कंकालमालिनीतन्त्र पंचम पटल – Kankaal Malini Tantra Pancham Patal

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कंकालमालिनीतन्त्र पंचम पटल महाकाली के अनन्य साधकों के लिये हितकारी है। इसमें पुरश्चरण विधान, प्रातः कृत्य, स्नान, सन्ध्या, तर्पण, गणपति, भैरव, क्षेत्रपाल प्रभृति देवताओं की बलि, भूतशुद्धि, न्यासादि का भी उपदेश दिया गया है । पुरश्चरण विधान का समापन करते हुये डाकिनी-राकिनी आदि देवियों का बीजोद्धार भी इस तंत्र की विशेषता का परिचायक है।

|| कंकालमालिनीतन्त्र पंचम पटल- भाग १ ||

श्री पार्वत्युवाच

कथयस्व महाभाग पुरश्चरणमुत्तमम् ।

कस्मिन् काले च कर्तव्यं कलौ सिद्धिदमद्भुतम् ॥१॥

श्रीपार्वती पूछती है-हे महाभाग ! इस बार पुरश्चरण के सम्बन्ध में उपदेश करिये। वह कलिकाल में अपूर्व सिद्धिदाता है। इसका अनुष्ठान कब करना चाहिये ? ॥१॥

श्री ईश्वर उवाच

सामान्यतः प्रवक्ष्यामि पुरश्चर्याविधि शृणु ।

नाशुभो विद्यते कालो नाशुभो विद्यते क्वचित् ।।२।।

म विशेषो दिवारात्रौ न संध्यायां महानिशि ।

कालाकालं महेशानी भ्रान्तिमात्रं न संशयः ॥३॥

प्रलये महति प्राप्ते सर्व गच्छति ब्रह्मणि ।

तत्कालं च महाभीमे को गच्छति शुभाशुभम् ॥४॥

कलिकाले महाभाये भवन्त्यल्पायुषो जनाः।

अनिदिष्टायुषः सर्वे कालचिन्ता कथं प्रिये ॥५॥

श्रीईश्वर कहते हैं-अब साधारण रूप से पुरश्चरणविधि का उपदेश करता है। श्रवण करो। इसके अनुष्ठान के लिये कोई समय अशुभ नहीं है, कोई स्थान भी अशुभ नहीं है। दिन अथवा रात्रि की भी कोई विशेषता नहीं है । महानिशा अथवा सन्ध्या में अनुष्ठान की भी कोई महत्ता नहीं है। हे महेशानी ! अनुष्ठान के समय अथवा असमय का विचार करना भी भ्रान्ति ही है।

हे प्रिये ! हे महामाये ! कलिकाल में मनुष्य अल्पायु होते हैं। समस्त प्राणीगण की आयु का कोई निश्चित काल नहीं है ( अर्थात् कोई अधिक आयु बाले है, कोई अपेक्षाकृत अल्पायु है)। अतएव काल चिन्तन करना कैसे उचित है ? ॥२-५।।

यत्कालं ब्रह्मचिन्तायां तत्कालं सफलं प्रिये ।

पुरश्चर्याविधौ देवी कालचिन्ता न चाचरेत् ॥६॥

नात्र शुद्धाद्यपेक्षास्ति न निषिड्यादि भूषणम् ।

दिककालनियमो नात्र स्थित्यादिनियमो न हि ॥७॥

न जपेत् कालनियमों नार्चादिष्वपि सुन्दरी ।

स्वेच्छाचारोऽत्र नियमों महामन्त्रस्य साधने ॥८॥

हे प्रिये ! जिस काल में ब्रह्मचिन्तना हो सके, वही काल विहित है। हे देवी ! पुरश्चरण विधि में किसी भी प्रकार की कालचिन्तना नहीं करे। इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की शुद्धि की अपेक्षा नहीं है।

