कालिका पुराण अध्याय २१ || Kalika Puran Adhyay 21 Chapter

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कालिका पुराण अध्याय २१ में वशिष्टजी द्वारा सन्ध्या को दीक्षा देना, श्रीहरि विष्णु के स्वरूप का वर्णन करना और सन्ध्याद्वारा हरिस्तोत्र का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय २१                 

ब्रह्माजी ने कहा- हे सुरगणों! अब आप सब लोग दक्ष प्रजापति के गृह को चले जाइए और उनको प्रसन्न करिए कि चन्द्रदेव का अर्थात उनके क्षीण होने का महारोग दूर हो जावे । चन्द्रदेव के परिपूर्ण हो जाने पर सम्पूर्ण जगत् प्रकृति में स्थित हो जायेगा और आपको भी शान्ति की प्राप्ति हो जायेगी तथा समस्त औषधियों की समुत्पत्ति भी हो जायेगी ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- ब्रह्माजी के इस वचनामृत का श्रवण करके समस्त देवगण जिनमें इन्द्रदेव सबके आगे चलने वाले नायक से परम प्रसन्न मन वाले होते हुए उस समय में दक्ष प्रजापति के सदन अर्थात निवास स्थान पर गए थे। वहाँ पर सब सुरगणों ने नीति के अनुसार उपस्थान करके मुनिवर प्रजापति दक्ष को प्रणाम करके बहुत ही विनम्रता संयुत मधुर वाणी से उन्होंने कहा।

देवों ने कहा- हे ब्राह्मण! अत्यन्त दुःखित हमारे ऊपर प्रसन्न होइये, हे महाबुद्धे ! हमारी इस शोक के सागर से रक्षा कीजिए और उद्धार करिए । सृष्टि की रचना करने वाले परमात्मा का ब्रह्मा संज्ञा वाला जो रूप है उन्हीं के अंश समस्त जगतों के आप परम ज्योति हैं । हे विप्ररूप ! आपके लिए हमारा नमस्कार है । प्रजा की रक्षा करने से और प्रजा के पालन करने के कारण से दक्ष और प्रजापति आप योगेश हैं, आपको हम प्रणाम करते हैं ।

समस्त जगतों की रक्षा के लिए और कुशल आत्मा वालों के लिए तथा आत्मा के हित के लिए, दक्ष के लिए, महात्मा के लिए शीघ्र आपके लिए नमस्कार है । नियत इन्द्रियों वाले योगियों के द्वारा निरन्तर चिन्तन किये हुए सार का भी आप सारभूत हैं। ऐसे परमात्मा दक्ष के लिए नमस्कार है । योगियों की वृत्ति को अनाधृष्ट करके पारगामियों में परायण सहसा ही आद्यन्त्र कहा गया है उनके लिए नित्य ही नमस्कार है, नमस्कार है । इन प्रकार से कहे हुए उन यज्ञ के भागों का सेवन करने वालों के वचन को सुनकर दक्ष प्रसन्न मुखवाला होकर मुख्य रूप से इन्द्रदेव को सम्बोधित करके बोले ।

दक्ष ने कहा- हे महाबाहो ! हे इन्द्रदेव! आपको यह महान् दुःख कैसे प्राप्त हो गया है ? हे विभो ! आप इस दुःख का हेतु तो बतलाइए। मैं उसके श्रवण करने की इच्छा कर रहा हूँ । आप लोगों के दुःख को दूर करने के लिए मेरा क्या कर्त्तव्य होता है ? उसको यदि मैं कर सकता हूँ तो अवश्य ही करूँगा ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा-उस महान आत्मा वाले ब्रह्माजी पुत्र के वचन का श्रवण करके नीतिक्षेत्र वाक्पति इन्द्रदेव ने उस महामुनि से कहा था।

