कालिका पुराण अध्याय २२ || Kalika Puran Adhyay 22 Chapter

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कालिका पुराण अध्याय २२ में वशिष्टजी द्वारा सन्ध्या को दीक्षा देना, श्रीहरि विष्णु के स्वरूप का वर्णन करना और सन्ध्याद्वारा हरिस्तोत्र का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय २२                  

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- जहाँ पर सब महागिरि के शिखर पर देवों की सभा हुई थी वहाँ पर विधाता के वचन से सीता नाम वाली देव नदी समुत्पन्न हुई थी। जिस समय मनोहर सीता के जल से स्तवन कराकर उन सब देवगणों ने ब्रह्मा के वाक्य से चन्द्र का पान कर गये थे उस समय में सीता नदी का जल चन्द्रमा के स्नान के योग से वह अमृत होकर उस वृहल्लोहित संज्ञा वाले में निपातित हो गया था । उस समय में उसका जल बढ़ गया था और उस सरोवर में वह नहीं समाया था । उसको ब्रह्माजी ने स्वयं ही देखा था कि वह विशेष बढ़ा हुआ जल अमृत था । उसके देखने से उस जल से एक अत्युत्तम कन्या समुत्थित हुई थी । उस कन्या का नाम चन्द्रभागा था जिसको कि विधाता ने स्वयं ही रखा था। ब्रह्माजी की सहमति से सागर ने उसको अपनी भार्या बनाने के लिए ग्रहण कर लिया था । उसी के द्वारा अधिष्ठित जल को निशावर्ति ने गदा के अग्रभाग से भेदन करके पश्चिम पार्श्व में उस गिरि के प्रति समवाहित कर दिया था ।

उसके अमृत जल का भेदन करके वृहल्लोहित नाम वाला सरोवर कर दिया था और वह चन्द्रभाग नदी तो सागर को गमन करने वाली थी । उस समय सागर ने भी महानदी चन्द्रभाग भार्या को उस जल के प्रवाह से उसको अपने भवन में ले गया था । इसी रीति से उसमें चन्द्रभागा नाम वाली नदी समुत्पन्न हुई थी । वह चन्द्रभागा महान शैल में अपने गुणों के द्वारा सदा गंगा के ही समान थी। नदियां और सब पर्वत स्वभाव से ही दो रूपों वाले सदा हुआ करते हैं। नदियों का रूप तो उनका जल ही होता है तथा शरीर दूसरा ही हुआ करता है । पर्वतों का रूप तो स्थावर ही होता है और उनका शरीर दूसरा होता है । जैसे शुक्तियों और कम्बुओं का अंतर्गत तनु होता है।स्वरूप तो बाहर होता है और वह सदा ही प्रवृत्त हुआ करता है।  इसी प्रकार से जल तथा उस समय में नदी और पर्वत का स्थावर होता है। उनका काम तो अन्तर में वास किया करता है और निरन्तर उत्पन्न नहीं होता है ।

पर्वत का शरीर तो स्थावर के द्वारा ही आप्यायित होता है । उसी भाँति नदियों का शरीर जल के द्वारा ही सदा आप्यापित हुआ करता है। नदियों का तथा पर्वतों का रूप कामरूपी होता है। भगवान् विष्णु ने यत्नपूर्वक पहले जगत् की स्थिति के लिए ही कल्पित किया था । हे सुरगणों! जल की हानि होने पर निरन्तर ही नदियों को महान् दुःख हुआ करता है और विकीर्ण हो जाने पर स्थावर गिरि के शरीर में उत्पन्न होता है । उस पर्वत पर जो कि चन्द्रभाग नाम वाला था बृहल्लोहित के तट पर गमन करने वाली सन्ध्या का अवलोकन किया था और वशिष्ठ मुनि ने उस समय में बड़े ही आदरपूर्वक उससे पूछा था ।