निषिद्ध भी कुछ नहीं है। दिशा तथा काळ का भी कोई प्रतिबन्धक नियम नहीं है । अर्थात् किसी स्थान का भी विधान नहीं है। हे सुन्दरी! जप में भी कोई काल नियम प्रभावी नहीं हो सकता। इसी प्रकार पूजन का भी कोई काल नियम नहीं है । इस महामंत्र साधन में स्वेच्छाचार ही नियम है ॥६-८॥

नाधर्मो विद्यते सुभ्र प्रचरेत् दुष्टमानसः ।

जम्बूद्वीपे च वर्षे च कबो भारतसंज्ञके ॥९॥

षण्मासादपि गिरिजे जपात सिद्धिर्न संशयः।

मन्त्रोक्तं सर्वतन्त्रेषु तदद्य कथयामि ते ॥१०॥

सुभमे शृणु चावङ्गी कल्याणी कमलेक्षणे ।

कलौ च भारतेवर्षे ये न सिध्दिः प्रजायते ॥११॥

हे सुभ्र ! जम्बद्वीप में भारत नामक वर्ष में कोई अधर्म नहीं है। केवल दृष्ट मन ही भ्रमित होता है । हे गिरिजे ! छ: मास में ही जप द्वारा सिद्धि मिल जाती है। यह निःसंदिग्ध है । समस्त तंत्रों में जो मंत्र कहा गया है, वह मैं तुमसे कहता है। हे सुभगे ! कमल जैसे नेत्रों वाली ! सुन्दर अंगो वाली कल्याणी ! इस कलिकाल में भारतवर्ष में जैसे सिद्धि मिल सकती है, उसे सुनो। ॥९-११॥

तत् सवं कथयाम्यद्य सावधानावधारय ।

कालिकाले वरारोहे जपमात्र प्रशस्यते ।।१२।।

न तिथिनं व्रतः होमं स्नानं सन्ध्या प्रशस्यते।

पुरश्चर्या विना देवी कलौ मन्त्रं न साधयेत् ॥१३॥

आज मैं वह सब तत्व कहूँगा। हे वरारोहे ! कलिकाल में केवल जप ही प्रशंस्य है। इसमें तिथि, व्रत, होम स्नान, संध्या का कोई भी नियम नहीं है। हे देवी ! पुरश्चरण के अतिरिक्त कोई भी साधना करना कलिकाल में उचित नहीं है ॥१२-१३॥

सत्यत्रेतायुगं देवि द्वापरं सुखसाधनम् ।

कलिकाले दुराधर्ष सर्वदुःखमयं सदा ॥१४॥

सारं हि सर्व तंत्रणां महाकालीषु कथ्यते ।

प्रात:कृत्यादिकं कृत्वा ततः स्नानं समाचरेत ॥१५॥

कत्वा सन्ध्या तर्पणञ्च संक्षेपेण वरानने ।

पूजां चैव वरारोहे यस्य यत् पटलक्रमात् ॥१६॥

हे देवी! सत्य, त्रेता तथा द्वापर युग में सुखपूर्वक साधना सम्पन्न हो जाती है। कलिकाल में साधना अत्यन्त दुःखमय तथा कष्ट साध्य है । महाकाली की साधना में समस्त तंत्रों का सारतत्व सन्निहित रहता है। प्रातः काल में नित्यकृत्य समाप्त करके स्नानादि करे।

हे वरानने ! तदनन्तर संक्षेप में सन्ध्या तथा तर्पण करे। पूर्वोक्त चतुर्थ पटल में जिस पूजा का उपदेश दिया गया है, उसके अनुसार पूजा का समापन करे ॥१४-१६॥

पूजाद्वारे च विन्यस्य बलिं दद्यात् यथाक्रमम् ।

प्राणायामत्रयौव माषभक्तबलि तथा ॥१७॥

पूजाद्वार पर यथाक्रम से बलि प्रदान करे । इसके पश्चात् तीन बार प्राणायाम करके उर्द के दाल की खिचड़ी इष्टदेवी को उपहार स्वरूप अर्पित करे ।।१७।।

