कालिका पुराण अध्याय २० || Kalika Puran Adhyay 20 Chapter
कालिका पुराण अध्याय २० में चन्द्रमा को शाप का वर्णन है।
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय २०
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर उस श्रेष्ठ पर्वत की ओर गमन की गयी संध्या को देखकर जो कि तपश्चर्या करने के लिए नियत आत्मावाली थी, ब्रह्माजी ने अपने सुत से कहा था । वह पुत्र वशिष्ठ मुनि थे । वशिष्ठ संशित आत्मावाले, सब कुछ ज्ञान रखने वाले, ज्ञानयोगी, समीप में ही सुसमासीन और वेदों तथा वेदों के अंग शास्त्रों में पारगामी थे ।
ब्रह्माजी ने कहा- हे वशिष्ठ! आप जाइए जहाँ पर मनस्विनी सन्ध्या ने गमन किया है। वह संध्या तपस्या करने के लिए इच्छा रखने वाली हैं। आप जाकर इसको विधि के अनुसार दीक्षा दीजिए । पहले यहाँ पर कामुकों को देखकर उसको लज्जा हो गयी थी । हे मुनिश्रेष्ठ! उसने आपको, मुझको और अपने आपको सकाम ही देखा था अर्थात् सभी के अन्दर कामवासना का अवलोकन किया था । पूर्व में होने वाले आयुक्त रूप ने संयुत कर्म को विचार करके वह हमारे और अपने भी प्राणों का भली-भाँति परित्याग करने की इच्छा करती है । इस प्रकार से जो मर्यादा से रहित पुरुष हैं उनमें वह तपश्चर्या के द्वारा ही मर्यादा की स्थापना करेगी। वह साध्वी तपस्या करने के लिए ही इस समय चन्द्रभाग पर्वत पर गई है । हे तात! वह तपस्या के किसी भी भाव को नहीं जानती है इस कारण से वह जिस प्रकार से उपदेश को प्राप्त कर लेवे आप वैसा ही करिए ।
आप भी अपने इस वर्तमान रूप का परित्याग करके अन्य रूप धारण करके उसके समीप में तपश्चर्या का निर्देश कीजिए। आपके इस स्वरूप को देखकर पूर्व में जैसे वह लज्जा को प्राप्त हुई थी उसी भाँति अब लज्जा को पाकर आपके आगे वह कुछ भी नहीं कहेगी। आप अपने रूप का त्याग करके ही अन्य रूप वाले बन जावें । फिर उस महाभाग वाली सन्ध्या के लिए उपदेश देने को गमन करें।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा-‘ – ‘ऐसा ही होगा‘, यह कहकर वशिष्ठ भी जटाधारी ब्रह्मचारी बन गये जो एकदम तरुण था । मुनि वशिष्ठ चन्द्रभाग पर्वत पर उस संध्या के समीप में गये थे वहाँ पर देवसर ऐसे परिपूर्ण था जैसे गुण में मानसरोवर ही होवे । इसके उपरान्त उस वशिष्ठ मुनि ने इस सरोवर के तट पर गमन करती हुई उस सन्ध्या को देखा था । वह कमलों से समुज्जवल सरोवर तट पर समवस्थित उसके द्वारा उसी भाँति शोभयमान हो रहा था जैसे प्रदोष के समय उगे हुए चन्द्रमा और नक्षत्रों से युक्त आकाश शोभित होता है । वहां पर उसको देखकर कौतुक के सहित मुनि ने सम्भाषण किया था । वहाँ पर मुनि ने वृहल्लोहित नाम वाला सरोवर भी देखा था ।
उस सरोवर से चन्द्रभागा नदी दक्षिण सागर को जाती हुई थी जो उस पर्वत के महान शिखर का भेदन करके ही जा रही थी। वह नदी चन्द्रभागा पश्चिम शिखर का भेदन करके ही वहन कर रही थी जैसे हिमवान् पर्वत से गंगा सागर को गमन करती है।
ऋषियों ने कहा- हे विपेन्द्र! चन्द्रभागा उस महागिरि में कैसे समुत्पन्न हुई थी । वह सर भी कैसा था जिसका नाम वृहल्लोहित है । वह चन्द्रभाग नाम वाला पर्वत पर्वतों में श्रेष्ठ कैसे हुआ था और चन्द्रभागा नाम वाली वृषोदका नदी किससे उत्पन्न हुई थी? इस सबके श्रवण करने की इच्छा होते हुए हमारे हृदय में बड़ा भारी कौतुक है । हम चन्द्रभागा का महात्म्य तथा गिरि केसार का महत्व भी सुनना चाहते हैं ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे मुनिसत्तमों ! अब आप लोग चन्द्रभागा की उत्पत्ति और चन्द्रभागा का महात्म्य तथा नामकरण भी श्रवण कीजिए। हिमवान् पर्वत से संयुक्त अर्थात् लगा हुआ, सौ योजन के विस्तार वाला और तीस योजन आयाम अर्थात् चौड़ाई वाला एक कुन्द तथा इन्दु के समान धवल श्वेत गिरि है ।
