साथ विचार किया था और उन्होंने भगवान शम्भु के जो मोह के वशीभूत हो गए थे वाष्पों को धारण करने हेतु शनैश्चर का स्तवन किया था।
कालिका पुराण अध्याय १८
मार्कण्डेय ऋषि ने कहा- समस्त देवों द्वारा इस प्रकार से भाषण किए जाने पर सूर्य पुत्र शनैश्चर ने अत्यन्त दयाद्र मन वाला होकर उन देवों को प्रत्युत्तर दिया था ।
शनैश्चर ने कहा- हे सुरों में श्रेष्ठों! अपनी शक्ति के अनुसार ही आपका कार्य करूँगा किन्तु ऐसी ही होना चाहिए कि दाह करने वाले मुझको भगवान् शम्भु न जान लेवें । महान् दुःख और शोक के व्याकुल वाष्पधारी शिव के समीप में उनके कोप से यदि वह जान लेंगे तो मेरा शरीर निश्चय ही नष्ट हो जायेगा- इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है । इस कारण से ऐसा ही करिए कि जिस प्रकार से सती के पति भूतेश्वर शिव मुझको न जान पावें और उनके नेत्रों से मैं पृथक ही बना रहूँ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- – इसके पश्चात् वहाँ से ब्रह्मा आदि समस्त देवता शंकर के समीप में गये थे और सांसारिक योगमाया के द्वारा शम्भु को उन्होंने पुनः अधिक मोहित कर दिया था । शनैश्चर भी उसी समय भूतेश्वर के समीप में पहुंच गया था और उस दुराधर्म वाष्पों की वृष्टि को माया से रोक दिया था। जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी तो वह शनैश्चर भी शम्भु के वाष्पों को धारण करने में असमर्थ हो गया था तो उसके द्वारा जलधारक महागिरि पर वे वाष्प प्रक्षिप्त किय गये थे ।
लोकालोक पर्वत के समीप में जलधारा वाष्प वाला गिरि है जो पुष्कर द्वीप के पृष्ठ में स्थित है। वह तोय सागर के पश्चिम में है । वह सब परिमाण से मेरु पर्वत के सदृश है । उस समय में असमर्थ शनैश्चर ने उस पर ही वाष्पों को विन्यस्त कर दिया था। वह पर्वत भी शम्भु के उन वाष्पों को धारण करने में समर्थ नहीं हुआ था । उन वाष्पों के समुदायों से वह पर्वत विदीर्ण हो गया था और शीघ्र ही मध्य भाग में भग्न हो गया था । उन वाष्पों ने उस पर्वत का भेदन करके वे फिर तोय सागर में प्रवेश कर गये थे । वे वाष्प अतीव क्षार थे कि वह सागर भी ग्रहण करने में समर्थ नहीं हुआ था। इसके अनन्तर सागर को मध्य में भेदन करके वे वाष्प सागर की पूर्व में रहने वाली बेला पर समागत हो गये थे तथा स्पर्श मात्र से उन्होंने उस बेला का भेदन कर दिया था । पुष्कर द्वीप के मध्य में गमन करने वाले ने वाष्प बेला का भेदन करके वैतरणी नदी हो गये थे और पूर्व सागर में गमन करने वाले हो गये थे । जलधारा के भेद से और सागर के संसर्ग से कुछ सौम्यता को प्राप्त होकर फिर उन्होंने पृथ्वी का भेदन नहीं किया था ।
कालिका पुराण अध्याय १८
सती के शरीर के खण्ड-खण्ड होकर गिरना
इसके अनन्तर शोक से विमूढ़आत्मा वाले शम्भु विलाप करते हुए उस मृत सती के शव (मृत देह ) को अपने कन्धे पर रखकर प्राच्य देशों को चले गए थे । एक उन्मत्त की भाँति गमन करने वाले इन शंकर के भाव को देवगणों ने देखकर ब्रह्मा आदि देवगण शव के भ्रष्ट होने के कर्म के विषय में चिन्ता करने लगे थे । भगवान् शंकर के शरीर के स्पर्श से यह शव विकीर्णता को प्राप्त नहीं होगा फिर किस रीति से उस वृषभध्वज के कन्धे से इस शव का भ्रंश होगा। यही चिन्तन