संकल्पोपास्य देवेशी बलिदानस्य साधकः ।

आदौ गणपते:जं गमित्येकाक्षरं विदुः ॥१८॥

हे देवी ! साधक पूर्वोक्त बलिदान के लिये संकल्प करके सर्वप्रथम “गं” रूप एकाक्षर बीज लिखे यह तंत्रविद् कहते हैं ॥१८॥

भूमौ विलिख्य गुप्तेन बलि पिण्डोपमं ततः ॥१९॥

ॐ गं गणपतये स्वाहा इति मंत्रेण साधकः ।

बलिमित्थंच सर्वत्र बीजोपरि प्रदापयेत् ।।२०।।

भूमि में उस एकाक्षार मंत्र बीज को गुप्तरूप से (उपांशरूप से ) लिखे । तत्पश्चात् साधक उस उड़द दाल की खिचड़ी का पिण्ड बनाये । अब “ॐ गं गणपतये स्वाहा’ मंत्र का उच्चारण करते हुये उस लिखित मंत्रबीज के उपर इस पिण्ड की बलि दे ॥१९-२०॥

ॐ भैरवाय ततः स्वाहा भैरवाय बलिस्ततः ।

ॐ शं क्षेत्रपालाय स्वाहा क्षेत्रपाल बलि ततः ॥२१॥

ॐ यां योगिनिभ्यो नमः स्वाहा च योगिनी बलिम् ।

संम्पूज्य विधिना दद्यात. पूर्ववत क्रमतो बलिम ॥२२॥

कथौपकथनं देवि त्यजेदत्र सुरालये ॥२३॥

इसके अनन्तर भैरव के लिये “ॐ भैरवाय स्वाहा’ द्वारा, क्षेत्रपाल के लिये “अं क्षेत्रपालाय स्वाहा’, तथा योगिनी के लिये “ॐ यां योगिनीभ्यो नमः स्वाहा” द्वारा बलि प्रदान करे। विधिपूर्वक प्रत्येक की पूजा करने के उपरान्त ही बलि देना चाहिये । हे देवी! इस देवालय में कभी भी कथनोपकथन ( वार्तालाप ) न करे ॥२१-२३॥

पूर्वे गणपतेभद्रे उत्तरे भैरवाय च ।

पश्चिमे क्षेत्रपालाय योगिन्यै दक्षिणे ददेत ॥२४॥

हे भद्रे! पूर्व दिशा में गणपति को, उत्तर में भैरव को, पश्चिम में क्षेत्रपाल को तथा योगिनी को दक्षिण में बलि दे ॥२४॥

इन्द्रादिभ्यो बलिं दद्यात आत्मकल्याणहेतवे ।

तदा सिद्धिमवाप्नोति नान्यथा हास्य केवलम ॥२५॥

अपनी कल्याण प्रगति के लिये इन्द्रादि देवताओं को भी यह बलि प्रदान करे। इससे सिद्धि मिल जाती है, अन्यथा समस्त साधन हास्यास्पद स्थिति में परिणत होने की संभावना है ।।२५॥

पलेक माषकल्पञ्च ‘पलमेकञ्च तण्डुलम् ।

अर्धतोलं धृतञ्चैव दधिमर्धा तोलकम ॥२६॥

शरकतोलकेन बलि दद्यात, सुसिद्धये ।

एतेषां सहयोगेन बलिर्भवति शाम्भवी ॥२७॥

पूजास्थाने तथा भद्रे कर्मबोजं लिखेततः ।

चन्द्रविन्दुमयं बीजं कर्मबींज इतीरितम् ॥२८॥

स्थापयेदासनं तत्र पूजयेत. पटलक्रमात् ।

भूतशुद्धं ततः कृत्वा प्राणायाम ततः परम ॥२९॥

हे शाम्भवी ! एकपल उर्द की दाल, एकपल तण्डुल (चावल), आघातोला घृत, चौथाई तोला दधि तथा उत्कृष्ट सिद्धि के लिये एक तोला शर्करा को मिलाकर जो बलि द्रव्य बनता है, उसके द्वारा बलिदान करे।

