कालिका पुराण अध्याय २६ || Kalika Puran Adhyay 26 Chapter

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कालिका पुराण अध्याय २६ में आदि सृष्टि का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय २६                      

मार्कण्डेय मुनि ने कहा– यह काल नाम वाला स्वयं देव ही है जो सृजन, पालन और संहार करने वाला है । उसके किसी भाग से सृजन और प्रलय अविच्छिन्न है । लय भाग के व्यतीत हो जाने पर सृजन करने की इच्छा समुत्पन्न हुई थी और ज्ञान के स्वरूप वाले उस समय परब्रह्म विभु को ही सृजन की इच्छा उत्पन्न हुई थी। इसके अनन्तर उसके द्वारा प्रकृति स्वयं ही भली भाँति धृति के द्वारा सँक्षोभित हुई थी । वह संक्षुब्ध होकर त्रिगुण के स्वरूप वाली (सत्व, रज, तम ये तीन गुण हैं) वह प्रकृति सभी कार्य करने के लिए हुई थी। जिस प्रकार से सन्निधि मात्र से ही गन्ध क्षोभ के लिए हुआ करती है उसी भाँति लोकों के कर्ता होने से यह परमेश्वर मन का होता है। हे ब्रह्मण वह भी क्षोभ के करने वाला है और वही क्षोभ करने के योग्य होता है। वह संकोच और विकास के प्रधान होने पर भी स्थित है। परमेश्वर प्रभु को पुराण पुरुष अपनी केवल इच्छा के करने ही से सृष्टि की रचना करने के लिए कारण हुआ करता है। इसके अनन्तर उन जगतों के स्वामी ने फिर भी संक्षोभ किया था। फिर गुणों के अर्थात् सत्व, रज और तम इन गुणों के सामान्य होने से जो कि क्षेत्र के ज्ञाता में अधिष्ठित थे उस स्वर्ग अर्थात् सृजन के काल में गुणों के व्यञ्जन की उत्पत्ति हो गई थी ।

ईश्वर की इच्छा से समीचीन प्रधान तत्व से प्रथम ही अद्भुत महतत्व प्रधान को समावृत किया था। प्रधान के द्वारा आवृत्त उस महत्व से अहंकार उत्पन्न हुआ था । यह अहंकार वैकारिक, तैजस और तामस भूतादि था। सबसे आगे अर्थात् पहले तो अहंकार समुत्पन्न हुआ था। वह तीन प्रकार का था वह सनातन भूतादि का और इन्द्रियों का हेतु था । उस महत् ने अर्थात महतत्व ने उत्पन्न होते ही अहंकार को समावृत्त कर लिया था । उस समावृत अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ समुत्पन्न हुई थीं। सबसे पहले शब्द तन्मात्रा और फिर रसतन्मात्रा एवं पाँचवीं गन्ध तन्मात्रा क्रम से ही समुत्पन्न हुई थीं। उन सभी तन्मात्राओं में प्रत्येक तन्मात्रा को अहंकार ने समावृत्त कर लिया था । फिर उन परमेश्वर प्रभु ने शब्द के लक्षण वाले आकाश को शब्द की तन्मात्रा से सृजित किया था । उस प्रकार से शब्द मात्रा को उस भूतादि ने समावृत्त कर लिया था ।

शब्द तन्मात्रा के सहित स्पर्श तन्मात्रा से शब्द से समन्वित स्पर्श गुण वाला वायु समुत्पन्न हुआ । आकाश और वायु से संयुत रूप तन्मात्रा से देदीप्यमान तेज हुआ था जो सभी ओर से समन्वित हुआ था इसके उपरान्त वायु तेज से युक्त विपत से जल की उत्पत्ति हुई । वह रस तन्मात्रा से भली-भाँति सभी ओर से उसके द्वारा व्याप्त हो गया था । जल को भी जो अपरमिति वाले भगवान विष्णु की आधार शक्ति है । उसने निराधार और अनिल के द्वारा आन्दोलितों को धारण किया था । सबसे प्रथम परमेश्वर प्रभु ने उनमें बीज का सृजन किया था। यह बीज अंड हो गया था जिस अण्ड की प्रभा सहस्त्रांशु के ही समान थी । महत्तत्व के आदि लेकर विशेष के अन्त पर्यन्त सबसे समावृत होकर आरम्भ किया था। जल, अग्नि, अनिल, आकाश, तम और भूतादि से समावृत्त जिस तरह से महान से भूतादि होते हैं वह अण्ड दश गुणों से समावृत्त था । जिस रीति से वाह्य दलों में बीज व्याप्त होता है ठीक उसी भाँति से ही हे द्विजो! यह तोय आदि से अतुल ब्रह्माण्ड व्याप्त था ।