शचीपतिशक्र ने कहा- निशानाथ चन्द्रक्षयी अर्थात् क्षय होने वाला हो गया है। उसके क्षीण हो जाने पर सभी औषधियां क्षय को प्राप्त हो गई हैं । हे द्विजश्रेष्ठ, उनकी हानि यज्ञों की हानि करने वाली हैं। कुछ तो प्रजा वृष्टि के अभाव से महान दुःख को पाकर नष्ट हो गई है । यह निशानाथ चन्द्रमा का जो क्षय है वह आपके ही कोप से प्रवृत्त हो गया है और इस क्षय से पूरे जगत् का ही विनाश हो जायेगा । इस समय में ऐसा कुछ भी नहीं है जो क्षोभ से युक्त न हो। हे विप्रेन्द्र ! इस समय सभी विलुप्त हैं चाहे स्थावर हो या जंगम होवे या पतंग ही होवे । इस समय से न तो यज्ञ सम्प्रवत्त हो रहे हैं और तापस गण ही तपश्चर्या किया करते हैं । आहार के अभाव के कारण होने वाले दुःख से समस्त प्रजा क्षीण और भय से आतुर हैं। हे विपेन्द्र ! ऐसा प्रवृत्त होने पर इस रसातलिक से जब तक दैत्य उठकर बाधा नहीं पहुँचाते हैं तभी तक आप उद्धार कीजिए । हे दक्ष ! चन्द्रदेव पर प्रसन्न होइए और अपने तप के बल से उसे पूर्ण बना दीजिए । चन्द्रदेव के परिपूर्ण हो जाने पर सम्पूर्ण जगत् प्रकृति में स्थित हो जायेगा ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस प्रकार से उसके वचन का श्रवण करके उस समय में प्रजापति के उन सुरगणों से हृदय के शल्य का उद्धार करते हुए बोले ।

दक्ष प्रजापति ने कहा- जो मेरा वचन निशानाथ चन्द्र में शाप का व्यसन कर प्रवृत्त हुआ है उसको किसी भी निदान के द्वारा मैं मिथ्याभूत करने का उत्साह नहीं करता हूँ। किन्तु मेरा वचन एकान्त रूप से जिससे वृथा न होवे और चन्द्र भी बढ़ता रहे, जिससे वही उपाय देखिए । उसमें भी एक उपाय है कि जो चन्द्रमा मास के आधे भाग में क्षय और वृद्धि को प्राप्त होकर भार्याओं से समान बर्ताव करे । उस प्रजापति को प्रसन्न करके उसके उस वचन का श्रवण करके समस्त देवगण वहाँ पर गये थे जहाँ पर चन्द्रमा रहता है। हे द्विजो ! दक्ष मुनि के द्वारा इस प्रकार से वचन के कहने पर इसके अनन्तर उस समय में भार्याओं के सहित चन्द्रमा का समादान करके वे परम प्रसन्न सुरश्रेष्ठ ब्रह्माजी के भवन में गये थे । हे महाभागो ! वहाँ पर पहुँचकर जैसा दक्ष प्रजापति ने कहा था वह सभी परमात्मा ब्रह्माजी से उन्होंने कह दिया था ।