हे भद्रे ! अब पूजास्थान में कूर्मबीज लिखे । केवलमात्र चन्द्र विन्दु ही कूर्मबीज है अब वहाँ आसन लगाकर चतुर्थ पटल में उक्त विधि के अनुसार पूजन करे । प्रथमतः भूतशुद्धि करे, तदनन्तर प्राणायाम करे ॥२६-२९।।

अंङ्गन्यासं करन्यासं मातृकान्यासमेव च ।

यः क र्यान्मातृकान्यासं स शिवो नात्र संशयः ॥३०॥

ततस्तु भस्मतिलक रुद्राक्षं धारयेत्ततः ।

रुद्राक्षस्य च महात्म्यं भस्मनञ्च शृणु प्रिये ॥३१।।

अंगन्यास, करन्यास तथा मातृकान्यास करे। मातृकान्यास करने वाले साक्षात् शिव है। यह निःसंदिग्ध है।

अब भस्म का तिलक करे । रुद्राक्ष धारण करे। अब रुद्राक्ष के माहात्म्य को कहता हूँ। हे प्रिये ! सुनो ।।३०-३१॥

आग्नेयमुच्यते भस्म दुग्धगोमय सम्भवम् ।

शोधयेन्मूलमन्त्रेण अष्टोत्तरशतं जपन् ॥३२॥

शिरोदेशे ललाटे च स्कन्धयो प्रदेशके ।

बाहवोः पार्श्वद्वये देवि कण्ठदेशे हृदि प्रिये ।

अतियुग्मे पृष्ठदेशे नाभी तुण्डे महेश्वरी ॥३३॥

कर्परावाहुपर्यन्तं कक्षे ग्रीवासु पार्वती ।

सर्वाङ्ग लेपयेत् देवी किमन्यत् कथयामि ते ॥३४॥

दुग्ध तथा गोमय के द्वारा निर्मित भस्म को आग्नेय भस्म कहते हैं (गोदुग्ध तथा गाय के गोबर को मिलाकर जलाने से यह भस्म निर्मित होती है ) इस भस्म को १०८ बार मूल मंत्र के जप द्वारा शोधित करे।

हे महेश्वरी ! मस्तक, ललाट, स्कन्ध, भ्रूप्रदेश, बाहुद्वय, पार्श्वद्वय, कण्ठ तथा हृदय में, उभय कर्ण में, पृष्ठदेश में, नाभि में, मुख, कन्धा से लेकर बाहुपर्यन्त लगाये । हे पार्वती ! इस प्रकार से सर्वांग में भस्म का लेपन करना चाहिये। अब इस विषय में और क्या कहा जा सकता है ॥३२-३४॥

मध्यमानामिकाङ्गष्ठेन तिलकं ततः।

तिलकं तिस्त्ररेखा स्यात् रेखानां नवधा भतः।

पृथिव्यग्निस्तथा शक्तिः क्रियाशक्तिर्महेश्वरः ॥३५॥

देवः प्रथमरेखायां भक्त्या ते परिकीर्तितः ।

नमस्यांचव सुभगे द्वितीया चंद देवता ।

परमात्मा शिवो देव देवस्तृतीयायाश्च देवता ।

एतान्नित्यं नमस्कृत्य त्रिपुण्ड्रं धारयेत् यदि ॥३६॥

तिलक में तीन रेखा करे। नौ संख्यक रेखायें तांत्रिक अंगीकृत करते हैं। ये देवत्रय के प्रतीक है–यथा पृथ्वी, अग्नि, तथा शक्ति ( अथवा क्रियाशक्ति महेश्वर)।