उस अण्ड के मध्य भगवान विष्णु स्वयं ही ब्रह्मा के स्वरूप वाले शरीर को रखकर दिव्यमान से वह एक वर्ष पर्यन्त स्थित होकर उन्होंने अपनी बुद्धि से बीजगण को ग्रहण किया था । ध्यान के द्वारा उस अण्ड को स्वयं ही दो भागों में करके वह एक क्षणभर उसमें संस्थित रहे थे। उसी समय इसी के द्वारा सृष्टि गन्धोत्तर समस्त तन्मात्राओं के समूह हुए थे और यह स्पर्श, शब्द, समस्त का रूप गन्ध और रस की आधारभूत थी और समस्त उन तन्मात्राओं के समुदाय से सम्पूर्ण पृथ्वी आधार की गयी थी । उनके उत्थित हुओं से यह कनकाचल समुत्पन्न हुआ था और जटायुओं से पर्वतों का संचय हुआ था । गन्धोदकों से सात सागर हुए और दो स्कन्धों से त्रिदशालय अर्थात देवों के निवास का स्थान हुआ था। दूसरे देश में उत्पन्न दो स्कन्धों से वे सात नागों को गृह हुए थे। जिनकी संज्ञा पाताल है और जो महान सुखप्रद है जहाँ पर महेश स्वयं रहते हैं । उसके तेज समूहों से यह लोक उत्पन्न हुआ था जो कि महर्लोक इस नाम से श्रुत हुआ था । गर्भ से मरुत् जनलोक नाम वाला हुआ था और ध्यान से परम श्रेष्ठ तपोलोक उत्पन्न हुआ था । उस अण्ड की ऊर्ध्वगति में सत्यलोक समुत्पन्न हुआ था । उस ब्रह्माण्ड के खण्ड के भगवान अच्चुत विष्णु हैं जिनको धीर पुरुष परमपद कहते हैं और जो ज्ञान के ही द्वारा जानने के योग्य वीर परिनिष्ठित रूप से समन्वित है ।

इसी रीति से सबसे प्रथम विष्णु स्वरूप वाले हुए थे और वे ही स्थिति अर्थात् पालन के लिए हुए । क्योंकि ये स्वयं ही समुत्पन्न शरीर वाले थे अर्थात् इनकी उत्पत्ति स्वयं अपनी इच्छा से ही हुई थी और इनको किसी ने उत्पन्न नहीं किया था। अतएव उन भगवान विष्णु ने स्वयम्भूयह प्रसिद्धि प्राप्त की थी। इसके अनन्तर भगवान विष्णु यज्ञ वाराह के रूपधारी हुए थे जो भूमि के समुद्धरण करने के लिए परमाधिक पीन थे । उन वराह के रूपधारी प्रभु ने मध्य में निमग्न होती हुई इस पृथ्वी का भेदन करके अत्यधिक वेग से अन्दर चले गये थे । अपनी दाड़ के अग्र भाग में पृथ्वी को रखकर सम्पूर्ण जल का अतिक्रमण करके ऊपर आगत हो गये थे । इसके अनन्तर यह सात फनों से सयंत अनन्त की मूर्ति होकर इस पृथ्वी को धारण करने के लिए प्रकट हो गये थे। शेषनाग ने भी अपने फन को फैलाकर और उसने एक फन पर धरित्री धारण करके जल में संस्थित होते हुए जल के ऊपर उसको रख दिया था और यज्ञ वाराह ने भी पृथ्वी को त्याग दिया था । उन शेष ने भी फनों को फैला दिया था। उनमें से एक फन तो पूर्व दिशा की ओर था तथा दूसरा फन पश्चिम में था और अन्य फन दक्षिण और उत्तर दिशा की ओर थे । उनका एक फन ऐशानी दिशा में और दूसरा फन आग्नेय दिशा में था। एक फन पृथ्वी के मध्य में था और उसका तनु नैर्ऋत्य दिशा में था । वहाँ पर वायव्य दिशा शून्य थी । फिर नम्र भूमि स्थित थी । वह दीर्घ तनु जल में था जिसको अनन्त न धारण कर सके थे । उस समय हरि कर्म के रूप वाले हो गये थे और अनन्त के काम को उन्होंने धारण किया था ।