उस पर्वत का पहले विधाता ने शुद्ध सुधा के निधि चन्द्रमा को विभाग करके उसे पितामह देवान्न कल्पित किया था । कमल के आसन वाले ब्रह्माजी ने उसी भाँति पितृगण के लिए तिथियों की क्षीणता व वृद्धि के स्वरूप वाला जगत के हित सम्पादन के लिए कल्पित किया था । हे द्विज श्रेष्ठो ! उस जीमूत में चन्द्रमा विभक्त किया गया था । इसीलिए देवों ने पहले समय में उस गिरि को नाम से चन्द्रभाग किया था ।
ऋषियों ने कहा-यज्ञों के भागों में स्थित रहने पर तथा क्षीरसागर से समुत्पन्न अमृत के रहने पर कमलासन (ब्रह्मा) ने किसलिए चन्द्र का देवान्न किया था ? उसी भाँति क्रम के रहते हुए किस कारण से पितृगण के लिए उसे कल्पित किया गया था ? हे ब्रह्मन् ! यह हमको बड़ा संशय हो रहा है । उसको आप हमको सूर्य की ही भाँति छेदन करिए । द्विजोत्तम! आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी इसका छेदन करने वाला नहीं है ।
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- प्राचीन समय में प्रजापति दक्ष के परमसुन्दरी सत्ताईस अश्विनी आदि अपनी पुत्रियों को सोम के लिए प्रदान की थीं। उन समस्तों को ही विधि के साथ सोम ने अपने साथ विवाह लिया था । उस समय में दक्ष के अनुमत में वह सोम सबको अपने स्थान में ले गया। इसके अनन्तर चन्द्र उन समस्त कन्याओं में राग से रोहिणी के ही साथ निवास करता था और रसोत्स व कला आदि के द्वारा रमण किया करता था । वह सोम केवल रोहिणी का ही सेवन किया करता था और रोहिणी के साथ ही आनन्द मनाया करता था। रोहिणी के बिना सोम कुछ भी शान्ति की प्राप्ति नहीं किया करता था । रोहिणी ही परायण रहने वाले चन्द्र को देखकर वह सब कन्याएं अनेक प्रकार के उपचारों के द्वारा चन्द्रमा की सेवा करने लगी थीं । प्रतिदिन उनके द्वारा निषेवित होते हुए भी चन्द्र ने उनमें कुछ भी भाव नहीं किया था तो उस समन में वे सब अमर्ष के वश में समागत हो गयी थीं। इसके अनन्तर उत्तराफाल्गुनी नाम वाली, भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मघा, विशाखा, उत्तराभाद्रपद, ज्येष्ठा और उत्तराषाढ़ा ये नौ बहुत ही अधिक कुपित हो गयी थीं। वे सब चन्द्र के समीप जाकर चारों ओर से कहने लगी थीं ।
निशानाथ को परिवृत करके फिर उन्होंने रोहिणी को देखा था जो उस चन्द्रमा के वाम अंक में स्थित थी और उसके द्वारा अपने मण्डल में रमण करने वाली थी। उन सबने उस वर्णिनी रोहिणी को उस प्रकार की देखकर वे सब हवि से हुताशन की भी भाँति क्रोध से अत्यधिक जल गयी थीं। इसके अनन्तर जिसके तीन पूर्व में है ऐसी पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषा के सहित मघा, भरणी और कृत्तिका ने चन्द्र की गोद में स्थित महाभागा रोहिणी को हठ से पकड़कर ग्रहण कर लिया और वे अतीव कुपित होती हुई रोहिणी के प्रति कठोर वचन कहने लगी थीं । हे पुरी बुद्धि वाली ! तेरे जीवित रहते हुए चन्द्र हम लोगों में बिल्कुल भी अनुराग नहीं करता। जब भी किसी समय में यह चन्द्र सुरत में उत्सुक होकर समुपस्थित होगा तभी बहुतों के क्षेम की वृद्धि के लिए हम उस दुष्ट बुद्धि वाली का हनन कर देंगी । तुझको मारकर हमको कुछ भी पाप नहीं होगा क्योंकि तू बहुत सी स्त्रियों के प्रजनन का हनन करने वाली तथा बिना ही ऋतुकाल के पाप करने वाली है । जिस अर्थ के विषय में पहले ब्रह्माजी ने अपने पुत्र के प्रति कहा था। नीति शास्त्र के उपदेश के लिए वह निश्चय ही हमारा सुना हुआ है ।