हे सुभगे ! प्रथम रेखा के देवता है महादेव । द्वितीय के देवता नभस्वान् है तथा तृतीय के देवता है परमात्मा शिव। इन्हें नमस्कार करे, तदनन्तर त्रिपुण्ड धारण करे ॥३५-३६॥

महेश्वर व्रतमिदं कृत्वा सिद्धीश्वरो भवेत् ।

ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वनस्थो वा यतिस्तथा ॥३७॥

इस महेश्वर व्रत का अनुष्ठान करने से श्रेष्ठ सिद्धि मिलती है। जो कोई भी ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वनस्थ, अथवा यति हो वह सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥३७॥

महापातकसंघातमुच्यते सर्वपातकात् ।

तथान्यक्षत्रविटशुद्रा स्त्रीहत्यादिषु पातकः ॥३८॥

वीर ब्राह्मण हत्याभ्यां मुच्यते सुभगेश्वरी ।

अमंन्त्रेणापि यः कुर्यात् ज्ञात्वा च महिमोन्नतिम् ।।३९।।

त्रिपुण्ड्र भाल तिलको मुच्यते सर्वपातकैः ।

परद्रव्यापहरणं परदार भिमर्षणम् ॥४०॥

परनिन्दा परक्षेत्र हरणं परपीड़नम् ।

असत्य वाक्य पैशून्यं पारुष्यं देव विक्रयम् ॥४१॥

कट साक्ष्यं व्रतत्यागं कैतवं नोचसेवनम् ।

गो मृगाणां हिरण्यस्य तिल कम्बलं वाससाम् ।।४२॥

अन्न धान्य कुशादीनां नीचेभ्योऽपि परिग्रहम् ।

दासीवेश्या कष्णास् वृषलीसु नटीसु च ॥४३॥

रजस्वलासु कन्यासु विधवासु च सङ्गमे ।

मांसचर्म रसादीनां लवणस्य च विक्रयम् ।।४४।।

इस प्रकार अनुष्ठान करने से महापातकों से मुक्ति प्राप्त हो जाती है । समस्त पाप समूह से मुक्ति मिल जाती है । क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा स्त्रीहत्या का पातक भी छूट जाता है । हे सुभगेश्वरी ! भस्मधारण की महिमा जानकर, विना मंत्रोच्चारण के ही जो भस्म लगाते हैं वे भी वीर तथा ब्राह्मण की हत्या से मुक्त हो जाते है। जिनके ललाट पर त्रिपुण्ड लगा है, वे सर्वपातक समूह से मुक्त हैं । यहाँ तक कि परद्रव्यापहरण, परस्त्रीगमन, परनिन्दा, अन्य के खेत जमीन का हरण, परपीड़न, असत्य तथा कठोर वचन, पिशुनता, देव विक्रय, कूटसाक्ष्य, व्रत त्याग, कैतव, नीच की सेवा, गो-मृग-सुवर्ण-तिल-कम्बल-वस्त्र अन्न-धान्य-कुशादि का नीच व्यक्ति से दान लेना, दासी-वेश्या-कृष्णा-वृषली-नटी-रजस्वला-कन्या-विधवा के साथ संगम, मांस-चर्म-रस-लवण बेचना आदि पाप से मुक्ति मिल जाती है ।।३८-४४॥

एवं रुपाण्यसंख्यानि पापानि विविधानि च ।

सद्य एव विनश्यन्ति त्रिपुण्ड्रस्य च धारणात् ।।४५।।

शिव द्रव्धपहरणात् शिवनिन्दाञ्च कुत्रचित् ।

निन्दाया: शिवभक्तानां प्रायश्चितन शुद्ध्यति ।।४६।।

इस प्रकार असंख्य पाप त्रिपुण्ड धारण करने मात्र से विनष्ट हो जाते है। शिवद्रव्यापहरण अथवा शिवनिन्दा करने से, किंवा शिवभक्त की निन्दा द्वारा जो पाप उत्पन्न होता है, वह प्रायश्चित से भी नष्ट हो सकता है ।।४५-४६।।

