कालिका पुराण अध्याय १९ || Kalika Puran Adhyay 19 Chapter
कालिका पुराण अध्याय १९ में क्षिप्र पर्वत, क्षिप्रा नदी की कथा और संध्या तपश्चर्या का वर्णन है।
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय १९
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके पश्चात् उस समय में दाक्षायणी का स्मरण करते हुए उसको भूमि पर गिरी हुई देखकर उस समय में शोक से समुत्पन्न उद्वेगयुक्त रञ्ज को शिव सहन न कर सके थे । जिनका धीरज एकदम ही नष्ट हो गया था ऐसे भगवान् शम्भु वाष्पों से व्याकुल लोचनों वाले गए थे अर्थात् उनके नेत्रों से अविरल अश्रु प्रवाह चलने लग गया था। सभी देवों के देखते हुए वे भगवान् शिव चिन्ता के ध्यान में तत्पर हो गये थे। इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने शोक से कथित विजया को ढाढ़स बँधाकर फिर भगवान् शंकर को समाश्वासन देते हुए सान्त्वना से साथ यह वचन कहने लगे थे ।
ब्रह्माजी ने कहा- भगवान्! आप पुराने योगी हैं। आपको ऐसा शोक करना युक्त प्रतीत नहीं होता है। आपका ध्यान तो परधाम में ही था फिर यहाँ पर सती में कैसे हो गया ? आप तो निरञ्जन हैं और आप बड़े-बड़े यतियों के ध्यान में जानने के योग्य हैं। आप पर से भी पर हैं, आपका स्वरूप निर्मल है तथा आप सर्वत्र गमन के स्वभाव एवं शक्ति से समन्वित हैं । जो राग और लोभ आदि मल हैं उन मलों से आप विहीन रहने वाले हैं। ऐसा ही आपका स्वरूप है उसे ही आप अपनी बुद्धि से ग्रहण कीजिए ।
प्राणी के अन्दर रहने वाले ज्ञान के विनाश करने वाले निम्नलिखित चौदह दोष हुआ करते हैं । वे ये हैं-शोक, लोभ, क्रोध, मोह, हिंसा, मान (मैं बहुत ही महान् हूँ, ऐसा मान मन में रखना), दम्भ अर्थात् याषाणु, मद, प्रमोद, ईर्ष्या, असूया, अक्षान्ति और असत्यता । आप तो विष्णु के ही स्वरूप वाले जगतों के विधाता हैं अर्थात् जगतों की रचना करने वाले हैं। जो भी आपको महान् मोह कर देने वाली सती हैं, यह तो आपकी ही लोकों के मोह के लिए माया है। जो समस्त लोकों को जन्म में और गर्भ में पूर्व देह की बुद्धि को विमोहित करती हुई, विनाश करके बाल्य अवस्था में जन्तु का पालन किया करती है आज वह भी शोक से सहित आपको विमोहित कर रही है। प्रत्येक कल्प में पहले आपने सहस्त्रों सतियों का त्याग किया था जो मृत हो गई थीं । इस प्रकार से चर-अचर लोक के हित के ही सम्पादन करने के लिए उसी भाँति आपके द्वारा यह सती पुनः ग्रहण की गई थी। हे वृषभध्वज ! आप ध्यान के योग द्वारा देखिए दूसरे जन्म में जो सहस्त्रों सतियां मृत हुई हैं आप यथा तथा परिवर्जित हैं अथवा जैसी की तैसी वह हैं । क्योंकि वह पुनः समुत्पन्न होकर हे ईश ! वह आपको ही प्राप्त करेगी । जो आप देवगणों के द्वारा भी दुष्प्राप्य होते हैं और फिर वह जैसी जाया आपको होने वाली है । यह सभी कुछ आप ध्यान के योग द्वारा देख लीजिए ।