दोषयुक्त कर्म करने वाले किसी एक दुष्ट के जहाँ पर प्रवृत्त हो जाने से यदि बहुतों का क्षेम होता है तो उसका वध पुण्य ही प्रदान करने वाला हुआ करता है वहाँ किसी भी पाप के होने का तो प्रश्न ही नहीं होता है । जो स्वर्ण की चोरी करने वाला है, जो मदिरा का पान करने वाला है, जो ब्राह्मण की हत्या करने वाला है, जो गुरुपत्नी के साथ संगम करने वाला है और जो अपने आपका घात करने वाला हो, इन सबका वध करना पुण्य ही प्रदान करने वाला होता है।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- उन सबके इस प्रकार के अभिप्राय को समझकर और कर्म को देखकर तथा भय से डरी हुई रोहिणी को देखकर जो उसकी अत्यधिक प्रिय और मन को रमण करने वाली परम सुन्दरी थी, उस सबसे सम्भोग को न करने से उत्पन्न क्षोभ व अपने आपको अपराधी सोचकर उस डरी हुई रोहिणी को उनके हाथ से मोचन कर दिया था अर्थात् छुड़ा लिया था । उस चन्द्र ने रोहिणी को छुड़ाकर अपनी दोनों बाहुओं से उसका (रोहिणी) भली-भाँति आलिंगन करके उस चन्द्र ने जो कृत्तिका आदि भामनियाँ थी उस सबका धारण कर दिया था । इस भाँति इन्दु का धारण करती हुई कृत्तिका आदि से लेकर मघा से अन्त तक भामिनियों ने उस रोहिणी को देखती हुई को मनस्विनियों से साम्य वचन कहे थे । हे निशानाथ ! हम सबका निरसन करने वाले आपको न तो कुछ लज्जा ही है और न पाप से कोई डर ही है। आप तो एक प्राकृत अर्थात् साधारण जन की ही भाँति बरताव कर रहे हैं ।
हम सब चारित्र व्रत के धारण करने वाली है अर्थात् हमारे अन्दर चरित्र सम्बन्धी कोई भी दोष नहीं है फिर ऐसी हम सबका निराकरण करके जो सर्वदा ही आपकी भक्ति करने वाली है फिर क्यों आप मूढ़ मानव की भाँति इस एक ही रोहिणी का सदा सेवन किया करते हैं अर्थात् इसी से प्रणयानुराग करते हैं ? क्या आपको धर्म का ज्ञान नहीं हुआ है जो पहले वेदों के मूल वाला सुना गया है जो कि आप तत्पुरुषों के द्वारा निन्दित और धर्म से हीन कर्म को आप कर रहे हैं ? धर्मशास्त्र के अर्थ को गमन करने वाले कर्म को यथोचित रीति से करने वाली और उद्वाहित अर्थात् ब्याही हुई पिता का आप केवल मुख भी नहीं देखते हैं । हे निशापते! पूर्व में कहते हुए पिता के मुख से नारद के लिए जो सुना है उस दक्ष प्रजापति के धर्म-शास्त्र के अर्थ का आप श्रवण कीजिए । जो पुरुष बहुत सी दाराओं वाला हो और राग के वशीभूत होकर उनमें से किसी भी एक ही स्त्री का सेवन किया करता है वह पाप का भागी होता है और स्त्री के द्वारा जित भी हुआ करता है तथा उसका अशौच सनातन अर्थात् सर्वदा ही बने रहना वाला हुआ करता है । हे विधो! स्त्रियों को जो स्वाम्य सम्भोगज दुःख हुआ करता है उस दुःख के समान अन्य कोई भी दुःख नहीं हुआ करता है। जो पुरुष परम सती और ऋतुकाल वाली पत्नी का संग नहीं किया करता है, ऋतुकाल के शुद्ध होने पर भी उसके संग से रहित होता है, वह भ्रूण ही होता है। भ्रूण गर्भ में रहने वाले शिशु को कहते हैं ।
जितने समय तक भार्या आत्रेयी होती है उतने ही समय पर्यन्त निबोधन है । उस भार्या संग में कुछ विहित का आचरण न करना चाहिए। बहुत-सी भार्याओं वाले पुरुष का जो ऋतुकाल के मैथुन का विनाश है वह शास्त्र के द्वारा भी कथित कुछ भी कर्म नहीं होता है ।