उस समय में ब्रह्माजी देवों के मुख से दक्ष प्रजापति के वचन का श्रवण करके वे फिर सब सुरों के साथ चन्द्रभाग नामक पर्वत पर जो कि एक महान् पर्वत था वहाँ चले गये थे । वहाँ पर सुरों के श्रेष्ठ ने जाकर प्रजाओं के हित की कामना से वृहल्लोहित पुष्प में चन्द्रदेव को स्थापित कर दिया था । उस सरोवर में स्नान करने वाले जन्तु को निरोगता हो जाया करती है । बृहल्लोहित नाम वाले सरोवर में स्नान करने से प्राणी चिरायु अर्थात् बड़ी उम्र वाला हो जाया करता है । वहाँ पर स्नान किए हुए चन्द्र के शरीर से उसी क्षण में रोग निकल गया था जिसका नाम राज्यक्ष्मा था जैसा कि पूर्व रूप कहा गया है । राज्यक्ष्मा भी निकलकर जगत् के पति ब्रह्माजी को प्रणाम करके उससे बोला था कि मैं क्या करूँगा और कहाँ पर जाऊँगा। क्योंकि आप इस सम्पूर्ण जगत् के सृजन करने वाले हैं अतएव हे लोकेश ! मेरा सनातन कृत्य- स्थान और पत्नी को मेरे ही अनुरूप निर्देश कीजिए ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर चन्द्रमा के शरीर में स्थित अभियुक्त अमृतों से परिपुष्ट उसको देखकर और क्षीण हुए चन्द्रमा को देखकर उन्होंने स्वयं ही हाथों से उसका ग्रहण करके गिरि में बारम्बार निष्पीडित किया था और उस राजयक्ष्मों के शरीर से उस अमृत को गालित किया था । उस समय में जो शीघ्र ही अमृत जल में गलित किए गये थे । लोकभृत ने क्षीरसागर के मध्य में एकान्त में प्रक्षिप्त कर दिया था । जो पहले उसके उस अमृत से चन्द्र की कलाएं क्षीण हो गयी थीं उनके चूर्णों को क्षीरोद सागर से लव से ग्रहण किया था। राजयक्ष्मा के संसर्ग से एक कला मात्र ही शेष वाले इसकी क्षीण हुई पन्द्रह कलाएं जो पूर्व में अमृत से परिपूर्ण थीं वे राज्यक्ष्मा के गर्भ में स्थित थीं और पीड़ा से तृष्णीभूत थीं वे ज्योत्स्ना के अमृतों से जो कलपापति का निबद्ध शरीर था वह राजयक्ष्मा के गर्भ में स्थित तीन प्रकार का हो गया था ।

वह ज्योति से परिपूर्ण हो गया था और ज्योत्स्ना राजयक्ष्मा में लीन हो गई थी और रोग के गर्भ में स्थित सम्पूर्ण सुधा द्रवीभूत हो गई थी । जिस समय ब्रह्माजी ने राजयक्ष्मा के अन्तर से सुधा को निर्गलित किया था उस समय समस्त ज्योत्सना सुधा की ज्योति उससे बहिर्गत हो गई थी। उसी समय विधाता के द्वारा वह सम्पूर्ण क्षीरोद सागर में प्रक्षिप्त कर दी गयी थी। उन देवों को उस पर्वत में परित्याग करके वह स्वयं वहाँ से शीघ्र ही गमन कर गये थे। इसके उपरान्त कलापूर्ण अमृतों का जल से प्रक्षालित करके उन तीनों को ग्रहण करके शीघ्र ही ज्योत्सना का भी प्रक्षालन करके उस गिरि पर समागत हो गए थे। उस समय विधाता क्षीरोद से चन्द्रभाग पर्वत पर पहुँचकर देवों के मध्य में ज्योत्स्ना कलाओं के चूर्ण में प्रवृष्टि हो गयी थी । ब्रह्माजी ने उन तीनों को संस्थापित करके वे देवों के मध्य में संस्थित हो गए थे। उसके स्थान आदि के विषय में निर्देश करते हुए उन्होंने राजयक्ष्मा से कहा था ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे राजयक्ष्मा ! जो सर्वदा ही रात दिन व सन्ध्या के समय में वनिता में रत रहा करता है और उसमें सुरत को सेवन किया करता है वहाँ पर ही आप निवास करेंगे। जो प्रतिश्याय (जुकाम- सर्दी) श्वास और कास से समन्वित होता हुआ भी मैथुन को समाचरण किया करता है और श्लेष्मा (कफ) का उसी प्रकार वाला हुआ करता है उसमें ही आपका प्रवेश होना चाहिए। जो कृष्णनाम वाली मृत्यु की पुत्री है और आपके गुणों के ही तुल्य है वही आपकी भार्या होवेगी जो निरन्तर ही आपका अनुगमन किया करेगी। आपका कर्म भी यही है कि जो क्षीणता करें उसी को आप अपना विषय बना लेवें। अब आप बहुत ही शीघ्र चले जाइए और आप चन्द्र से विमुख हो जाइए।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा-इस रीति से विधाता के द्वारा विदा किया गया महान रोग राजयक्ष्मा समस्त देवगणों के देखते हुए ही अन्तर्धान को प्राप्त हो गया था। उस महान रोग के अर्न्तधान हो जाने पर लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को पन्द्रह कलाओं के द्वारा समृद्धिपूर्ण कर दिया था। फिर ब्रह्माजी ने सुता से पूत और क्षीरोद से धौत उसके द्वारा तथा ज्योत्स्ना के सहित कलाओं के चूर्णों से पूर्व की ही भांति चन्द्रदेव को कर दिया था। जिस समय में सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र पूर्व की ही भाँति शोभित था उस समय में समस्त देवगण उसके दर्शन से बहुत अधिक प्रसन्न हुए थे । इसके अनन्तर उस पूर्ण चन्द्र ने पितामह के लिए प्रणिपात किया था । अत्यन्त हर्षित न होते हुए सुरों ने सभा के मध्य में संस्थित होते हुए यह वचन कहा था ।