त्रिपुण्ड शिरसा धत्वा तत्क्षणादेव शुद्धयति ।

देवद्रव्यापहरणे ब्रह्मस्वहरणेन च ॥४७॥

देवता का द्रव्य अपहरण करना अथवा ब्रह्मस्वापहरण से जो पाप लगता है, वह त्रिपुण्ड्र धारण के साथ-साथ नष्ट हो जाता है ।।४७॥

कुलान्यग्नय एवात्र विनश्यन्ति सदाशिवे ।

महादेवि महाभागे ब्राह्मणाति क्रमेण च ।

कुलरक्षा भवत्यस्मात त्रिपुण्डस्य च सेवनात् ॥४८॥

रुद्राक्षे यस्य देहेषु ललाटेषु त्रिपुण्ड्रकम् ।

यदि स्यात् स च चण्डालः सर्ववर्णोतमोत्तमः ।।४९।।

यानि तीर्थानि लोकेऽस्मिन् गङ्गाद्या सरितश्च याः।

स्नातो भवति सर्वत्र यल्ललाटे त्रिपुण्ड्रकम् ॥५०॥

हे सदाशिव ! हे महादेवी! हे महाभागे ! ब्राह्मण का अपमान करने पर इसी जन्म में अपमानकारी विनाश को प्राप्त हो जाता है। इस स्थिति में भी त्रिपुण्डधारण द्वारा बंशरक्षा हो सकती है। जिनके शरीर रुद्राक्ष तथा ललाट पर त्रिपुण्ड है, वे चाण्डाल होने पर भी सर्वश्रेष्ठ है। जो ललाट पर त्रिपुण्ड धारण करते है, वे इस मृत्युलोक में तीर्थ है और पवित्र नदी में स्नान करने के समान पवित्र है ॥४८-५०॥

सप्तकोटिमहामंत्रा उपमंन्त्रास्तथैव च ।

श्री विष्णोः कोटि मन्त्रश्च कोटि मंन्त्रः शिवस्य च ।

से सर्वे तेन जप्ता च यो विति त्रिपुण्ड्रकम् ॥५१॥

जो ललाट पर त्रिपुण्ड्र धारण करता है, उसे उस फल की प्राप्ति होती है, जो फल करोड़ बार विष्णु के महामंत्र जप द्वारा तथा शिव के करोड़ मंत्र जप द्वारा प्राप्त होता है ॥५१॥

सहस्त्रं पूर्व जातानां सहस्त्रं च जनिष्यताम् ।

स्ववंशजातान् मर्त्यांना उद्धरेत् यस्त्रिपुण्डकृत ।।५२।।

षड़ेश्वर्य गुणोपेतः प्राप्य दिव्यवपुस्ततः ।

दिव्यं विमानमारुह्य दिव्यस्त्रीशतसेवितः ॥५३॥

विद्याधराणां सिद्धानां गन्धर्वाणां महौजसाम् ।

इन्द्रादिलोकपालानां लोकेषु च यथाक्रमम् ।।५४।।

जो त्रिपुण्ड धारण करता है उसके एक हजार पीढ़ी के पूर्व पुरुषों तथा एक हजार पीढ़ी के जन्म लेने वाले वंशजों का उद्धार हो जाता है । महिमा आदि षडैश्वर्य, दिव्य शरीर प्राप्त होता है और वे दिव्य विमान पर आरोहण करते हुये देवांगनाओं द्वारा सेवित हो जाते है। विद्याधर, सिद्ध, गन्धर्व एवं महातेजस्वी इन्द्रादि के लोकों का वह क्रमशः भोग करता है ।।५२-५४॥