उस कच्छप ने अपने चरणों से नीचे ब्रह्माण्ड का आक्रमण करके वायव्य दिशा में ग्रीवान्वित के पृष्ठ में अनन्तर को धारण किया था । विशाल शरीरधारी भगवान अनन्त देव ने कूर्म के पृष्ठ पर नौ वेष्टनों (लपेटों) से अपने शरीर को देखकर सुख से ही पृथ्वी को धारण किया । उसके अनन्तर अनन्त देव के फन पर चलती हुई पृथ्वी स्थित हुई थी । वराह भगवान ने इस पृथ्वी को अचल बनाने का प्रयत्न किया था और उसको अति सुदृढ़ अचलायमान कर दिया था । मेरु पर्वत को अपने सुरों के द्वारा प्रहत करके पृथ्वीतल में गाड़ लिया था फिर उसका भेदन करके वह पृथ्वी के अन्दर प्रवेश कर गये थे । वराह भगवान के चरणों के प्रहारों से वह महान पर्वत सोलह सहस्त्र योजन तक रसातल में प्रवेश कर गया था । हे द्विजोत्तमो ! मेरु पर्वत का शिर उससे बत्तीस हजार यौजन के विस्तार वाला हो गया था ।

कालिका पुराण अध्याय २६                      

रुद्र और ब्रह्मा का नाम विभाजन

इसके उपरान्त ब्रह्माजी ने महान् ओज वाले वराह भगवान को प्रणाम किया था और देवों के देव अर्धनारीश्वर को शरीर से समुत्पन्न किया था। पहले ही उत्पन्न होने के साथ वह महान ध्वनि वाले वे रूदन करने लगे थे । ब्रह्माजी ने उनसे कहा था कि तुम क्यों रो रहे हो । उन महेश्वर ने उत्तर दिया था कि उनका नाम रखो । रुदन करने से वे रुद्र नाम वाले हुए थे ।

उन ब्रह्माजी ने कहा- हे महाशय ! आप रूदन मत करो। इस प्रकार से कहे हुए वे रुद्र सात बार रोये थे अर्थात् सात बार उन्होंने रुदन किया था। फिर ब्रह्माजी ने इसके उपरान्त सात दूसरे नाम किये थे। शर्व, भव, भीम और चौथा नाम महादेव किया था । पाँचवाँ नाम उग्र, छठवाँ नाम ईशान और परम पशुपति ये नाम किए।

ब्रह्माजी ने कहा- मेरे द्वारा जिस प्रकार से आपका विभाग किया गया है वैसे ही आप अपने आपको विभक्त करिए। आप भी बहुत सृष्टि के ही लिए हैं और आप भी प्रजापति हैं ।

इसके अनन्तर ब्रह्माजी दो भागों में विभक्त हो गये थे । वे अपने आधे भाग में पुरुष हुए थे और आधे भाग में नारी हो गए थे और उसमें प्रभु ने विराट का सृजन किया था । उसको भगवान ब्रह्माजी ने कहा था – हे प्रजापते ! सृष्टि की रचना करो। उस विराट् ने भी तपश्चर्या का तपन करके उसने स्वायम्भुव मनु का सृजन किया था । उस स्वायम्भु मनु ने भी तप करके ब्रह्माजी को परितुष्ट कर दिया था। उसके द्वारा तुष्ट हुए ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना करने के लिए अपने मन से दक्ष का सृजन किया था अर्थात् दक्ष को मन से ही उत्पन्न कर दिया था । दक्ष के सृष्ट हो जाने पर मनु के द्वारा दशावतार ब्रह्मा प्रणत हुए थे और फिर भी और मानस पुत्रों की सृष्टि की थी। उन पुत्रों के नाम ये हैं – मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वशिष्ठ, भृगु और नारद । इन सबका उत्पादन करके जो कि मन के ही द्वारा हुआ था फिर स्वायम्भू मनु से उन्होंने कहा था कि आप सृजन करो, यही कहकर लोकों के ईश ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये थे ।

वाराह भगवान ने इसके अनन्तर पौत्र से द्वारा सात सागरों को खोदकर परमेश्वर ने पृथिवी को उनको वलय के आधार वाले बनाकर सृजन किया था । इसके उपरान्त इन्होंने सात बार भ्रमण करने के द्वारा सात सागरों की रचना करके सात द्वीपों को अवछिन्न करके वे फिर पृथ्वी के अन्दर चले गये थे । लोकालोक पर्वत को इस पृथ्वी का वेष्टना बना करके स्थित कर दिया था । उसको सुदृढ़ रूप से भित्ति प्रान्त में गृह की ही भाँति स्थापित कर दिया था । हे विप्रगणो! मैंने आप लोगों के समक्ष में यह आदि सृष्टि का वर्णन कर दिया है। हे महर्षियों! प्रतिसर्ग में मैं इसको बतलाऊँगा उसे आप श्रवण करिए ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे आदिसृष्टिवर्णननाम षड्विंशतितमोऽध्यायः॥ २६ ॥

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