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस रीति से ब्रह्माजी ने बहुत प्रकार से ज्ञान को भगवान् शंकर से कहा था। फिर उस गिरिराज ने नगर से उनको निर्जन स्थान में गत कर दिया था। इसके उपरान्त हिमवान् के प्रस्थ में और उनके नगर के पश्चिम दिशा में द्रुहिण आदि ने शिव नाम वाला परिपूर्ण एक सरोवर देखा था । उस परम एकान्त स्थान की प्राप्ति करके ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवों ने वहाँ पर उपसेवन किया था अर्थात् वहाँ पर बैठ गए थे और जैसा भी न्याय था उसी के अनुसार उन्होंने महेश्वर को अपने आगे बिठा लिया था। वह शिव नाम वाला सरोवर बहुत ही सुन्दर था जो सभी देहधारियों में मन को हरण करने वाला था । उसका जल ठंडा और निर्मल था । वह सरोवर अपने सभी गुणों से मानस सरोवर के तुल्य था । भगवान् शम्भु उस सरोवर को देखकर एक क्षण पर्यन्त उसके देखने में उत्सुकता से रुक गए थे। उसी सरोवर से एक शिप्रा नाम वाली नदी निकली हैं और वह दक्षिण सागर को जा रही थी, जो जगत् के जनों को पावन कर रही थी, ऐसा उन्होंने वहाँ पर देखा था । उस पूर्ण सरोवर के पास जाकर अनेक देशों से समागत हुए परमाधिक सुन्दर दर्शन करते हुए बहुत से पक्षियों को शम्भु ने अवलोकन किया था ।
वहाँ पर विराजित होकर उन्होंने गम्भीर वायु से एवं सम्पन्न तरंगों में चक्रवाक के जोड़ों को नृत्य करते हुए देखा था । उन शम्भु भगवान चक्षुओं से तरंगों को पृथक-पृथक देखा था जिस तरह से जल पुन: उत्पन्न करते हुए पक्षियों को देखा हो । प्रत्येक तट पर श्रेणी में आबद्ध हुए कादम्ब, सारस और हंसों के द्वारा अंगीकृत वह सागर जैसा हो वैसा ही वह सरोवर था । जिसको शिव ने देखा था । बड़े-बड़े मत्स्यों से युक्त अर्थात् बड़ी मछलियों के उछालों से क्षोभ को प्राप्त हुए जल के शब्द से भय उत्पन्न होने वाले पक्षियों के द्वारा विहित शब्द वहाँ पर हो रहा था । वहाँ पर उस मन के हरण करने वाले दृश्य का अवलोकन किया था । विकास को प्राप्त हुए कमलों से और वहीं पर मनोहर जलों से वह सरोवर परम शोभित हो रहा था। जिस तरह से स्थूल और सूक्ष्म नक्षत्रों से स्वर्ग शोभयमान हुआ करता था । बड़े-बड़े कमलों के मध्य में विरले ही नीलकमल उसमें दिखलाई दे रहे थे और वह ऐसे ही शोभा से संयुक्त थे जैसे नक्षत्रों के मध्य में नीलमेघ का खण्ड शोभित हुआ करता है ।
पद्मों के समूह के मध्य में संस्थित हम किन्हीं के द्वारा प्रस्तुत नहीं हो रहे थे क्योंकि उनमें भी विकसित कमलों की भ्रान्ति होती थी । अर्थात् उन हँसों को भी जो कमलों के बीच में स्थित थे खिले हुए कमल की समझा जा रहा था । वे स्वर्गवासियों के द्वारा निश्चल ही दिखाई दे रहे थे। दो प्रकार के रक्त और शुक्ल वर्ण के विकसित पद्मों को देखकर ब्रह्माजी ने अपने आसन के कमल में काम में उत्फुल्लल्व और अरुणत्व की अर्थात् विकास और लालिमा की निन्दा की थी। महादेवजी ने उस सरोवर के विकसित महोत्पल का अवलोकन करके उन्होंने हाथ में स्थित कमल का कुछ भी मान नहीं किया था क्योंकि वह हाथ के कमल की कान्ति मस्तक में स्थित चन्द्रमा की कान्ति से मलिन हो गया था । भगवान् हरि ने अपने सुदर्शन चक्र से सूर्य की किरणों से विकसित हाथ में रहने वाले कमल को ओर सरोवर के पद्म को सब ओर देखकर सदृश ही माना था। उस सरोवर को जो नाना भाँति के पक्षियों से समाकुल, सम्पूर्ण सैकड़ों ही कमलिनिओं से संच्छन्न ( ढका हुआ ) और नीलोत्पलों के समूह से युक्त था, देखा था । वह सरोवर तट पर देवदारु के वृक्षों के प्रसूनों में रहने वाले परागों से सुगन्धित जल से समन्वित था और देखने वालों के हृदय को महान आनन्द को उत्पन्न करने वाला था । उस सरोवर के प्रत्येक तट पर महान विशाल वृक्ष थे और वह शाद्वलों से भी परिवारित था अर्थात् उसके किनारे शाद्वलों से चारों ओर घिरे हुए थे। ऐसे उस सुन्दर सरोवर की शोभा को देखकर शम्भु क्षण भर के लिए उत्सुकता से युक्त तथा शोक से रहित हो गये थे । तात्पर्य यही है कि उस सरोवर की सुषमा से शम्भु का शोक मिट गया था और एक विशेष उत्सुकता उनके हृदय में उत्पन्न हो गई थी।
कालिका पुराण अध्याय १९
क्षिप्र पर्वत और क्षिप्रा नदी की कथा
भगवान् महेश्वर ने उस सरोवर से निकली हुई शिप्रा नदी का अवलोकन किया था जिस प्रकार से इन्द्र मण्डल से भागीरथी गंगा और मेरु पर्वत से जम्बु नदी निकलती है, उसी भाँति भगवान् शम्भु से शिप्र से शिप्रा को विनिसृत किया था।
ऋषियों ने कहा- शिप्र नाम वाला सरोवर कौन-सा है और किस प्रकार से उससे शिप्रा नदी निःसृत हुई थी ? इसका प्रभाव किस प्रकार का है, यह सभी कुछ आप विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे मुनिगणों! अब आप लोग श्रवण कीजिए कि जिस प्रकार से शिप्रा नदी निःसृत हुई थी। हे महाभागों ! यह भी सुनिए कि उस शिप्रा का क्या प्रभाव है क्योंकि मैं यह सभी आप लोगों को बतला रहा हूँ। जिस समय से वशिष्ठ जी ने देवी अरुन्धती का विवाह किया था । हे द्विजो ! उसी समय में वैवाहिक जनों से शिप्रा नदी समुत्पन्न हुई थी । वह समागत होकर शासन से शिप्र सरोवर में गिरी थी जिस प्रकार से भागीरथीं गंगा भगवान विष्णु के चरणों से शिव जल वाली सागर में पतित हुई थी ।
पहले समय में देवों के उपयोग करने के लिए ही धाता ने इसका विशेष निर्माण किया था जो हिमवान् के शिखर पर एक महान शिप्र नाम वाला सरोवर है । वहाँ पर आज भी अप्सरागणों के सहित इन्द्र देव अपनी शची को साथ में लेकर उस परम शुभ जल में रमण किया करते हैं । आज तक भी वह देवों के द्वारा एक रत्न की ही भाँति सर्वदा यत्न के साथ रक्षित हुआ करता है । वहाँ पर तप के प्रभाव से मुनिगण इस परम शुभ सरोवर में गमन किया करते हैं। महान् यत्न से ही वे लोग शिप्रा नाम वाले सरोवर के उसके जल में स्नान करने के लिए तथा पान करने को जाया करते हैं । वहाँ पर मनुष्य हैं जो योग से उसके जल का स्नान तथा पान करके अविकल इन्द्रियों वाले होते हुए अवश्य ही देव के स्वरूप को प्राप्त हो जाया करते हैं । हे द्विजोतमों! यह सरोवर वर्षा ऋतु में भी वृद्धि को प्राप्त नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि अन्य प्राकृत जलाशयों के समान यह सरोवर का जल नहीं बढ़ा करता है और यह गर्मी की ऋतु में शोषण को भी प्राप्त नहीं हुआ करता है । यह तो सर्वदा ही जैसा है वैसा ही रहा करता है। न घटता है और न कभी बढ़ता ही है ।