विधि के साथ विवाहित भार्याओं का निरन्तर तोष करना चाहिए । अन्य प्रकार से कल्याण करने वाले पुरुष का भी उन भार्याओं की तुष्टि से कल्याण होता है। भार्या के द्वारा तो भर्ता सन्तुष्ट हो और भर्ता के द्वारा भार्या संतुष्ट होवे, जिस कुल में यह नित्य ही होता है वहाँ पर निश्चित रूप से ही कल्याण रहा करता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है । सौभाग्य के मद से अहंकार वाली जिस पत्नी के द्वारा सपत्नी का संगम करने के लिए भर्ता का विरोध किया जाया करता है वह स्त्री दूसरे जन्म में वैश्या हुआ करती है और उसको अधर्म भी होता है । ऐसी स्त्री का तथा पिता का कुल दोनों ही प्रसन्न नहीं हुआ करते हैं । पति के विरुद्ध मान होने पर जो सपत्नी के साथ प्रवृत्त होता है उस अकल्याण करने वाले दोनों को ही अधिक दुःख हुआ करता है ।
मार्कण्डेय ऋषि ने कहा- इस रीति से उनके द्वारा बहुत अधिक कठोर वचन कहने पर चन्द्रमा रोहिणी के मुख की कान्ति को मलिन देखकर बहुत ही अधिक कुपित हुए थे। उस समय में रोहिणी ने भी उन सबकी उग्रता को बारम्बार देखकर वह भी भय, शोक और लज्जा से समाकुल होकर कुछ भी नहीं बोली थी। इसके अनन्तर परमाधिक क्रोधी हुए चन्द्र ने उसी समय में उन सब स्त्रियों को शाप दिया था क्योंकि तुम सबने मेरे ही आगे अतीव उग्र और तीक्ष्ण वचन कहे हैं । इन तीनों भुवनों में कृत्तिका आदि आपकी उग्र और तीक्ष्ण यही गति देवगणों में भी प्राप्त करोगी। इस कारण से ये नौ कृत्तिका प्रभृत्ति दिन यात्रा में उपयुक्त नहीं होगी। तुम सबको देवी देव आदि और क्षिति में मनुष्य आदि देखते हैं तो उसी दोष से यात्रा में उन पुरुषों की यात्रा अभीष्ट के प्रदान करने वाली नहीं हुआ करती है । इसके उपरान्त उन सबों ने उसके अति दारुणी शाप को सुनकर इस शाप के देने से चन्द्रमा के हृदय को बहुत ही अधिक निष्ठुर जान लिया था ।
उस समय वे सब अति कुपित होकर दक्ष प्रजापति के भवन को चली गयी थीं और वहां पर अश्विनी आदि ने अपने पिता दक्ष से कहा था- सोम हमारे साथ निवास नहीं करते हैं और वे सदा ही एक रोहिणी का ही सेवन किया करते हैं। हम लोग सभी उनकी सेवा भी करती हैं तो भी वे पराई वधू की ही भाँति हम से अनुराग न करके हमारा सेवन नहीं किया करते हैं। अवस्थान में, अवसान में तथा भोजन में और श्रवण करने में चन्द्रदेव रोहिणी के साथ निवास करते हुए समीप में आपकी इन पुत्रियों को देखकर रोहिणी के बिना कोई भी शान्ति की प्राप्ति नहीं किया करते हैं। वह अन्य स्थान में गमन करती हुई को देखकर नयन का आधान करके नहीं देखा करते हैं । इस वस्तु में जो भी कुछ करना चाहिए वह हमारे द्वारा चन्द्र अनिरुद्ध हुए हैं उस समय उसने हमारे लिए तीव्र शाप किया था । चन्द्रदेव ने कहा था कि आप लोग अत्यन्त दारुण और तीक्ष्ण होती हुई शोक में वाच्यत्व को प्राप्त करके बिना यात्रा वाली हो जाओगी ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- उस प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्रियों का वाक्य सुनकर और उनको ही साथ में लेकर उसी स्थान पर गये थे जहाँ चन्द्रदेव रोहिणी के साथ उस समय में वर्त्तमान थे । चन्द्रमा दूर से आते हुए दक्ष को देखकर अपने आसन से उठ खड़े हुए थे और समीप जाकर उन महामुनि के लिए प्रणिपात किया था। इसके अनन्तर उस समय अपने आसन को ग्रहण करके दक्ष प्रजापति ने भली भाँति वन्दना करने वाले चन्द्रमा से सामपूर्वक यह कहा था- आप अपनी भार्याओं से समानता का ही व्यवहार करिए और विषम व्यवहार का परित्याग कर दीजिए । विषमता में ब्रह्माजी ने बहुत से दोष परीकीर्त्तित किये हैं । दाराओं में काम के अनुबन्धन से वे दारारति और पुत्र की कला वाली होती हैं । काम का अनुबन्धन संसर्ग से ही होता है और वह ससर्ग संगम से हुआ करता है और संगम अभिध्यान और वीक्षण से समुत्पन्न होता है इस कारण से आप भार्याओं में अभिध्यान और वीक्षण आदि करिए। यदि इस मेरे धर्म से नियन्त्रित वचन को आप नहीं करते हैं तो