वशिष्ठ जी ने कहा- हे भद्रे ! आप इस निर्जन महान् गिरि पर किस प्रयोजन के लिए आयी हैं । हे गौरि ! आप किसकी पुत्री हैं ? और आपका क्या चिकीर्षित है अर्थात् क्या करने की इच्छा रखती हैं। यदि आपकी कोई भी गोपनीय बात न हो तो मैं यही सुनना चाहता हूँ । आपका मुख तो चन्द्रमा के समान परमाधिक सुन्दर है किन्तु इस समय में वह निःश्री सा क्यों हो रहा है ? उन महात्मा वशिष्ठ मुनि के इस वचन का श्रवण करके उन महात्मा का अवलोकन किया था जो प्रज्वलित अग्नि के ही समान थे। वे उस समय ऐसे ही प्रतीत हो रहे थे मानो शरीरधारी ब्रह्मचर्य के ही सदृश हों। उन जटाधारी को बहुत ही आदर के साथ प्रणिपात करके इसके पश्चात् उस संध्या ने उन तपोधन से कहा था ।

सन्ध्या बोली- जिस प्रयोजन की सिद्धि के लिए मैं इस शैल पर समागत हुई थी वह मेरा कार्य सिद्ध गया है । हे द्विजोत्तम् ! हे विभो ! आपके दर्शन मात्र से ही वह कार्य पूर्ण हो जायेगा । हे ब्रह्मन् ! मैं तपश्चर्या करने के लिए ही इस निर्जन पर्वत पर आई थी। मैं ब्रह्माजी के मन से समुत्पन्न हुई हूँ और मैं लोक में सन्ध्या इस नाम से प्रसिद्ध हूँ। यदि आपको कुछ गोपनीययुक्त होता हो तो आप मुझको उपदेश दीजिए । यही मेरा परम गुह्य चिकीर्षित है और दूसरा कुछ भी नहीं है । तपस्या के भाव का ज्ञान न प्राप्त करके ही मैंने इस तपोवन का उपाश्रय ग्रहण किया है । मैं चिन्ता से परिशुष्क हो रही हूँ और मेरा मन सदा ही काँपता रहता है ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- ब्रह्माजी के पुत्र वशिष्ठ जी ने उस संध्या के वचन को सुनकर उन स्वयं ही सम्पूर्ण तत्त्व के ज्ञाता मुनि ने उससे अन्य कुछ भी नहीं पूछा था । इसके अनन्तर उस समय वशिष्ठ मुनि ने उस नियत आत्मा वाली और तप के लिए अत्यन्त उद्यम धारण करने वाली उसको शिष्य-गुरु के ही समान वशिष्ठ ने मन्त्र दीक्षा दी थी ।

कालिका पुराण अध्याय २२

ॐ नमो वासुदेवाय ओमित्यन्तेन सन्ततम् ॥

मौनीतपस्यामारभ्यतान्मे निगदतः शृणु ॥ ३५ ॥

वह मन्त्र ॐ नमो वासुदेवाय ॐयह है । इसी मन्त्र के जाप के द्वारा निरन्तर मौनी होकर तपश्चर्या का समारम्भ करो।

उसमें कुछ नियम हैं उनका अब श्रवण करो ।

नित्य स्नान मौन होकर करना चाहिए और मौन व्रत के साथ ही पूजन करें। प्रथम तो छठवें दोनों कालों में पूर्ण और फलों का आहार करें और तीसरे षष्ठ काल में उपवास परायण ही होना चाहिए । इस प्रकार से तप की समाप्ति में षष्ठ काल की क्रिया होती है । वृक्षों के छालों के वस्त्र धारण करें और उस समय पर भूमि में ही शयन करें । इसी रीति से मौनी रहें और तपस्या नाम वाली व्रतचर्या फल के प्रदान करने वाली होती है । इस तरह के तप का उपदेश करके इच्छापूर्वक माधव भगवान का चिन्तन करो। वे प्रसन्न होकर आपके अभीष्ट को शीघ्र ही प्रदान कर देंगे ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर वशिष्ठ जी ने उस संध्या के लिए तप करने की क्रिया का उपदेश देकर और उससे न्याय के अनुसार सम्भाषण करके मुनि वहीं पर अन्तर्धान हो गये थे । उसने तपस्या के भाव का ज्ञान प्राप्त करके और परम आनन्द प्राप्त करके उसने वृहल्लोहित के तीर पर स्थित होकर तपश्चर्या करना आरम्भ कर दिया था । उसने वशिष्ठ मुनि ने जैसा कहा था उस मन्त्र को तथा तप के साधन को करके उसी व्रत से भक्तिभाव के द्वारा गोविन्द का पूजन किया था । परम एकान्त मन वाली को चारों युगों (सत्य, त्रेता, द्वापर, कलियुग ) का समय व्यतीत हो गया था ।