हे द्विजश्रेष्ठों ! शिप्र के गर्भ के मध्य में स्थित जल प्रतिदिन बढ़ता था। वहाँ पर उस बढ़े हुए जल को पहले भगवान् हरि ने अपने चक्र के द्वारा लोकों की भलाई करने की भावना से गिरि के शिखर का भेदन करके उस नदी को परमपुण्य करके पृथ्वी की ओर प्रेरित कर दिया था। जाह्नवी गंगा के ही समान फल देने वाली वह नदी स्नान करने वालों को पवित्र करती हुई दक्षिण सागर को चली गयी थी । क्योंकि वह नदी शिप्र नाम वाले सरोवर से ही समुत्पन्न हुई थी अर्थात् वह महानदी शिप्र से निकली थी अतएव उसका ‘शिप्रा‘ यह शुभ नाम पूर्व में ही ब्रह्माजी ने रखा था। जिसमें कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि के दिन जो भी कोई मनुष्य स्नान किया करता है वह मनुष्य अत्यन्त देदीप्यमान विमान के द्वारा भगवान् विष्णु के लोक में गमन किया करता है । तात्पर्य यही है कि इस महानदी में कार्तिक मास की पूर्णमासी में स्तवन करने का ऐसा फल हुआ करता है कि वह सीधा विष्णु लोक की प्राप्ति कर लिया करता है। पूरे कार्तिक मास में शिप्रा नदी के जल में जो भी मनुष्य स्नान किया करता है वह सीधा ही ब्रह्माजी के लोक को चला जाया करता है और कुछ समय तक वहाँ दैविक सुखों का भोग करके पीछे संसार के जन्म और मृत्यु के निरन्तर आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति कर लिया करता है।
ऋषिगणों ने कहा- महामुनि वशिष्ठ जी ने किस प्रकार से अरुन्धती देवी के साथ विवाह किया था ? हे ब्रह्मण, वह अरुन्धती किसकी पुत्री समुत्पन्न हुई थी ? यह सभी आप कृपा करके हमको वर्णन करके समझाइए ।
वह परमश्रेष्ठा देवी अरुन्धती तीनों लोकों में पतिव्रता नारियों में बहुत ही अधिक प्रसिद्ध हुई थी। वह ऐसी ही पतिव्रता नारी थी कि अपने पतिदेव के चरणों के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्थान में अपने नेत्रों से नहीं देखा करती थी। जिस देवी अरुन्धती को केवल कथा का ही श्रवण करके जो कि महात्म्य के सहित स्त्रियाँ स्मरण करके यहाँ सतीत्व को प्राप्त करती हुई मर कर भी अन्य जन्म में भी सतीत्व को प्राप्त किया करती हैं । कालधर्म को समासन्न होने वाला पुरुष जिसका दर्शन नहीं किया करता है तथा जो भी शुचि होता है वह पुरुष पापकारी होता है । वह देवी के जन्म का वर्णन आप हमारे समझ में करने की कृपा करिए।
मार्कण्डेय ऋषि ने कहा था- आप लोग भली-भाँति श्रवण कीजिए जैसें वह समुत्पन्न हुई थी और जिस प्रकार से उस देवी ने अपने पति के स्वरूप वशिष्ठ मुनि को प्राप्त किया था और जो वह प्रसिद्ध पतिव्रता हुई थी। जो सन्ध्या पहले ब्रह्माजी पुत्री मन से ही समुत्पन्न हुई थी उसने तपस्या का तपन किया था और वहीं शरीर का त्याग करके पीछे अरुन्धती नाम वाली हुई थीं। वह मेधातिथि की पुत्री होकर वह सती ब्रह्मा, विष्णु और महेश के वचन से सचरित्र व्रत वाली मुनियों में श्रेष्ठ की सती हुई थी। उसने ही संशित व्रतों वाले महात्मा वशिष्ठ का पति के स्वरूप में वरण किया था अर्थात् स्वयं ही वशिष्ठ को अपना पति बनाना स्वीकार किया था ।