उस समय में आप लोक के वचनों से दोषयुक्त और पाप वाले हो जायेंगे ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- महात्मा दक्ष के उस वचन का श्रवण करके चन्द्रदेव ने भी ‘ऐसा ही होगा‘- यह दक्ष की शंका से कह दिया था । इसके अनन्तर दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्रियों को तथा जामाता इंद्र को अनुमन्त्रित करके उस समय में वह मुनिकृतकृत्य होकर अपने आश्रम को चले गये थे । दक्ष के चले जाने पर फिर चन्द्रमा ने उस रोहिणी के पास प्राप्त होकर उसमें और उन शेष पत्नियों से पूर्व जैसा ही भाव ग्रहण किया था क्योंकि रोहिणी में उसका अनुराग था । वहीं पर रोहिणी को प्राप्त करके अन्य किसी को भी वह नहीं देखता था । वह सर्वदा रोहिणी ही में निवास किया करता था । फिर वे सब कुपित हो गई थीं । वे सब अपने दुर्भाग्य के कारण उद्विग्न मन वाली होती हुई पिता के समीप में जाकर उन्होंने कहा था कि सोमदेव हम लोगों में निवास न करते हैं और वे सदा ही रोहिणी का सेवन किया करते हैं । उसने अपने वाक्य को भी ग्रहण नहीं किया । अतएव आप हमारे रक्षक होओ। उसी क्षण में मुनि उस उद्वेग और क्रोध से संयुत होकर उठ खड़े हुए थे और मन में विधु के समीप में जाकर क्या करना है इसका ध्यान करते जा रहे थे ।
उस समय प्रजापति दक्ष चन्द्र के समीप में पहुँचकर यह वचन उन्होंने चन्द्रदेव से कहा था कि अपनी भार्याओं में समानता का ही व्यवहार करिए तथा उनके प्रति जो भी कुछ विषमता की भावना होवे उसका आप अब परित्याग कर दीजिए। यदि आप हमारे वचनों को मूर्खता से नहीं समझते हैं तो हे निशापते! मैं धर्मशास्त्र के अतिक्रमण करने वाले आपके लिए शाप दे दूंगा।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर चन्द्रदेव ने उस प्रजापति के सामने वैसा ही करने के लिए स्वीकार किया था क्योंकि उनको दक्ष से अत्यधिक भय था । ‘इसी प्रकार से किया जायेगा। ऐसा पुनः स्वीकार कर लिया था । फिर अपनी भार्याओं में विषय में समान ही व्यवहार करने के लिए चन्द्र के द्वारा अंगीकार किये जाने पर दक्ष चन्द्र से सहमत होकर अपने स्थान को चले गये थे । दक्ष के गमन करने पर निशानाथ चन्द्र फिर अत्यधिक रूप से रोहिणी के ही साथ में रमण करता हुआ उसने उस प्रजापति दक्ष के वचन को भुला ही दिया था कि मैं सब भार्याओं में एक सा व्यवहार करूँगा। वे अश्विनी आदि सभी मनोरमा उनकी सेवा करने वाली हुई थीं किन्तु चन्द्र उनका कभी सेवन नहीं किया था और वह केवल उन सबकी अवज्ञा ही किया करता था । वे चन्द्रदेव के द्वारा अवज्ञासंयुत होकर अपने पिता के समीप जाकर आर्त्तस्वर में अत्यंत आर्त्त होकर रुदन करती हुई अपने पिता से यह बोली थीं ।
उन्होंने कहा था कि- हे मुनिश्रेष्ठ! आपके वचन को भी सोमदेव ने नहीं किया है और वह तो अब पहले से भी अधिक हमारे विषय में अवज्ञा किया करते हैं। सोम के द्वारा हमारे विषय में जो भी करना चाहिए वह कुछ भी नहीं होता है । अतएव अब हम तो सब तपस्विनी हो जायेंगी । आप हमको वही निर्देश कीजिए। तपस्या के द्वारा अपनी आत्माओं का शोधन करके हम अपना जीवन ही त्याग देंगी । हे द्विजोत्तमो ! आप ही विचार कीजिए कि ऐसी दुर्भाग्यशालिनी हमको जीवन रखने से क्या लाभ है।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा-फिर यह इतना कहकर वे सभी कृत्तिका प्रभृति दक्ष की पुत्रियाँ अपने करों से कपोलों का आलम्बन करके विवश होती हुई भूमि पर रूदन करने वाली थीं। अतीव दुःख से व्याकुल इन्द्रियों वाली इस प्रकार से स्थित उन सबको देखकर अत्यन्त दीन मुख वाले प्रजापति कोप से वह्नि के ही समान ज्वलित हो गये थे । इसके अनन्तर कोप से व्याप्त महात्मा दक्ष की नासिका के अग्रभाग से बहुत ही भीषण यक्ष्मा निकल पड़ा था। वह यक्ष्मा दाढ़ों से कराल मुख वाला था और कृष्ण वर्ण वाले अंगार के समान था वह बहुत ही लम्बे विशाल शरीर वाला था उसके केश बहुत ही थोड़े थे वह अतीव कृश और धमनियों से संतत था ।