उसके इस अद्भुत तप को देखकर कोई भी विस्मय को प्राप्त हुए बिना नहीं रहा था कि उस तरह की तपश्चर्या अन्य किसी की भी नहीं होगी । इसके अनन्तर मनुष्यों के मान से चारों युगों की एक चौकड़ी व्यतीत हो गई थी। फिर अन्दर-बाहर और आकाश में अपना वपु दिखला कर उस रूप से परम प्रसन्न हुए जिस रूप को उसने चिन्तन किया था वहीं उसके सामने प्रत्यक्षता को प्राप्त हो गये थे जो भगवान विष्णु इस जगत् के स्वामी थे। इसके अनन्तर अपने सामने अपने मन के द्वारा चिन्तन किए गए हरि को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई थी । उनका स्वरूप-

शङ्खचक्रगदापद्मधारिणम्पद्म लोचनम् ॥ ४७॥

केयूरकुण्डलधरङ्किरीट मुकुटोज्ज्वलम् ॥

तार्क्ष्यस्थम्पुण्डरीकाक्ष न्नीलोत्पलदलच्छविम् ॥ ४८॥

शंख, चक्र, गदा और पद्म के धारण करने वाला था तथा वे किरीट और मुकुट से परम समुज्वल थे। पुण्डरीक के समान उनके नेत्र थे और वे गरुड़ पर विराजमान थे । उनकी छवि नीलकमल के समान थी ।

मैं भय के साथ क्या कहूँगी अथवा किस प्रकार से हरि भगवान का स्तवन करूँ इसी चिन्ता में परायण होकर उसने अपने नेत्रों को मूँद लिया था । मूँदे हुए लोचनों वाली के हृदय में भगवान ने प्रवेश किया था और उसमें उस संध्या को परम दिव्य ज्ञान को प्रदान किया था और उसकी दिव्य वाणी बोलने की शक्ति दी थी तथा दिव्य चक्षु भी प्रदान किए थे। वह फिर परम दिव्य ज्ञान, दिव्य लोचन और दिव्य वाणी को प्राप्त करने वाली हो गई थी। उसने प्रत्यक्ष में हरि को दर्शन कर उसका स्तवन किया था ।

कालिका पुराण अध्याय २२

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर उसका शरीर वल्कल और अजिन (मृगचर्म) से संवृत था तथा बहुत ही क्षीण और मस्तक पर पवित्र जटाजूटों में राजित था अर्थात् परम शोभित था । मादिनी में सर्जित कमल के सदृश मुख को देखकर भगवान हरि कृपा से समावष्टि होकर उस सन्ध्या से यह बोले ।

श्री भगवान ने कहा- हे भद्रे ! आपकी इस परम दारुण तपश्चर्या से मैं अधिक प्रसन्न हो गया हूँ। हे शुभ प्रज्ञा वाली! मुझे आपकी स्तुति से अधिक प्रसन्नता हुई है । अब आप मुझसे वरदान जो भी अभीष्ट उसे प्राप्त कर लो। जिस वर से उनका मनोगत कार्य हो मैं उसको कर दूँगा, तुम्हारा कल्याण होवे, मैं तुम्हारे इन व्रतों में परम हर्षित हो गया हूँ ।

सन्ध्या ने कहा- हे देव! यदि आप मुझ पर परम प्रसन्न हैं और मेरी इस तपश्चर्या से आपको आह्लाद हुआ है तो अब मैंने प्रथम वर वृत किया है उसी को आप करने की कृपा कीजिए। हे देवेश्वर ! उत्पन्न मात्र ही प्राणी इस नभस्तल में क्रम से ही सकाम न होवें, वे सम्भव होवें । मैं तीनों लोकों में परम पतिव्रता प्रथित हो जाऊँगी जैसे कोई दूसरी न होवे। मैंने यह एक बार व्रत किया है। काम वासना से संयुत मेरी दृष्टि कहीं पर भी न गिरेगी । हे जगत् के स्वामिन्! पति को छोड़ कर कहीं पर मेरी सकाम दृष्टि नहीं होवे । यह भी मेरा परम सुकृत होगा। जो कोई भी पुरुष कामवासना से युक्त होकर मुझे देखे उसका पुरुषत्व विनाश को प्राप्त हो जावेगा और वह क्लीव अर्थात् नपुंसक हो जावेगा ।