भुक्त्वा भोगान् सुविपुलं प्रदेशानां पुरेषु च ।

ब्रह्मणः पदमासाद्य तत्र वल्पायुतं वसेत् ॥५५॥

विष्णुलोके च रमते आब्रह्मणः शतायुषम् ।

शिवलोके ततः प्राप्य रमतं कालमक्षयम् ।।५६।।

वहीं यथेच्छित भोग करते हुये अयुत कल्पों तक ब्रह्मा के पद पर प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर विष्णुलोक में, १०० ब्रह्माओं के काल पर्यन्त विराजित रहकर अक्षय काल तक शिवलोक में वास करता है ।।५५-५६।।

शिवसायुज्यमाप्नोति न स भूयोऽपि जायते ।

शेवे विष्णौ च सौर च गाणपत्येषु पार्वती ।।५७॥

हे पार्वती ! शैव, वैष्णव, सौर तथा गाणपत्य अथवा किसी भी सम्प्रदाय के व्यक्ति क्यों न हो, वे उसके द्वारा शिवसायुज्य प्राप्त कर लेते है। ये पुनः जन्म नहीं लेते ॥५७॥

शक्तिरूपा च या गीः स्यात तस्या गोमयसम्भवम् ।

भस्म तेषु महेशानि विशिष्ठं परिकीतितम् ।।५८।।

शैवोऽपि च बरारोहे सागुण्यं वरवणिनी ।

शक्ती प्रशस्तमोक्षं हि भस्म यौवन जीवने ।। ५९॥

अन्येषां गोकरीषेण भस्म शक्त्यादिकेष्वपि ।

सामान्यमेतत् सुश्रोणि विशेष शृणु मत्प्रिये ।।६०।।

गौ शक्ति रूपा है । गोमय से निर्मित भस्म विशिष्ट शक्ति प्रदायिका होती है। हे महेशानी ! यह तन्त्रों में कहा गया है।

हे वरवर्णिनी ! शैवगण सागुण्य प्राप्त करते हैं। शाक्तों के लिये भस्म यौवन तथा जीवन देने वाली है। अन्य लोगों के लिये भी यह हितकारी होती है। हे सुश्रोणी ! यह इसका सामान्य लक्षण गुण कहा गया । अब इसके विशिष्ट गुणों को सुनो ॥५८-६०॥

करीषभस्मादन होमं भस्म महाफलम् ।

होमं भस्मात कोटिगुणं विष्णुयोगं महेश्वरी ॥६१॥

शिव होमं तद्विगुणं तस्मात शृण सुन्दरी ।

स्वीयेष्ट देवता होम मनन्त प्रियवादिनी ॥६२।।

तन्माहात्म्यमहं वक्तु वक्त्रोटिशतैरपि ।

न समर्थों योगमार्गे किमन्यत कथयामि ते ॥६३।।

हे अनघे! करीष भस्म की तुलना में होम की भस्म का फल अधिक कहा जाता है। हे महेश्वरी ! होम भस्म की तुलना में विष्णुयोग की भस्म में कोटिगुण फल है । तदपेक्षा द्विगुणित फल शिवयोग की भस्म का है । हे सुन्दरी ! हे प्रियवादिनी ! अपने इष्ट देवता के लिये होम करने से उत्पन्न भस्म अनन्त फलप्रदादिका कही गयी है। सैकड़ों-करोड़ों मुख के द्वारा भी इसका माहात्म्य नहीं कहा जा सकता । योग मार्ग के सम्बन्ध में अधिक क्या कहूँ ॥६१-६३।।