करते हुए वे ब्रह्मा विष्णु और शनैश्चर योगमाया से अदृश्य होते हुए सती के शव के अन्दर प्रवेश कर रहे थे । देवों ने इसके उपरान्त सती के शव के अन्दर प्रवेश करके उन्होंने उस सती के शव के खण्ड-खण्ड कर दिए थे और विशेष रूप से स्थान-स्थान में उन खण्डों को भूतल में गिरा दिया था । देवीकूट के दोनों चरणों को सबसे प्रथम भूमि में निपातित किया था । उड्डीपान में दोनों उरुओं के युग्म को जगतों के हित के लिए भूमि पर उसको डाला था ।
कामगिरि कामरूप योनि मण्डल गिरा था और वहाँ पर ही पर्वत की भूमि में सती के शव का नाभिमण्डल गिरा था । जालन्धर में सुवर्ण के हार से विभूषित स्तनों को जोड़ा गिरा था, पूर्वगिरि में अस और ग्रीवा पतित हुए और फिर कामरूप से शिर पतित हुआ था । भगवान् शंकर जितने भूमि के भाग में सती के शव लेकर गये थे उतना ही प्राच्यों में याज्ञिक देश कीर्तित हुआ था । अन्य जो सती शव के अवयव थे वह छोटे-छोटे टुकड़ों में देवों के द्वारा खण्डित कर दिए गये थे । हे द्विजो! जहाँ-जहाँ पर सभी सती के पाद आदि पर्यन्त शरीर के अवयव गिरे थे वहाँ-वहाँ पर ही महादेव स्वयं लिंग के स्वरूप धारण करने वाले हो गये थे और वे मोह से समायुक्त होकर सती के प्रति स्नेह के वशीभूत होकर स्थित हो गये । ब्रह्मा-विष्णु और शनैश्चर ने भी समस्त देवगणों ने परम प्रीति के साथ सती के पाद आदि शरीरावयवों की और ईश की पूजा की थी।
देवीकूट में महादेवी महाभाग, इस नाम से गान की जाया करती हैं । जगत् के प्रभु योगनिद्रा सती के दोनों चरणों में लीन हैं । उड्डीयान में कात्यायनी और कामरूप वाली कामाख्या हैं । पूर्णगिरि व पूर्णेश्वरी है तथा जालन्धर गिरि में चण्डी इस नाम से विख्यात है । कामरूप के पूर्वान्त में देवी दिकुरवासिनी है तथा ललितकान्ता, इस नाम से योगनिद्रा का गान किया जाता हैं। जहाँ पर सती का शिर गिरा था वहाँ पर वृषभध्वज उस शिर का अवलोकन करके लम्बी श्वास लेते हुए शोक के परायण होकर उपविष्ट हो गये थे । भगवान् शंकर के उपविष्ट हो जाने पर वहाँ पर ब्रह्मा आदि देवगण दूर से ही शिव को सान्त्वना देते हुए उनके समीप में गये थे । भगवान् शंकर ने आते हुए देवों का अवलोकन करके शोक और लज्जा से समन्वित होते हुए वहीं पर शिवत्व को प्राप्त होकर लिंग के स्वरूप को प्राप्त हो गये थे । भगवान शंकर के लिंग का स्वरूप प्राप्त हो जाने पर ब्रह्मा आदि देवगणों ने उन लिंग के स्वरूप वाले जगतगुरू त्र्यम्बक भगवान् का वहाँ पर ही स्तवन किया था ।
कालिका पुराण अध्याय १८
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस प्रकार से भली-भाँति स्तवन किए गए जगत् के पति महादेव अपने रूप में समस्थित होते हुए शोक से आहत प्रादुर्भूत हुए थे । उनकी शोक से विह्वल और बिना चेत वाले अर्थात् मन्य मनस्क प्रादुभूर्त हुए देखकर देवों ने शोक के अपहरण करनेवाले विधि वृषभध्वज की स्तुति की थी ।
कालिका पुराण अध्याय १८
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इस रीति से साम के द्वारा स्तुति किए गए शम्भु ने अपने वाँछित का संस्मरण करके भी सती के शोक से बिना कृत हुए शिव ने उस समय में आत्मा का अवधारण नहीं किया था । नीचे की ओर को मुख किए हुए समवस्थित ब्रह्माजी को देखकर उसने धीरे से यह कहा था- हे ब्रह्माजी ! कुछ अतिक्रमण करनेवाली बात कहो। आप बतलाओ, अब मैं क्या करूँ ।