सोमदेव ने कहा- हे ब्रह्माजी ! मेरे शरीर में पूर्व की ही भाँति श्यामलता नहीं है और न तो वैसा पराक्रम है और न वैसा उत्साह ही है। मेरे अंग की सन्धियाँ निषीदित हैं। मैं पहली की ही भाँति चेष्टायें करने के लिए सुनरा अर्थात् अपने आप ही उत्साहित नहीं होता हूँ । हे लोककृत ! मैं निरन्तर चेष्टा से हीन होता हुआ किस कारण से रहता हूँ?

ब्रह्माजी ने कहा- हे सोम! यक्ष्मा के द्वारा ग्रस्त आपकी जो अंग की सन्धियाँ हो गई हैं वे पूर्व में विकीर्ण हो गई हैं और अब वह पूर्णता को प्राप्त नहीं है। अब इस समय में मैंने आपसे देह का चूर्ण निकाल दिया है । राजयक्ष्मा के शरीर से अमृत की ज्योत्सना शीघ्र ही निकाल दी है । उनके प्रक्षालन की विधि में जो लव के रूप में जल में स्थित है क्योंकि आप ज्योत्सना से और सुधा से उसी से हीन हैं । इसके उपरान्त आपकी अंग संधियां, हे राजन! इस समय में सीदित हो रही हैं। उपाय भी मैं करूँगा जिससे आप किसी पीड़ा को प्राप्त न होवें । पुर के अध्वर में प्राजापत्य पुरोडाश का हवन करना चाहिए । इसके उपरान्त ऐन्द्र और पीछे आग्नेय सभी ऋतुओं में देना चाहिए। इसके अनन्तर आपका भाग पुरोडाश मैंने किया है। उस भाग करने वाले जो नित्य ही यज्ञ के द्वारा कृत है पूर्व की ही भाँति आपका उत्साह और श्याम वीर्य हो जायेगा। जो आपके अमृत के कण क्षीरोद के जल में स्थित हैं अथवा आपके शरीर का चूर्ण और ज्योत्सना के जो लव हैं । हे विभो ! वह सब आपकी ज्योत्सना योग से अनुदिन वृद्धि को प्राप्त होगा जो निरन्तर क्षीर सागर के गर्भ में गमन करने वाला है । द्वितीय स्वरोचिष के अन्तर के प्राप्त होने पर शंकर के अंश से जायमान दुर्वासा विप्र सूर्य की ही भाँति प्रचण्ड और चण्ड होगा। उसने देवेन्द्र के अविनय से सदारुण शाप दे दिया था । सुर और असुरों से सहित तीनों भुवनों को बिना श्री वाला कर देगा फिर लोक के श्री से हीन होने पर लोक में विप्लव हो जायेगा । हे सोम! जिस तरह से आपके क्षय होने से सबका विप्लव प्रवृत्त हो गया था ।