श्री भगवान् ने कहा- प्रथम तो शैशव भाव हुआ करता है और दूसरा कौमार नाम वाला भाव होता है, तीसरा यौवन का भाव है और चतुर्थ वार्द्धक भाव होता है। तीसरे भाव अर्थात् यौवन के भाव को सम्प्राप्त हो जाने पर जो एक शरीरधारी अवस्था का भाग है मनुष्य उसमें ही कामवासना से समन्वित हुआ करते हैं । कहीं-कहीं पर द्वितीय भाव के अन्त में भी हो जाते हैं। मैंने आपके तप से जगत् में मर्यादा स्थापित कर दी है कि उत्पन्न होते ही शरीर धारी सकाम नहीं होंगे और आप तो लोक में उस प्रकार का भाव प्राप्त करेंगी कि तीनों लोकों में अन्य किसी का भी ऐसा भाव नहीं होगा। जो भी कोई बिना आपके पाणिग्रहण करने के किए हुए कामवासना से युक्त होकर आपको देखेगा वह तुरंत ही क्लीवता अर्थात नपुंसकता को प्राप्त करके अतीव दुर्बलता को पा लेगा । आपका पति तो बहुत बड़े भाग्य वाला होगा जो सुन्दर रूप लावण्य से और तप से समन्वित होगा । वह आपके ही साथ रहकर सात कल्पों के अन्त पर्यन्त जीवन के धारण करने वाला होगा । ये जो भी वरदान आपने मुझसे प्रार्थित किए थे वह सब मैंने पूर्ण कर दिये हैं और अन्य भी मैं आपको बतलाऊँगा जो कि पूर्व में आपके मन में स्थित था ।

आपने पूर्व में ही अग्नि में अपने शरीर के परित्याग करने की प्रतिज्ञा की थी वह प्रतिज्ञा बारह वर्ष तक होने वाले मुनिवर मेधातिथि के यज्ञ में की थी । हुत से प्रज्जवलित अग्नि में शीघ्र ही आप गमन करें । उस पर्वत की उपत्यका में चन्द्रभागा नदी के तट पर तापसों के आश्रम में मेधातिथि महायज्ञ कर रहे हैं वहाँ पर जाकर स्वयं छत्र होती हुई जिसको मुनियों ने भी नहीं देखा है, मेरे प्रसाद से वह्नि से जलकर आप उसकी पुत्री होंगी। जो भी अपने मन के द्वारा अपने पति होने की थी वह जो भी कोई हो उसको अपने मन में धारण करके अपने शरीर का त्याग वह्नि में कर दो। हे सन्ध्ये! जब आप इस परम दारुण पर्वत में तपश्चर्या कर रही हो उस तप को करते हुए चारों युग व्यतीत हो गयें हैं तथा कृतयुग के व्यतीत होने पर त्रेता के प्रथम भाग में दक्ष की कन्या उत्पन्न हुई थी । उस प्रजापति दक्ष ने सत्ताईस अपनी कन्याओं को चन्द्रदेव के लिए दे दिया था ।