उसका मुख तो नीचे की ओर था, उसके हाथ में एक दण्ड था, वह विश्राम करके निरन्तर कास (खाँसी) को करता जा रहा था, उसके नेत्र नीचे की ओर बैठे हुए थे तथा वह स्त्री के साथ सम्भोग करने के लिए अत्यन्त लालायित रहता था ।
उस यक्ष्मा ने दक्ष प्रजापति से कहा था- हे मुनि! मैं अब किस स्थान में स्थित रहूँगा अथवा मुझे क्या करना होगा? हे महामते ! आप मुझे यह अब बतलाइए ।
तब तो प्रजापति दक्ष ने उस यक्ष्मा से कहा था कि आप बहुत शीघ्र सोमदेव के समीप में जाइये । आप सोमदेव का भक्षण करिये और उसी सोम में स्वेच्छा से सदा संस्थित रहिए।
मार्कण्डेय ऋषि ने कहा-इसके अनन्तर महामुनि दक्ष के इस वचन को श्रवण करके वह धीरे-धीरे सोमदेव के समीप गया था और वह सोम का गद (रोग) ही था । उस समय में वह सोम के समीप में इसी भाँति प्राप्त हुआ था जैसे सर्प अपनी बाँबी में प्रवेश किया करता है। वह महागद अर्थात् विशाल रोग चन्द्रमा के हृदय में छिद्र की प्राप्ति करके प्रवेश कर गया था । उस दारुण राज्यक्ष्मा के उस सोम के हृदय में प्रविष्ट हो जाने पर चन्द्रदेव मोहित हो गये अर्थात् उनको मोह हो गया था और वह बहुत बड़े विषम तन्द्र को प्राप्त हो गया था। क्योंकि यह रोग प्रथम उत्पन्न होकर उस राजा में लीन हो गया था । हे द्विज ! इस कारण से उस रोग की लोक में ‘राजयक्ष्मा‘ इस नाम से प्रसिद्धि हो गयी थी ।
इसके अनन्तर वह सोम (रोहिणी का पति ) उस राजयक्ष्मा नामक रोग के द्वारा अभिभूत हो गया था और वह प्रतिदिन ग्रीष्म ऋतु में क्षुप्र नदी की ही भांति क्षय रोग को प्राप्त होने लगा था। इसके अनन्तर उस चन्द्र के क्षीय माण हो जाने पर समस्त औषधियाँ क्षय को प्राप्त हो गयीं थीं । उन औषधियों के क्षय को प्राप्त हो जाने पर यज्ञ नहीं प्रवृत्त होते थे । यज्ञों का अभाव हो जाने से देवों का सब अन्य भी क्षय को प्राप्त हो गया था । तब तो सभी मेघ नष्ट हो गये थे और वृष्टि का एकदम अभाव हो गया था अर्थात फिर वर्षा नहीं हुई थी । जब वृष्टि का ही अभाव हो गया तो लोगों के व्यवहार क्षीण हो गये थे । हे द्विजोत्तमो ! दुर्भिक्ष (अकाल) और उसके कारण से होने वाले व्यसन (दुःख) से समस्त रोग हो गये थे। तब तो लोगों का दान देना और धर्म के कृत्य करना सभी कुछ लोक के लिए प्रवृत्त नहीं होता है । समस्त प्रजासत्त्व से हीन हो गयी थी और सब लोभ से उपहृत इन्द्रियों वाले हो गये थे । वे सभी प्रजायें कुकर्मों में रति रखने वाली हो गई थीं तथा सभी सागर और ग्रह भी क्षुभित हो गये थे। इसके अनन्तर जगत् को अधिक व्याकुल और दस्युओं (चोर लुटेरों) से प्रपीड़ित देखकर चन्द्र को अपना नायक बनाते हुए सब देवगण ब्रह्माजी के समीप में गये थे।
इस सृष्टि की रचना करने वाले, जगतों के स्वामी देवेश्वर ब्रह्माजी के पास पहुँचकर उन्होंने उनको प्रणाम किया तब वे सब यथोचित स्थानों पर उपविष्ट हो गये थे। लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने सब देवों को मलिन मुख वाले देखकर जो कि ऐसे प्रतीत होते थे मानों किसी दूसरे के पराभूत हैं और अपने विषयों को अपहृत किए हुए से दिखाई पड़ रहे थे। तब तो ब्रह्माजी ने देवों के गुरु बृहस्पति इन्द्र और अग्नि को आमने सामने बिठाकर उनसे पूछा था ।