वह मनुष्य के प्रमाण से तीसरे कृत युग में होगा और जब तक चारों युग होंगे स्थित होगा। इसके अनन्तर देवों के साथ चतुर्थ कृतयुग के सम्प्राप्त होने पर मैं शम्भु और विष्णु क्षीरोद का निर्मन्थन करेंगे । मन्दराचल को मन्थन करके अर्थात् मथान करने का साधन बनाकर फिर वासुकि सर्प का नेतरा बनायेंगे। यज्ञ भागों के लीन होने पर देवान्न के लिए हम फिर देवों के साथ दानवों के साथ मिलकर क्षीरोद का मन्थन करेंगे । आपके शरीर का यह अमृत जो क्षीरसागर में स्थित है उसको प्रमथन करके हम राशिभूत तथा क्षय को ग्रहण करेंगे। उस समय में हम आपके शरीर को सर्वोषधियों के अनन्तर से करके हे विभो ! आपके शरीर के लिए सागर के जल में प्रथिप्त कर देंगे। सागर का निर्मन्थन करके और पीछे जब अमृत का समुद्धरण करेंगे तो उस समय आपका वपु पूर्व की ही भाँति सम्भूत होगा। ओज और वीर्य से अद्भुतकान्त अक्षय और सुधात्मक अर्थात् सुधा से परिपूर्ण हर अंग की सन्धियों वाला आपका शरीर परम सुन्दर हो जायेगा ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने इस प्रकार सुधाँशु (चन्द्रमा) से कहकर चन्द्र के क्षय के लिए और आधे मास तक वृद्धि के लिए यत्नों वाले हुए थे। जैसा प्रजापति दक्ष ने कहा था कि चन्द्रमा आधे मास तक क्षय और वृद्धि को प्राप्त होवे उस मासार्ध में विधाता ने यत्न किया था। फिर सुरों में ज्येष्ठ ने चन्द्रमा को सोलह प्रकार से विभक्त किया था और ऐसा विभाग करके समस्त देवों से वे यह उत्तम वचन बोले थे । चन्द्रमा की सोलह कलायें हैं उनमें एक भगवान शम्भु के मस्तक में आज की अवधि पर्यन्त स्थित रहे और पराक्षय के बिना ही क्षय को प्राप्त होंवे । दक्ष के वाक्य से यदि क्षय रोग से मासार्ध तक क्षय के लिए चन्द्र प्रपीड़ित किया जाता है तो उस समय में उपशान्ति नहीं होगी किन्तु जिसकी जो कला शम्भु में है ज्योत्सना उसके ही प्रति गमन करे। हे सुरोत्तमो ! प्रतिमास में चौदह कलाओं की संस्था है। आप लोग प्रतिपदा तिथि से आरम्भ करके चतुर्दशी पर्यन्त चतुर्दश की संस्थाओं से भी तथ्यों का पालन करें ।

तेजों के लोग चतुर्दशी तिथि में क्रम से सूर्य के विम्ब में प्रवेश करें । इस प्रकार से कृष्णपक्ष में चन्द्र का क्षय होता है। शेष कला हरिपत्र में पलायित दर्श में जावें । उस तिथि में निशापति के प्रथम भाग में स्थित रहे । द्वितीय दर्श भाग में रोहिणी के मन्दिर में गमन करे । तीसरे भाग में तो सरस्वती में स्नान करके चन्द्र समुस्थित होता है । विभावस्तु के चतुर्थ तिथि भाग में वह बल से सम्पूर्ण होता है । विम्ब में स्थित घोटक के सहित यह चन्द्रमा मण्डल में जावे। जितने समय पर्यन्त प्रथमा कला क्षय को प्राप्त होवे इसी प्रकार से कृष्णपक्ष तब तक वह प्रतिपदा होती है। द्वितीयादि में कृष्णपक्ष में उसी प्रकार की वृद्धि तथा ह्रास होता है । तिथियों की वृद्धि का हेतु शुक्ल और कृष्ण उसी भाँति होता है। इसके अनन्तर फिर शुक्ल पक्ष में जब तक पूर्व कला उचित होती है तब तक वृद्धि को नहीं जाती है और आदि से प्रतिपदा तिथि है ।

