कालिका पुराण अध्याय ५ || Kalika Puran Adhyay 5 Chapter
कालिका पुराण अध्याय ५ में काली स्तुति का वर्णन है।
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ५
॥ काली स्तुति वर्णन ॥
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर उस समय ब्रह्माजी ने महान् आत्मा वाले दक्ष के लिए और मरीचि प्रमुख मुनियों से यह वचन कहा था।
ब्रह्माजी ने कहा- भगवान् शम्भु की पत्नी होने वाली कौन है जो उनको मोहित कर देगी ? इसी का ध्यान करते हुए उन्होंने शिव की कान्ता के विषय में मन स्थिर करने का उत्साह नहीं किया था । दक्ष ! जगन्मयी, महामाया, विष्णु की माया के बिना तथा सन्ध्या, सावित्री और उमा के अतिरिक्त अन्य कोई भी उनका सम्मोहन कर देनेवाली नहीं है । इसी कारण मैं इस जगत् को प्रसूत करने वाली भगवान् विष्णु की माया योगनिद्रा का स्तवन करता हूँ क्योंकि वही अपने सुन्दरतम स्वरूप से भगवान् शंकर को मोहित करेगी । हे दक्ष ! आप तो उसी विश्व के स्वरूप वाली का यजन करो जिसके करने से वह आपकी पुत्री होकर भगवान की पत्नी होगी।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इस प्रकार के ब्रह्माजी के वचन का श्रवण करके मरीचि आदि के द्वारा पूजित दक्ष ने सृजन करने वाले ब्रह्माजी से कहा था ।
दक्ष प्रजापति ने कहा- हे लोकों के ईश! हे भगवान् ! जो परमतथ्या और जगत् का हित करने को अपने कहा है वह मैं भली-भाँति करूँगा जिससे उसके मन को हरण करने वाली समुत्पन्न हो जावे । मैं ठीक उसी भाँति का हो जाऊँगा जिस प्रकार से मेरी पुत्री स्वयं ही महात्मा शम्भु की पत्नी होकर विष्णु की माया हो जावे ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- उस वेला में मरीचि जिनमें प्रमुख थे उन सभी ऋषियों ने इसी प्रकार होवे यही कहा था। फिर प्रजापति दक्ष ने जगत् से परिपूर्ण महामाया का अभ्यंजन करना आरम्भ कर दिया था । क्षीरोद के उत्तर में नीर में स्थित होकर उस देवी को अपने हृदय में विराजमान करके अर्थात् उसका अपने मन में पूर्णतया ध्यान करके प्रत्यक्ष रूप से अम्बिका के अवलोकन करने के लिए तपस्या का समाचरण करने के लिए आरम्भ कर दिया था । नियत होकर संयत आत्मा वाले और सुदृढ़ व्रत से संयुत होते हुए तप किया था । उस तप करने के समय में आरम्भ में केवल वायु का आहार, फिर बिना आहार किए हुए और जल का ही केवल आहार तथा पत्तों को आहार करने वाला वह दक्ष रहा था । दक्ष के तप करने के लिए चले जाने पर समस्त जगत् के पति ब्रह्माजी परम पवित्र से भी पवित्रतम परम श्रेष्ठ मन्दराचल के समीप चले गए थे। वहाँ पहुँचकर जगत के धात्री जगत्मयी विष्णु के माया का वचनों के द्वारा और अर्ध्यों से एक मन होकर सौ वर्ष तक स्तवन किया था ।
कालिका पुराण अध्याय ५
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- विरञ्चि (ब्रह्मा) के द्वारा इस प्रकार से स्तवन की हुई वह योगनिद्रा परमात्मा ब्रह्मा के सामने आविर्भूत ( प्रकट) हो गयी थी । उस प्रकट हुई देवी योगनिद्रा का स्वरूप का अब वर्णन किया जाता है ।
