कालिका पुराण अध्याय ६ || Kalika Puran Adhyay 6 Chapter
कालिका पुराण अध्याय ६ में योगनिद्रा स्तुति का वर्णन है।
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ६
॥ योगनिद्रा स्तुति ॥
देवी ने कहा- हे ब्रह्माजी! आपने जो भी कहा था वह सम्पूर्ण सत्य ही है। मेरे बिना यहाँ पर शंकर को मोहित करने वाली कोई अन्य नहीं हैं । भगवान् हर के द्वारा न ग्रहण करने पर यह सनातनी सृष्टि नहीं होगी, यह तो आपने सर्वथा सत्य प्रतिपादन किया है। मेरे द्वारा भी इस जगत् के पति का महान् यत्न है। आपके वाक्य से आज दुगुना सुनिर्भर प्रयत्न हुआ था। मैं उस प्रकार से यत्न करूँगी कि भगवान् हर विवश होकर स्वयं ही विमोहित होकर दारा का परिग्रहण करेंगे। परम सुन्दर मूर्ति बनकर मैं उसी की वशवर्तिनी हो जाऊँगी । हे महाभाग ! जिस तरह से भगवान् विष्णु की वशवर्तिनी हरि प्रिया रहा करती हैं । उसी तरह से वह भी यहां पर मेरे ही साथ वशवर्ती हो जावें और मैं उसी तरह से करूँगी और हर को अपना वशवर्ती बना लूँगी जैसे अन्य साधारण जन को कर लिया जाता है। प्रतिसर्ग के आदि, मध्य उन निरंकुश शम्भु को, हे विज्ञ! विशेष रूप से स्त्री रूप से उनके समीप मैं जाऊँगी ।
हे पितामह! दक्ष प्रजापति की स्त्री से बहुत ही सुन्दर स्वरूप से उत्पन्न हुई प्रतिसर्ग समाहित होऊँगी। इसके अनन्तर देवगण जगत्मयी विष्णुमाया मुझको रुद्राणी, शंकरी इस नाम से कहेंगे । उत्पन्न मात्र से ही निरन्तर जिस प्रकार से प्राणी को मोहित करूँ ठीक उसी भाँति से प्रमथों के स्वामी भगवान् शंकर को सम्मोहित कर लूँगी। भूमण्डल में जैसे अन्य साधारण जन वनिता के वश में हो जाया करता है उससे भी अधिक भगवान् शम्भु मेरे वश में वर्त्तन करने वाले हो जायेंगे। विभेदन करके अपने हृदय के अन्तर में लीन और भुवनाधीन जिस विद्या को महादेव मोह से प्रतिग्रहण कर लेंगे।
इसके उपरान्त मार्कण्डेय मुनि ने कहा – हे द्विजसत्तमो ! इस प्रकार से ब्रह्माजी से कहकर जगत् के स्रष्टा के द्वारा वीक्ष्यमाण होती हुई वह देवी फिर वहीं पर अन्तर्धान हो गई थीं। इसके अन्तर्धान होने पर लोकों के पितामह धाता वहाँ पर गये थे जहाँ पर भगवान् कामदेव संस्थित थे ।
मुनिश्रेष्ठों ! ब्रह्माजी महामाया के वचनों का स्मरण करते हुए अत्यधिक प्रसन्न हुए थे और वे आपने आपको कृतकृत्य अर्थात् सफल मानने लगे थे । इसके अनन्तर कामदेव ने महात्मा ब्रह्मा को हंस के यान के द्वारा गमन करते हुए देखकर शीघ्रता से समन्वित होकर उसके लिए अभ्युत्थान किया था। उसके उपरान्त उन ब्रह्माजी को अपने समीप में आये हुए देखकर परमहर्ष से विकसित लोचनों वाले कामदेव ने मोद से युक्त समस्त लोकों के स्वामी ब्रह्माजी की अभिवादन किया था । इसके अनन्तर भगवान् ब्रह्माजी ने प्रीति से मधुर और गद्गद् वचनों से कामदेव को हर्षित करते हुए जो विष्णु माया देवी ने कहा था वही कहा था ।
ब्रह्माजी ने कहा- हे वत्स! जो आपने पहले सबके मोहन करने के विषय में वचन कहा था कि आप अनुमोहन करने वाली जो भी हो उसका सृजन करो । हे कामदेव ! उसी कार्य को सम्पादित करने के लिए मैंने जगन्मयी योगनिद्रा देवी का मन्दराचल की कन्दरा में एकमात्र मन के द्वारा स्तवन किया था । हे वत्स ! वह स्वयं ही मेरे सामने प्रत्यक्ष हुई थी और अत्यन्त प्रसन्न होकर उसने यह स्वीकार कर लिया था कि मेरे द्वारा शम्भु का मोहन किया जायेगा। हे कामदेव ! दक्ष प्रजापति के भवन में समुत्पन्न हुई उसके द्वारा शम्भुमोहन का कर्म किया ही जायेगा, यह सर्वथा सत्य है ।
कामदेव ने कहा- हे ब्रह्माजी! जो कि जगन्मयी है वह कौन है जो योगनिद्रा इस नाम से विख्यात हुई है। जो शंकर सदा ही तप में संस्थित रहा करते हैं वे उनके द्वारा कैसे वश्य होंगे ? उस देवी का क्या प्रभाव है, वह देवी कौन सी है और वहाँ किस स्थान में स्थित रहा करती है ? हे लोक पितामह ! यह सभी कुछ मैं आपके मुखकमल से श्रवण करने की इच्छा करता हूँ । जो अपनी समाधि का त्याग करके एक क्षणमात्र भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ करते हैं उनके समक्ष हम भी स्थित नहीं हो सकते हैं वह फिर उनको कैसे मोहित करेगा ?