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस प्रकार से वामदेव और समस्त देवों के द्वारा कहे हुए विधना (ब्रह्मा) उस समय मे महेश्वर के शोक का विनाश करने वाला यह वचन कहा था।
ब्रह्माजी ने कहा- हे महादेव ! अपनी आत्मा के द्वारा ही अर्थात् अपने-आप ही अपनी आत्मा अर्थात् अपने वास्तविक स्वरूप का संस्मरण करके शोक का परित्याग कर दो। आप शोक करने के स्थान नहीं हैं। शोक से आपका परम अन्तर हो गया है । हे भूतेश्वर ! आपके शोकयुक्त हो जाने पर सभी देवगण अत्यन्त भयभीत हो गए हैं। आपका क्रोध और शोक जगती-तल को भ्रंश कर देगा और आपका शोक इसका शोषण कर देगा। आपके वाष्पों अर्थात् अश्रुपात से यह सम्पूर्ण पृथ्वी व्याकुल होकर विदीर्ण हो जाती यदि शनि आपके वाष्पों को अवग्रहण नहीं करता। वह शनि भी हठ से कृष्ण हो गया है । जहाँ पर गन्धर्वों के सहित सब देवगण सदा उत्सुकता से युक्त होकर क्रीड़ा किया करते हैं। जो यह सुमेरु पर्वत के सदृश मान से उत्तम पर्वत हैं- पुष्कर, आवर्त्तक आदि जलों का पान किया करते थे-जहाँ पर जा करके महामुनि कुम्भयोनि मन्दार पर्वत से निरन्तर जगत के हित में तपस्या किया करते थे ।
जिस पर्वत में भगवान शम्भु स्थित होकर पूर्व में जल के सागर को हाथ के मध्य में रखकर तप के बल से पी गये थे। शनैश्चर के द्वारा आपके वाष्पों को सहन करने में असमर्थ होते हुए क्षिप्त लोकों से यह जलधारा नामक गिरि विदारित हो गया था । हे शम्भो ! आप वाष्प पर्वत का विशेष रूप से भेदन करके सागर में चले गये थे। वे प्रभीत अण्डजों से सकूल सागर का शीघ्र ही भेदन करके वाष्प उसके पूर्व पुलिन पर चले गये थे और उन्होंने उस पुलिन का भी भेदन कर दिया था । वेला का भेदन करके फिर पृथ्वी का भेदन किया था और उन्होंने एक नदी को बना दिया था । उन्होंने उस वैतरणी नाम वाली नदी को बना दिया था जो पूर्व सागर की ओर गमन करने वाली थी। वह नदी गर्म जल के होने के कारण से अत्यन्त भीषण थी जो किसी भी नौका, विमान, द्रोणी और रथ के द्वारा भी पार करने के योग्य नहीं हो सकी थी । पृथिवी महान् दुःख से साथ अब उसको धारण किए हुए थी । वह सदा ही ऊर्ध्वगत अर्थात् ऊपर की ओर जाते हुए वाष्पों से नभश्चरों का विक्षेपण करती हुई थी और उसके ऊपर से देवगण भी भय से आतुर होकर गमन करते हैं ।
यमराज के द्वार से परावर्तित होकर दोनों जल से विस्तार वाली निम्न होती हुई वह सम्पूर्ण तीनों भुवनों को भय उत्पन्न करती हुई वहन किया करती है । आपके शोक संतप्त निःश्वासों की वायुओं से समस्त पर्वत और कानन व्याप्त हैं और समाकुल द्वीपीनाग आज तक भी प्रतिशयन नहीं किया करते हैं। आपके संतप्त निःश्वासों से समुत्पन्न वायु सम्पूर्ण जगत के सुख को पीड़ित करता हुआ वह बाधाहीन और सनातन आज तक भी शमन को प्राप्त नहीं होता है। सती के शव अर्थात् मृत शरीर को वह करनेवाले आपके पद-पद में यह पृथ्वी शीर्यमाण हो रही है और वह परम व्याकुल पृथ्वी अपनी व्याकुलता का मोचन नहीं कर रही है। इस समय न तो पाताल में और न स्वर्ग में वह सत्व विद्यमान है जो आपके क्रोध से और शोक से हे वृषभध्जव! व्याकुल न होवे। इसी कारण से आप