कलिसंतरण उपनिषद || Kalisantaran Upanishad

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कलिसंतरण उपनिषद या कलिसन्तरणोपनिषद या कलिसन्तरणोपनिषत् वैष्णव शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता मध्यकालीन वैष्णव कवि है ( ५०० वर्ष पूर्व ) परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है। किन्तु इस उपनिषद का वेद के साथ कोई भी संवंध नहीं है । इस उपनिषद् में कलिकाल से मुक्ति पाने व कलियुग में संसारसागर को पार करने और कलिकाल के समस्त दोषों को विनष्ट करने का उपाय बतलाया गया है।

कलिसन्तरणोपनिषत्

॥अथ कलिसन्तरणोपनिषत्॥

॥ शांतिपाठ ॥

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।

तेजस्विनावधीतमस्तुमा विद्विषावहै ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

इसका भावार्थ कालाग्निरुद्र उपनिषद् में पढ़े।

॥ कलिसन्तरणोपनिषत् ॥
कलिसंतरण उपनिषद

(भगवन्नामस्मरणमात्रेण कलिसन्तरणम्)

हरिः ॐ । द्वापरान्ते नारदो ब्रह्माणं जगाम कथं भगवन् गां

पर्यटन् कलिं सन्तरेयमिति । स होवाच ब्रह्मा साधु पृष्टोऽस्मि सर्वश्रुतिरहस्यं गोप्यं

तच्छृणु येन कलिसंसारं तरिष्यसि । भगवत आदिपुरुषस्य नारायनस्य नामोच्चारणमात्रेण

निधृतकलिर्भवतीति ॥ १॥

द्वापर युग के अन्तिम काल में एक बार देवर्षि नारद पितामह ब्रह्माजी के समक्ष उपस्थित हुए और बोले’हे भगवन् ! मैं पृथ्वीलोक में भ्रमण करता हुआ किस प्रकार से कलिकाल से मुक्ति पाने में समर्थ हो सकता हूँ? ब्रह्माजी प्रसन्नमुख हो इस प्रकार बोले-‘हे वत्स! तुमने आज मुझसे अत्यन्त प्रिय बात पूछी है। आज मैं समस्त श्रुतियों का जो अत्यन्त गुप्त रहस्य है, उसे बतलाता हूँ, सुनो। इसके श्रवण मात्र से ही कलियुग में संसारसागर को पार कर लोगे । भगवान् आदि पुरुष श्रीनारायण के पवित्र नाम के उच्चारण मात्र से मनुष्य कलिकाल के समस्त दोषों को विनष्ट कर डालता है॥ १॥

(परब्रह्मावरणविनाशकषोडशनामानि) नारदः पुनः पप्रच्छ तन्नाम किमिति । स होवाच हिरण्यगर्भः ।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥

इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मषनाशनम ।

नातः परतरोपायः सर्ववेदेषु दृश्यते ॥

षोडशकलावृतस्य जीवस्यावरणविनाशनम् । ततः प्रकाशते परं ब्रह्म मेघापाये रविरश्मिमण्डलीवेति ॥ २॥

देवर्षि नारद ने पुन: प्रश्न किया-‘पितामह! वह कौन सा नाम है ?’ तदपरान्त हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी ने कहा-वह सोलह अक्षरों से युक्त नाम इस प्रकार है

हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।

इस प्रकार ये सोलह नाम कलिकाल के महान् पापों का विनाश करने में सक्षम हैं। इससे श्रेष्ठ अन्य कोई दूसरा उपाय चारों वेदों में भी दृष्टिगोचर नहीं होती। इन सोलह नामों के द्वारा षोडश कलाओं से आवृत जीव के आवरण समाप्त हो जाते हैं। तदनन्तर जिस प्रकार मेघ के विलीन होने पर सूरज की किरणें ज्योतित होने लगती हैं, वैसे ही परब्रह्म का स्वरूप भी दीप्तिमान् होने लगता है॥२॥

(नाम जप महिमा)

पुनर्नारदः पप्रच्छ भगवन् कोऽस्य विधिरिति ।

तं होवाच नास्य विधिरिति । सर्वदा शुचिरशुचिर्वा पठन् ब्राह्मणः सलोकतां समीपतां

सरूपतां सायुज्यमेति । यदास्य षोडशकस्य सार्धत्रिकोटीर्जपति तदा ब्रह्महत्यां तरति ।

तरति वीरहत्याम् । स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति ।

वृषलीगमनात् पूतो भवति। पितृदेवमनुष्याणामपकारात् पूतो भवति । सर्वधर्मपरित्यागपापात् सद्यः शुचितामाप्नुयात् । सद्यो मुच्यते सद्यो मुच्यते इत्युपनिषत् ॥ ३॥

देवर्षि नारद जी ने पुनः प्रश्न किया-हे प्रभु! इस मन्त्र नाम के जप की क्या विधि है? ब्रह्माजी ने कहा इस मन्त्र की कोई विधि नहीं है। शुद्ध हो अथवा अशुद्ध, हर स्थिति में इस मन्त्र-नाम का सतत जप-करने वाला मनुष्य सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य एवं सायुज्य आदि सभी तरह की मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जब साधक इस षोडश नाम वाले मन्त्र का साढे तीन करोड़ जप कर लेता है, तब वह ब्रह्म-हत्या के दोष से मुक्त हो जाता है। वह बीरहत्या (या भाई की हत्या) के पाप से भी मुक्त हो जाता है। स्वर्ण की चोरी के पाप से भी मुक्त हो जाता है। पितर, देव और मनुष्यों के अपकार के पापों (दोषों) से भी मुक्त हो जाता है। समस्त धर्मों के त्याग के पाप से वह तुरन्त ही परिशुद्ध हो जाता है। वह शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ऐसी ही यह उपनिषद् है॥ ३ ॥
कलिसंतरण उपनिषद ॥ शांतिपाठ ॥

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

इसका भावार्थ शुकरहस्य उपनिषद् में पढ़े।

॥ इति कृष्णयजुर्वेदीया कलिसन्तरणोपनिषत् ॥

॥ कृष्णयजुर्वेदीया कलिसंतरण उपनिषद समाप्त ॥

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