हे ब्रह्माजी ! उनके नेत्र जलती हुई अग्नि के प्रकाश के समान हैं तथा वे जटा – जूट के समुदाय से विकराल स्वरूप वाले हैं। ऐसे त्रिशूलधारी शिव को देखकर उनके सामने कौन सी क्षमता है जो कि स्थित हो सके। उस शम्भु का इस प्रकार का स्वरूप है । उनको मोहित करने की इच्छा से मैंने भी स्वीकार किया था। अब मैं उस देवी के विषय में तात्विक रूप से श्रवण करने की इच्छा रखता हूँ ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- उसके उपरान्त ब्रह्माजी ने कामदेव के वचन को सुनकर बोलने की इच्छा वाला होकर भी अनुत्साह के कारणस्वरूप उसके वाक्य को श्रवण कर भगवान् शंकर के मोहन करने में चिन्ता से समाविष्ट होते हुए कि मैं शंकर को मोहित करने में समर्थ नहीं हूँ, इस रीति से उन ब्रह्माजी ने बार-बार निःश्वास लिया था अर्थात् चिन्ता से श्वास छोड़ा था।
उनकी निःश्वास की वायु से अनेक रूपों वाले महाबलवान् चंचल जिह्वा वाले अति भयंकर और अत्यन्त चंचल गण समुत्पन्न हो गए थे। उन गणों में कुछ तो घोड़े के समान मुख वाले थे तथा कुछ हाथी के मुख जैसे मुखों वाले थे । अन्य सिंह तथा बाघ के मुख के समान मुखों वाले थे। कुछ गण रीछ और मार्जार के जैसे मुखों से संयुत थे तो कोई-कोई शरभ तथा शुक के मुखों वाले थे। कुछ प्लव और गौ मुख के सदृश मुख वाले थे तथा कोई सरीसृप मुख के समान मुखों से समन्वित थे, कुछ उन गणों में गौर रूप थे तो कुछ गाय के समान मुखों से संयुत थे। कोई-कोई पक्षी के सदृश मुखों से संयुत थे । कुछ बहुत विशाल तो कुछ बहुत ही छोटी शरीर वाले थे । कोई-कोई महान् स्थूल थे तो कुछ बहुत ही कृश थे।
उन गणों के अनेकानेक स्वरूप बताये जा रहे हैं- कुछ पीली आँख वाले, कुछ विडाल के तुल्य नेत्रों वाले तो कुछ त्र्यक्षैकाक्ष थे और कोई-कोई महान् उदर से युक्त थे । कुछ एक कान वाले, कुछ तीनों कानों वाले तथा दूसरे चार कानों से युक्त थे। स्थूल कानों वाले, महान् कानों वाले, बहुत कानों वाले और कुछ तीन कानों वाले थे । उनमें कुछ बड़ी आँखों वाले तो कुछ स्थूल नेत्रों से संयुत थे । कुछ सूक्ष्म लोचनों वाले और कुछ तीन दृष्टियों से समन्वित थे ।
उन गणों में कोई चार पैरों वाले, कुछ पाँच पैरों से युक्त, तीन चरणों वाले तो कुछ एक ही पद वाले थे। कुछ के बहुत छोटे पैर थे, कुछ लम्बे पैरों वाले थे, कुछ के पैर बहुत स्थूल थे तो कुछ महान् पदों से संयुत थे । कोई-कोई एक हाथ वाले, कुछ चार हाथों से युक्त, कोई दो हाथों वाले तो कोई तीन करों वाले थे । कुछ के हाथ थे ही नहीं तो विरुपाक्ष थे तथा कुछ गोधिका की आकृतियों वाले थे । उनमें कुछ मानवीय आकृति से युक्त थे, कोई-कोई शुशुमार के मुख के समान मुखों वाले थे। कोई क्रौञ्च के आकार वाले, तो कुछ बगुला के आकार वाले एवं कुछ हंस और सारस के रूप वाले थे। कुछ मुद्गुकुरर, कक और काक के तुल्य मुखों वाले थे ।
अब उन गणों के वर्ण बताये जाते हैं – उनमें कुछ आधे नीले, आधे लाल, कपिल तथा कुछ पिंगल वर्ण वाले थे। कुछ नील, शुक्ल, पीत, हरित और चित्रवर्ण वाले थे । वे गण शंखों को, घण्टों को बजा रहे थे तथा कुछ परिवादी थे । कुद मृदंग, डिमडिम, गोमुख तथा पणवों के बजाने वाले थे । वे सभी गण पीली और उन्नत जटाओं से संयुत अत्यधिक कराल थे ।