ब्रह्माजी ने कहा- हे देवगणों! आपका मैं स्वागत करता हूँ अर्थात् आपका यहाँ पर समागम परम शुभ मानता हूँ । आप लोग अब यह बतलाइये कि आप सब किस प्रयोजन को सुसम्पन्न करने के लिए यहाँ आये हैं ? मैं देख रहा हूँ कि आप सभी लोग किसी महान दुःख से उपहृत देहों वाले हैं और आप अधिक म्लीन हो रहे हैं। आप सबको बाधाओं से रहित, आतंक से हीन तथा इच्छानुसार गमन करने वाले बनाकर और अपने विषय में विन्यस्त करके आज से आप लोगों को परम दुःखित कैसे देख रहा हूँ ? जो भी कुछ आप लोगों के दुःख का बीज अर्थात् हेतु होवे अथवा जो भी कोई आप लोगों को बाधा पहुंचाता होवे वह सभी आप लोग पूर्ण रूप से मुझे बतलाइए और यही समझ लीजिए कि वह आपका कार्य सिद्ध हो ही गया है अर्थात् उसका मैं निवारण करके आपको सुख सम्पन्न ही बना दूँगा, इनमें कुछ भी संशय न समझें।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर वृद्ध श्रवा, जीव और लोकों का भरण करने वाले कृष्णवर्मा ने उन ब्रह्माजी से देवों के दुःख का कारण बतलाया था ।
देवों ने कहा- हे जगत् की रचना करने वाले! आपके समीप में जिस कार्य के सम्पादन के लिए हम लोग समागत हुए हैं उनका आप श्रवण कीजिए जो कि हम लोगों के दुःख का बीज है और जिसके होने से हम सब लोग म्लानश्री वाले हो रहे हैं । हे पितामह! कहीं पर भी लोक में यज्ञ सम्प्रवर्तित नहीं हो रहे हैं अर्थात् कोई भी किसी जगह पर लोक में यज्ञ नहीं कर रहे हैं। समस्त प्रजा इस समय निरातंक और निराधार होकर क्षय को प्राप्त हो रही है । भूमण्डल में न तो कोई दान देता हैं और न कोई धर्म सम्बन्धी कर्म करता है, न तप है अर्थात् कोई भी तपस्या भी नहीं कर रहा है। मेघ लोक में वर्षा नहीं करते हैं, समस्त पृथ्वी क्षीण जल वाली हो गयी थी। सभी औषधियाँ क्षीण हो गयी हैं शस्य भी क्षय को प्राप्त है और लोक सभी समाकुल हैं । विप्रगण दस्युओं के द्वारा पीड़ित होते हुए वेदों के बाद में नियत नहीं हो रहे हैं । अन्न की विकलता को प्राप्त करके बहुत-सी प्रजा मर रही है। यज्ञ भोगों के क्षीण हो जाने पर हम सभी लोग भोगने के योग्य पदार्थों से हीन हो रहे हैं । हम बहुत ही दुर्बल हो गए हैं और हमारी कान्ति नष्ट हो गई है। हम कहीं पर भी शान्ति की प्राप्ति नहीं कर रहे हैं । चन्द्रदेव तो रोहिणी के ही मन्दिर में सदा वक्रगति से चिरकाल पर्यन्त स्थित रहा करते हैं और वृष राशि के वह क्षीण होकर ज्योत्सना (चाँदनी) से हीन रहते हैं। देवी के द्वारा जिस समय में भी चन्द्र का अन्वेषण किया जाता है तो वह कभी भी इनके आगे स्थिति वाला नहीं हुआ करता है। वह किसी समय में भी देवों के समाज में अथवा आप के समीप में उपस्थित नहीं हुआ करता है ।
वह किसी समय भी रोहिणी का त्याग करके कहीं पर भी गमन नहीं किया करता है । यदि कोई भी अन्य नहीं होता है तभी चन्द्र बाहर जाया करता है । वह चन्द्र समस्त कलाओं से हीन केवल एक ही कला वाला रह गया है अर्थात केवल एक ही कला उसमें शेष रह गई हैं । हे लोकों के ईश ! यही सर्वत्र लोक में कर्म का विपर्यय प्रवृत्त हो रहा है । तात्पर्य यही है कि सभी कर्म विपरीत हो रहे हैं । यह ऐसा है उसको देखकर हम सब कान्दिशीक हो रहे हैं अर्थात् किस ओर जावें, ऐसे कर्त्तव्यविमूढ़ होकर हम सब आपकी ही शरणागति में प्राप्त हुए हैं । जब तक पाताल लोक से उठकर काल कञ्जरादि असुर हे लोकेश्वर ! हमको बाधा पहुँचाते हैं तब तक आप भय से हमारी रक्षा कीजिए । यह जगतों का अतिक्रम किस कारण से हो गया है यह हम नहीं जानते हैं। इस विप्लव का क्या कारण है यह भी हम नहीं जानते हैं ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- दिव्यदर्शी पितामह ब्रह्माजी ने देवों के इस वचन का श्रवण करके एक क्षण पर्यन्त ध्यान करते हुए सुरोत्तम से कहा-