उन कन्याओं के लिए जिस समय में क्रोधयुक्त दक्ष के द्वारा चन्द्रदेव को शाप दिया गया था उस समय में आपके समीप में सभी देवगण समागत हुए थे । हे सन्ध्ये ! उसके द्वारा ब्रह्मा के साथ देवगण नहीं देखे गये थे क्योंकि आपने मुझमें ही अपना मन लगा रखा था । अतः आप भी उनके द्वारा नहीं देखी गई थीं । चन्द्रदेव को दिए हुए शाप को छुटकारे के लिए जिस प्रकार से विधाता ने चन्द्रभाग नदी की रचना की थी उसी समय में यहाँ पर मेधातिथि उपस्थित हो गया था । तप से उसके समान कोई भी अन्य नहीं है और न अब तक कोई हुआ ही है तथा भविष्य में ही कोई ऐसा तपस्वी नहीं होगा । उस मेधातिथि महान् विधि वाला ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ का आरम्भ किया था । वहाँ पर जो वह्नि प्रज्वलित है उसी में अपने शरीर का त्याग करो । हे तपस्विनी ! यह मैंने तुम्हारे की कार्य के सम्पादन करने के लिए स्थापित किया है । हे महाभागे ! आप वह करिए और उस महामुनि के यज्ञ में गमन करिए ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- भगवान् नारायण ने स्वयं ही अपने कर के अग्रभाग से इसके अनन्तर सन्ध्या का स्पर्श किया था। इसके पश्चात् एक ही क्षण में उसका शरीर पुरोडाश से परिपूर्ण हो गया था । इस प्रकार से करके जगत् के स्वामी वहाँ पर अन्तर्धान हो गये थे और वह सन्ध्या उस सत्र में गई थी जहाँ पर मेधातिथि मुनिवर विद्यमान थे । उसके अनन्तर भगवान विष्णु के प्रसाद से किसी के भी द्वारा उपलक्षित होती होई सन्ध्या देवी ने मेधातिथि मुनि के लिए उपदेश दिया था । उसी तपश्चर्या के उपदेश को मन में करने उस समय सन्ध्या ने पतित्व के रूप से ब्रह्मचारी ब्राह्मण का वरण रखा था। उस महायज्ञ में समिद्ध अग्नि में मुनियों के द्वारा उपलक्षित न होती हुई उस समय में भगवान विष्णु ने प्रसाद से विधाता की पुत्री ने प्रवेश किया । फिर उसी क्षण में उसका शरीर पुरोडाश से परिपूर्ण हो गया था । दग्ध हुई पुरोडाश की गन्ध लक्षित होती हुई ही विस्तार को प्राप्त हो गई थी ।

वह्नि ने उसके शरीर का दाह करके पुनः भगवान् विष्णु की ही आज्ञा से शुद्ध को सूर्य मण्डल में प्रवृष्टि कर दिया था । सूर्य का दो भागों में विभाग करके उसके शरीर की उस समय में रथ में जो अपना था, पितृगण और देवों की प्रीति के लिए संस्थापित कर दिया था । उसका अर्धभाग हे द्विजोत्तमो! अर्थात् उसके शरीर का आधा हिस्सा प्रातः सन्ध्या हो गई थी जो अहोरात्र आदि के मध्य में रहने वाली थी । उसका शेष भाग था जो अहोरात्रान्त के मध्य में रहने वाली वही वह सायं सन्ध्या हो गयी थी। जो सदा ही पितृगणों की प्रीति को प्रदान करने वाली थीं। सूर्योदय से प्रथम जो अरुण का उदय जिस समय में होना है प्रातः सन्ध्या उसी समय में उदित हुआ करती है जो देवगणों की प्रीति को करने वाली हैं ।

सूर्यदेव के अस्ताचलगामी होने पर शोण (रक्त) पद्म के सदृश होती है वह सायं सन्ध्या भी समुदित हुआ करती है जो पितृगणों के मोद के करने वाली हुआ करती है । उनके प्राणों को प्रभु भगवान के द्वारा शरीरों के दिव्य शरीर से ही किये थे ।

महामुनि के यज्ञ के अवसान के अवसर प्राप्त करके हो जाने पर मुनि के द्वारा तपे हुए सुवर्ण की प्रभा के तुल्य पुत्री वह्नि के मध्य में प्राप्त हुई थी। उस समय में उस पुत्री को मुनि ने आमोद से समन्वित होकर ग्रहण कर लिया था। उस पुत्री को यथार्थ जल में संस्पनन कराकर कृपा से युत होते हुए अपनी गोद में रखा था और उनका नाम अरुन्धती, यह महामुनि ने रखा था। वे शिष्यों में परिवृत होते हुए वहाँ पर महान मोद को प्राप्त हुए थे ।

वह जिस किसी भी कारण से धर्म का विरोध नहीं करती थी अतएव त्रिलोकी में विदित नाम उसने प्राप्त किया था अर्थात् वह जैसा करती थी वैसा ही नाम की प्राप्ति उसने की थी। उन मुनि ने यज्ञ को समाप्त करके कृतकृत्य भाव को प्राप्त किया था और तनया के प्रलम्भ से वे सम्मदयुत हुए थे। उस अपने आश्रम के स्थान में अपने शिष्य वर्गों के सहित महर्षि उसी अपनी तनया को प्यार किया करते थे और निरन्तर उसी को प्रिय बना लिया था ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे सन्ध्यादीक्षानाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

 

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