इसके अनन्तर द्वितीय भाग की जो ज्योत्स्ना भगवान हर के मस्तक में है और जो स्थित है वह जावे और गयी हुई वह फिर आ जायेगी । आपके द्वारा दिन – दिन में अमृत पीने के योग्य होता है । हे सुरोत्तमो ! वह पूर्ण अन्त वाला द्वितीया आदि तिथियों से सदा ही चन्द्र स्वंय ही उत्पन्न होगा क्योंकि वहाँ पर ज्योत्स्ना का योग होता है उसी के उसी से उसकी समुत्पत्ति होगी। जिस प्रकार से दिन-दिन में भाग क्षण को प्राप्त होते हैं वे अनुचित चन्द्र की वृद्धि को प्राप्त होते हैं । हे सुरो ! शुक्ल पक्ष में भी प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त हुआ करते हैं । सूर्य के बिम्ब से तेज का भाग पुनः ही समागत होगा । जिस प्रकार से कृष्णपक्ष में उसी भाँति भाग के क्रम को प्राप्त होगा । भगवान् शम्भु के मस्तक में संस्थित चन्द्रमा से ज्योत्सना प्रति दिन पुनः आयेगी। सूर्य के बिम्ब से तेजोभाग स्वयं ही अमृत की वर्षा करता है । इसी प्रकार से शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की वृद्धि होगी। दोनों पक्षों में जो शुक्लत्व और कृष्णत्व के नाम हैं वे चन्द्रमा के क्षय और वृद्धि से ही हुआ करते हैं । जब चन्द्र वृद्धि को प्राप्त होता है तो उसे कृष्ण पक्ष पुकारा जाया करता है । जितने काल के द्वारा जो भाग क्षय और वृद्धि को प्राप्त होगा उतने ही काल को अभिव्याप्त करके वह तिथि फिर स्थित रहेगी ।

चिरकाल में वृद्धि अथवा क्षय शीघ्रता से वृद्धि अथवा क्षय को द्रुत से अर्थात् शीघ्रता से तिथियों का सदा क्षय होता है और चिरकाल तिथियों में प्रवेश में वृद्धि होती है । हव्य और कव्य चन्द्रदेव के बिना सम्भव नहीं होगा । इस कारण से उसकी वृद्धि के लिए हे देवताओं ! आप लोग चन्द्रदेव की रक्षा करें। 100 अनुमास से कला शेष चन्द्रदेव का आस्वादन करना चाहिए। अमावस्या के अपराध काल में तो वह पितृगणों के साथ रोहिणी के मन्दिर में रहता है। उसके ही आस्वादन से प्रतिदिन कला की वृद्धि हुआ करती है । उस कव्य से पितृगण भी परामृप्ति को प्राप्त होंगे।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर सभी सुरगण जैसा भी विधाता ने कहा था वैसा ही उन्होंने चन्द्र की क्षय और वृद्धि के लिए लोक हित के स्वरूप चन्द्रमा के अर्धभाग को देवों सहित विधिपूर्वक अत्यन्त क्षुधित होकर शिर से ग्रहण किया था । जो तेज परनित्य अज, अव्यय और अक्षय है उस स्वरूप वाली ही चन्द्रमा की कला है जो प्राप्त हो गई थी।