ब्रह्माजी ने कहा- हे देवताओं! जिस कारण यह लोकों का विप्लव हो रहा है उसका आप श्रवण करिए। देव सोम ने दाक्षायणी सत्ताईस संख्यावाली अश्विनी आदि का श्रेष्ठ वधू के रूप में भार्या बनाने के लिए उनके साथ परिणय किया था ।
उस सोम ने उस सबके साथ परिणय करके वह चन्द्र केवल रोहिणी में ही निरन्तर अनुराग से प्रवृत्त हुआ था और अन्य सब में यह अनुराग नहीं किया था । वे सब अश्विनी आदि कन्यायें ज्वर से प्रपीड़ित थीं । वे छब्बीस वर आरोहण वाली कन्यायें पिता के समीप में आ गयी थीं। जिस प्रकार से निशानाथ अनुराग से रोहिणी में प्रवृत्त होता रहता है उस भाँति उन सबका सेवन नहीं किया करता है। यह सब उस प्रजापति दक्ष से निवेदन कर दिया था। इसके अनन्तर महा बुद्धिमान दक्ष ने सोम के द्वारा चन्द्रदेव की स्तुति करके और बहुत अधिकासूनृत वचनों से सम्भाषण करके अपनी पुत्रियों के लिए अनुरोध किया था । तब महात्मा के द्वारा अनुरुद्ध होकर चन्द्र ने उन सब में समान ही प्रवृत्त होने की प्रतिज्ञा की थी। चन्द्रदेव ने उन सबमें समान भाव रखने की बात स्वीकार करने पर वह मुनि श्रेष्ठ दक्ष भी अपने निवास स्थान को चला गया था। उस मुनि श्रेष्ठ दक्ष प्रजापति के चले जाने पर चन्द्र ने उनमें विषमभाव का त्याग नहीं किया था और वे फिर निरन्तर क्रोधित होकर अपने पिता के समीप में गई थीं ।
इसके अनन्तर पुनः दक्ष ने दूसरी सुताओं के विषय में अनुरोध किया था और समान व्यवहार रखने की प्रतिज्ञा कराकर उसने यह वचन कहा था कि हे चन्द्र! यदि आप समान व्यवहार नहीं करेंगे और आप यदि इन सब ही में अनुराग न करेंगे तो मैं आपको शाप दे दूँगा । इस कारण से जो समुचित हो वही आप व्यवहार सभी के प्रति करिए ।
इसके उपरान्त दक्ष के चले जाने पर उस चन्द्र ने समान बर्ताव नहीं किया तो पुनः दक्ष के समीप में जाकर क्रोध के साथ कहने लगीं। वह चन्द्रदेव आपके कथित वचनों का सत्कार नहीं करते हैं और वे हम सबमें प्रवृत्त नहीं होते हैं अर्थात् हम सबका सेवन अभी भी नहीं किया करते हैं । अतएव अब हम सब तपश्चर्या करेंगी और आपके ही समीप में स्थित रहा करेंगी । अपनी उन पुत्रियों के इस वचन का श्रवण करके महामुनि दक्ष परम क्रोधित हो गये थे और फिर चन्द्रदेव के क्षय करने के लिए शाप देने को उत्सुक हो गये थे । हे महामुने! शाप देने के लिए उद्यत मन वाले और महान कुपित हुए उन दक्ष प्रजापति की नासिका के अग्रभाग से क्षय नाम वाला एक महान रोग निकल पड़ा था । उस महारोग को चन्द्रदेव के लिए प्रेरित कर दिया गया था जो कि मुनिवर दक्ष के ही द्वारा भेजा गया था। वह महारोग चन्द्रदेव के देह में प्रवेश कर गया था और उसने चन्द्र को क्षयित कर दिया था ।
चन्द्रमा के क्षीण हो जाने पर महात्मा की ज्योत्सना (चाँदनी) भी क्षय को प्राप्त हो गयी थी । ज्योत्सना के क्षीण हो जाने पर समस्त औषधियाँ भी क्षय को प्राप्त हो गयी थीं । औषधियों के अभाव से ही इस लोक में यज्ञों की सम्प्रवृत्ति नहीं हुआ करती है। यज्ञों के न होने ही से वृष्टि का अभाव हो रहा है और समस्त प्रजाओं का क्षय हो रहा है। यज्ञ के भागों के उपयोग से हीन आप लोगों की दुर्बलता समुत्पन्न हो गई और स्वगोचर से विकार हो गया है। यही सम्पूर्ण हमने आपको बतला दिया है जिस रीति से लोकों में विप्लव हो रहा है । हे सुरोत्तमों ! अब यह भी आप लोग श्रवण कर लीजिए कि जिस उपाय से इस विप्लव की शान्ति होगी ।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे चन्द्रशाप नाम विंशतितमोऽध्यायः ॥ २० ॥