हे द्विजेन्द्रों ! वे सभी गण स्यन्दन (रथ) के द्वारा गमन करने वाले थे। उनमें कुछ हाथों में शूल लिए हुए थे तो कुछ पाश, खंग और धनुष करों में ग्रहण किए हुए थे। कुछ शक्ति, अंकुश, गदा, बाण, पट्टिश तथा पाश अपने करों के लिए हुए थे ।
उन गणों के पास अनेक प्रकार के आयुध थे और महाबलवान् वे बड़ा भारी शोर करने वाले थे । वे मार डालो, छेद डालो ऐसा कहने वाले थे और ब्रह्माजी के सामने उपस्थित हो गए थे। इसके अनन्तर ब्रह्माजी से कहकर कामदेव ने उन गणों को अवलोकन करके गणों के आगे स्थित होते हुए कारण कहते हुए बोलना आरम्भ किया था ।
कामदेव ने कहा- हे ब्रह्माजी ! ये आपका क्या कर्म करेंगे अथवा कहाँ पर संस्थित होंगे अथवा रहेंगे ? इनके क्या-क्या नाम हैं ? वहीं पर इनका आप विनियोजन कीजिए। अपने कार्य में इनका नियोजन करके इनको स्थान देकर इनका नाम रखिए । यह सब कुछ करके इसके पश्चात् महामाया का जो भी कुछ प्रभाव हो उसे मुझे बतलाइए ।
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके उपरान्त समस्त लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने उस कामदेव के वचन को सुनकर उनके कार्य आदि विषय में आदेश देते हुए कामदेव के सहित उन गणों से कहा ।
ब्रह्माजी ने कहा- ये सब उत्पन्न होने के साथ ही निरन्तर ‘मार डालो‘ यह बहुत बार बोले थे । बारम्बार इनसे यही वचन कहे गये थे । अतएव इनका नाम ‘मार‘ यह होवे । मारात्मक होने से ये नाम से भी भार ही होवें । बिना अर्चना के ये सदा ही जन्तुओं के लिए विघ्न ही किया करेंगे ।
हे कामदेव ! इन गणों का प्रधान कर्म तुम्हारा ही अनुगमन करना होगा। जिस-जिस समय जब-जब भी आप अपने कार्य के सम्पादन करने के लिए जायेंगे वहीं वहीं पर भी उसी उसी समय में तुम्हारी सहायता के लिए ये गण जाने वाले होंगे। तुम्हारे अस्त्र के वशवर्त्ती ज्ञानियों के चित्त की उद्भ्रान्ति करेंगे और सर्वदा ज्ञान के मार्ग में विघ्न उत्पन्न करेंगे। जिस प्रकार से सब जन्तुगण सांसारिक कर्म किया करते हैं ठीक उसी भाँति ये सब भी विघ्नों को भी करेंगे। ये सभी जगह पर कामरूप वाले और वेग से समन्वित स्थित होंगे। आप ही इन सबके गणाध्यक्ष हैं। ये पंचयज्ञों के अंशभोगी और नित्य क्रिया वालों के तोय भोगी होवें ।
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- वे सब यह श्रवण करके ब्रह्माजी के सहित कामदेव को परिवारित करके इच्छानुसार अपनी गति को सुनकर समवस्थित हो गये थे । हे मुनि सत्तमों ! उनके विषय में क्या वर्णन किया जा सकता है, उनके महात्म्य और प्रभाव का क्या वर्णन किया जावे क्योंकि वे सब तपशाली थे। उनके न तो जाया थी और न कोई सन्तान ही थी । वे तो सदा ही समीहार से रहित थे । वे न्यासी होते हुए थी महान् आत्माओं वाले थे और वे सभी ऊर्ध्वरेता पुरुष थे । इसके अनन्तर वे ब्रह्माजी परम प्रसन्न होते हुए योगनिद्रा का माहात्म्य कामदेव को कहने के लिए भली-भाँति से उपक्रम करने वाले हुए थे।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे योगनिद्रा स्तुति: नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