स्निग्धाञ्जनद्युतिश्चारुरूपोत्तुङ्गा चतुर्भुजा ।
सिंहस्था खड्गनिलाब्जहस्ता मुक्तकचोत्करा ॥ ५२ ॥
वह स्निग्ध अञ्जन की कान्ति के समान द्युति वाली थी, उसका स्वरूप परम सुन्दर था, वह उन्नत थीं और उनकी चार भुजायें थीं। वह सिंह के ऊपर सवार थीं, उनके हाथों में खड्ग और नीलकमल था, उसके केश पाश खुले हुए थे ।
समक्षमथ तावीक्ष्य स्रष्टा सर्वजगद्गुरु: ।
भक्तया विनम्रतुङ्गांसस्तुष्टाव च ननाम च ॥ ५३ ॥
सृष्टि के सृजन करने वाले जगत् गुरु ब्रह्माजी ने अपने समक्ष समुपस्थित उस देवी का अवलोकन करके उन्होंने अपने उन्नत कन्धों को विनम्र करके बड़े ही भक्ति के भाव से उन देवी को स्तवन किया और प्रणिपात किया था।
कालिका पुराण अध्याय ५
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- उनके इस वचन को सुनकर लोकों के विमोहन करने वाली काली ने मेघ की गर्जना के समान अर्थात् गम्भीर ध्वनि से जगतों के सृजन करने वाले ब्रह्माजी से बोली।
देवी ने पूछा- हे ब्राह्मण! आपने किस प्रयोजन का सम्पादन करने के लिए मेरी स्तुति की है। इसका अवधारण करो और बतलाओ जो भी मनोभाव होवे, यह मेरे सामने शीघ्र ही कहो। मेरे प्रत्यक्ष हो जाने पर कार्य की सिद्धि निश्चिय ही होती है। इस कारण से आप अपना जो मनोऽभिलाषित हो उसे शीघ्र ही कहो जिसको मैं भावित कर दूँगी ।
ब्रह्माजी ने कहा- भूतों के ईश भगवान् शम्भु एक ही अर्थात् अकेले ही विचरण किया करते हैं और दूसरी की इच्छा ही नहीं रखते हैं। आप उनको मोहित कर दो और वह स्वयं ही दारा ग्रहण कर लेवें । आपके बिना अर्थात् आपको छोड़कर उनके मन को हरण करने वाली कोई भी नहीं होगी । इस कारण से आप ही एक स्वरूप से भगवान् शम्भु का मोहन करने वाली हो जाओ। जिस प्रकार से आप लक्ष्मी के स्वरूप से शरीर धारण करने वाली होकर भगवान् केशव को अमोदित किया करती हैं । विश्व के हित सम्पादन करने के लिए उसी भाँति इनको करिए। वृषभध्वज शम्भु मेरी कान्ता की अभिलाषा मात्र को ही बुरा कहते थे अतः किस-किस रीति से वे वनिता को अपनी ही इच्छा से ग्रहण करेंगे । कान्ता के ग्रहण न करने वाले हर के होने पर यह सृष्टि कैसे प्रवृत्त होगी ? आदि, अन्त और मध्य के हेतु स्वरूप उन शम्भु के विरागी होने पर यह कैसे हो सकेगा ? इस चिन्ता में गमन मैं हूँ, आपसे अन्य मेरा यहाँ पर रक्षक कोई नहीं हैं । अतएव विश्व की भलाई के लिए आप यह करिए जो कि मेरा ही कार्य है। इनके मोह करने के लिए न तो विष्णु समर्थ हैं और न लक्ष्मी तथा न कामदेव ही समर्थ हैं । हे जगत की माता ! मैं भी उनको मोहित करने की क्षमता नहीं रखता हूँ । इस कारण से आप ही महेश्वर को मोहित करिए। जिस प्रकार से भगवान् विष्णु की एक प्रिया हैं वैसे ही आप महेश्वर की होवें ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर ब्रह्माजी से उस योगमयी ने फिर जो कहा था हे द्विजोत्तमो! उसका श्रवण करिए।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे काली स्तुति: नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