शोक और अमर्ष को परित्याग करके हम सब को शान्ति का प्रदान करो। अपनी आत्मा के द्वारा ही अपनी आत्मा को जानिये अर्थात् स्वयं ही अपने आपके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कीजिए और आत्मा से ही आत्मा को धारण करिए और वह सती दिव्यमान से सौ वर्षों के व्यतीत हो जाने पर त्रेता युग के आदि में वही सती पुनः आपकी भार्या होगी ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- ब्रह्माजी के द्वारा इस रीति से कहे हुए शम्भु नीचे की ओर मुख वाले, ध्यान में परायण होकर अमित ओज वाले ब्रह्माजी से बोले-हे ब्रह्मण! जब तक मैं सती के द्वारा किए हुए शोक से उत्तीर्ण होऊँ तब तक आप मेरे सखा हो व शोक का अपमोदन करिये। हे ब्रह्माजी ! उस अवसर पर मैं जहाँ-जहाँ पर भी गमन करूँ वहाँ-वहाँ पर भी आप भी गमन करके मेरे इस दुस्सह शोक की हानि करिए । तात्पर्य यही है कि मेरे ही सर्वदा साथ रहकर जहाँ पर भी मैं जाऊँ वहीं पर मेरे शोक का विनाश करने की कृपा करें। लोकेश ब्रह्माजी ने ‘ऐसा ही होवे‘ यह वृषभवाहन से कहकर अर्थात् मैं आपके साथ में सर्वत्र रहकर आपके शोक का विनाश करूँगा। फिर ब्रह्माजी ने भगवान् शम्भु के ही साथ में कैलाश गिरि पर जाने का मन किया था । ब्रह्माजी के साथ भगवान शम्भु को कैलाश पर्वत की ओर गमन करने के लिए उत्सुक देखकर जो नन्दी और भृङ्गि आदिगण थे वे भी यह देखकर वहाँ प्राप्त हो गये थे। फिर एक विशाल पर्वत के ही समान वृषभ विधाता के सामने उपस्थित हो गया था जिस तरह से सिताभ के सदृश गैरिक होवे । वासुकि आदि जो शर्व थे उन सबने यथास्थान पर भगवान् शम्भु की बहुत शीघ्र वहाँ आकर शिव के शिर और बहु आदि से उनको विभूषित कर दिया था । कथन का अभिप्राय यही है कि वासुकी प्रभृति सब सर्प वहाँ आकर शिव के करादि अंगों के आभूषण हो गये थे।
इसके अनन्तर ब्रह्मा, विष्णु और सती के पति महादेव समस्त देवों के समूह के साथ हिमवान् पर्वत पर चले गए थे। इसके पश्चात् गिरि अपने नगर से निकलकर उन औषधियों के प्रस्थों को अपने आत्माओं के सहित सुरोत्तमों के सामने उपस्थित हुए थे। इसके अनन्तर उस गिरिराज के द्वारा वे सभी सुरगण पूजे गये थे और सबका एक ही साथ अभ्यर्चन किया गया था । वहाँ पर उस देवों के यजन करने में सभी सचिव और पुरवासीगण भी सम्मिलित थे । सुरगण ही बहुत प्रसन्न हुए थे। फिर वहीं पर उस गिरीन्द्र के नगर में भगवान् हर ने उस औषधियों के प्रस्थ पर सखियों के साथ गौतम की आत्मजा विजया का अवलोकन किया था ।
उसने भी उन समस्त सुरों को प्रणिपात करके हर से कहा था । गिरीश से अपनी माता की भगिनी सती के विषय में पूछती हुई ने क्रोध किया था । हे महादेव! आपकी वह सती कहाँ पर है मेरे हृदय से दुःख दूर नहीं हट रहा है । मेरे ही आगे पहले समय में उसने जिस समय में कोप से प्राणों को त्यागती है उसी समय में शोकरूपी शल्य से विद्ध होकर सुख को प्राप्त नहीं करती हूँ । इतना कहकर वस्त्र के छोर से मुख को ढककर अधिक रूदन करती हुई भूमि पर गिर पड़ी थी और बहुत दुःख को प्राप्त हो गई थी ।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे विजयाशोकोद्गार सतीतनविच्छेद शनैश्चर त्र्यम्बक वृषभध्वजस्तवन नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