जिस समय योगी की आनन्दज, अजर और पर ज्योति प्रवेश किया करती है उस समय में उनका चिन्तन लीनता को प्राप्त हो जायेगा । महादेव के मस्तक में विराजमान सुधा निधि के होने पर चित्त की लीनता में चन्द्र के द्वारा मुक्ति हो जाया करती है। इस प्रकार से यह वैदिकी श्रुति है । महादेव जी ने इसका ज्ञान प्राप्त करके क्षय और वृद्धि के अनिवाकृत चन्द्र को लोकों के हित के लिए शिर के द्वारा ग्रहण किया था । चन्द्रमा की ज्योत्स्ना के समायोग से औषधियाँ वृद्धि को प्राप्त हुआ करती हैं । सब औषधियों के प्रवृद्ध होने पर ही अध्वरों की प्रवृत्ति हुआ करती है । अध्वरों के प्रवृत्त हो जाने पर देवगण अपने-अपने भागों का परिग्रहण किया करते हैं और पितृगण बहुत कव्यों को ग्रहण करते हैं । अमृत ब्रह्माजी ने देवगणों के लिए बहुत पुरातन सृजा था अब देवता लोग हव्यभाग से हीन हुये जो भी हैं वे उसके द्वारा ही तृप्ति का लाभ किया करते हैं । यज्ञ आयातित भी वह ज्योत्सनाओं से निश्चय ही वृद्धि को प्राप्त होता है और वह यज्ञों की ज्योत्सना के विनाशभूत अन्यथा क्षीण हो जाया करता है ।

अतएव यज्ञ के अमृत का कारण भी चन्द्रमा ही स्वयं होता है अतएव दक्ष प्रजापति के शाप से रक्षा के लिए चिकीर्षित होता है । आज भी कृष्णपक्ष में सुरगणों के द्वारा चन्द्र का पान किया जाया करता है। तेज तो सूर्य देव को चला जाता है और चन्द्र का अर्धभाग तथा उसकी ज्योत्सना भगवान शम्भुदेव के समीप में चले जाया करते हैं और फिर शुक्ल पक्ष में शेष कला उदित हुआ करती है । ज्योत्सना का दूसरा भाग और द्वितीय तेज का भाग और अन्य भी शिव के मस्तक में संस्थित चन्द्रमा से और क्रम से सूर्य के बिम्ब से चन्द्र की सोलह कलायें हैं उनमें एक भगवान शम्भु के मस्तक में रहा करती है । शेष कलाओं के सित और असित अर्थात् शुक्ल और कृष्ण ये दोनों पक्ष उदय और क्षय वाले ही होते हैं । यह सब मैंने आपको बतला दिया है । जिस प्रकार से भी चन्द्रमा का विभाग किया गया है, जिस रीति से ब्रह्मा के द्वारा उस श्रेष्ठ पर्वत में चन्द्रमा समागत हुआ था । जिस कारण से यज्ञ भाग के स्थित होने पर विभु को देवों का अन्न किया था । जिस तरह से कव्य के स्थित होने पर भी पितृगण का अन्न तिथियों का क्षय और वृद्धि होता है। इस परम पुण्यतम आख्यान को जो भी कोई मनुष्य एक बार भी श्रवण कर लिया करता है उसके कुल राजयक्ष्मा का महारोग कभी भी किसी को नहीं रहा करता है और न होता ही है । जो भी कोई मनुष्य राजयक्ष्मा से पराभूत है और विधाता के वचन का श्रवण कर लेता है तो उसका यक्ष्मा विनष्ट हो जाया करता है । यह आख्यान परमाधिक स्वस्ति अर्थात् कल्याण का स्थान है, पुण्यमय है और शुभ तथा गुह्य से भी अधिक गोपनीय है । जो भी कोई एकचित्त होकर इसको सुनता है वह महान् पुण्य का भागी होता है ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे चन्द्रशापविमोचन नाम एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

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