ऋषियों ने कहा- उस संध्या ने किस प्रयोजन की सिद्धि के लिए कहाँ पर किस प्रकार से तप किया था? फिर क्यों अपने शरीर का परित्याग किया था और वह कैसे मेधातिथि की पुत्री होकर समुत्पन्न हुई थी ? कैसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश देवों के द्वारा कहे हुए परम संशित वाले सुन्दर महात्मा वशिष्ठ मुनि को उसने पति के स्थान में वरण किया था ? हे द्विजोत्तम! इस चरित्र को श्रवण करने की इच्छा वाले हमको यह सब विस्तार के साथ कहने की कृपा कीजिए । महासती अरुन्धती देवी के चरित्र के सुनने के लिए हमारे हृदय में बड़ा भारी कौतुहल हो रहा है।
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- ब्रह्माजी ने भी पहले अपनी पुत्री सन्ध्या को देखकर कामवासना के लिए अपना मन किया था और फिर सुता का त्याग कर दिया था । काम के उस प्रकार के भाव को जो मुनियों के हृदय में भी मोह के करने वाला है वहाँ पर उसको सन्ध्या ने स्वयं ही देखा था । तब वह परम दुःखिता होकर लज्जा को प्राप्त हो गई थी अर्थात् स्वयं ही लज्जा आ गई थी ।
इसके अनन्तर ब्रह्माजी के द्वारा कामदेव को शाप दे देने पर तथा विधाता के अन्तर्धान हो जाने पर और भगवान् शम्भु अपने स्थान पर चले जाने पर वह मनस्विनी सन्ध्या एक क्षण पर्यन्त शीघ्र ही पूर्व में होने वाले वृत्त का ध्यान करती हुई वह सन्ध्या परायण हो गई थी । इस महापाप का प्रायश्चित मैं स्वयं ही करूंगी और वेद मार्ग के अनुसार अपने आपको अग्नि में हवन कर दूँगी अर्थात् अग्नि में जलकर अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगी । इस भूमण्डल में मैं एक प्रकार की मर्यादा की स्थापना करूँगी कि जिससे उत्पन्न होते ही शरीरधारी कामदेव से युक्त न होवे। इसी के लिए मैं परमाधिक दारुण अर्थात् कठिन कष्टप्रद तप का समाचरण करके मर्यादा की स्थापना करके ही इसके पश्चात् अपने जीवन का त्याग करूँगी। जिस मेरे शरीर में मेरे पिता ब्रह्माजी ने अपने मन को अभिलाषा से समन्वित स्वयं किया था जब उस शरीर से भाइयों के साथ कुछ प्रयोजन भी नहीं है । जिस अपने शरीर के द्वारा सहज स्वीय तात में काम का भाव उद्भावित कर दिया गया था वह शरीर कभी सुकृत की साधना करने वाला नहीं है । इस प्रकार से संध्या मन के द्वारा भली-भाँति चिन्तन करके वह परम श्रेष्ठ पर्वत पर चली गयी थी जो चन्द्रभाग नाम वाला था और जिससे चन्द्रभाग नाम वाली नदी निकली थी। सवर्ण समान और समुदित चन्द्र से जिस रीति से उदयपर्वत निरन्तर शोभित हुआ था ठीक उसी भाँति उस संध्या के द्वारा वह पर्वत उस समय समाधिष्ठित हुआ और शोभित हुआ ।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे क्षिप्रवर्णन नाम ऊनविंशतितमोऽध्यायः ॥ १९ ॥