होमः कलियुगे देवि जम्बूद्वीपस्य वर्षके ।

भारताख्ये महाकाली दशांशं क्रमत: शिवे ॥६४।।

नास्तिकास्ते महामोहे केवलं होममाचरेत् ।

लक्षस्वागयुतस्वापि सहस्त्रम्बा वरानने ॥६५॥

अष्टाधिकशतम्बापि काम्यहोमं प्रकल्पयेत् ।

नित्यहोमञ्च कर्तव्यं शक्त्या च परमेश्वरी ॥६६॥

प्रजपेन्नित्य पूजायामष्टोत्तर सहस्त्रकम् ।

अष्टोत्तरशतं पापि अष्ट पंञ्चाशतं चरेत् ।।६७।।

हे महाकाली ! हे देवी! कलियुग में जम्बूद्वीपान्तर्गत भारतवर्ष में क्रमशः दशांश हवन फलप्रद होता है। हे महामोहे ! जो नास्तिक है, ये केवल होम का अनुष्ठान करें। हे वरानने ! उस होम को लक्ष, अयुत अथवा सहस्त्र भी किया जा सकता है । कामनापूर्ति के लिये अष्टोत्तरशत भी किया जा सकता है। हे परमेश्वरी ! शक्ति के अनुसार नित्य होम का अनुष्ठान करना चाहिये।

नित्यपूजा काल में अष्टोत्तर सहस्त्र (१००८) जप करे । यदि इतना न कर सके तब १०८ या ५८ जप करे ॥६४-६७॥

अष्टविशत् संख्यकम्वा अष्टाविंशतिमेव च ।

अष्टादश द्वादशञ्च दशाष्टौ च विधानतः ॥६८।।

होमञ्चव महेशानि एतत्संख्या विधानतः ।

एवं सर्वत्र देवेशि नित्यकर्म महोत्सवः ।।६९।।

अथवा ३८, २८ जप करे। इतना भी न कर सके तब १८, १२, १० अथवा ८ जप अवश्य करे । हे महेशानी ! जप की संख्या के अनुसार होम करे । हे देवेशी ! इस प्रकार सर्वदा-सर्वत्र नित्यकर्म का महान् उत्सव का अनुष्ठान करता रहे ।।६८-६९॥

इत्थं प्रकारं यत् भस्म अंङ्गे संलिप्य साधकः ।

मालाञ्चैव महेशानि नरास्थ्यद्भत पूजितम् ॥७०।।

इस प्रकार से जो भस्म निर्मित होती है, उसका अपने अंगों में लेपन करके माला धारण करे मनुष्य के अस्थि की माला पहने ।।७०।।

गले दद्यादरारोहे शतश्चेत् दिव्यनासिके ।

रुद्राक्ष माल्यं संवायं ततः शृणु मम प्रिये ॥७१।।

एवं कत्या तया सार्द्ध पितभूमौ स्थितं मया ।

सुभगे श्रृणु सुश्रोणि रुद्राक्षं परमं पदम् ।।७२॥

हे दिव्य नासिका वाली ! नरास्थि की माला के अनन्तर रुद्राक्ष की माला पहने । हे प्रिये ! ऐसी माला धारण करके मैं तुम्हारे साथ श्मशान में रहता हूँ। हे सुश्रोणी ! हे सुभगे ! साधक का परमपद है रुद्राक्ष ।।७१-७२।।

सर्वपायक्षयकरं रुद्राक्षं ब्रह्मणीश्वरि ।

अभुक्तो वापि भुक्तो वा नीचा नीचतरोऽपि वा ।।७३।।

हे ब्रह्मणीश्वरी ! रुद्राक्ष सर्व पापों का नाश करता है। भोजन किये बिना, भोजन करके, जिस किसी भी अवस्था में, नीच व्यक्ति भी ।।७३।।

रुद्राक्ष धारयेत् यस्तु मुच्यते सर्वपातकात् ।

रुद्राक्षधारणं पुण्यं कैवल्य सदृशं भवेत् ।।७४।।

रुद्राक्ष धारण के द्वारा समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। यह अत्यन्त पुण्य कर्म है। इसे धारण करना ही मोक्ष के समान स्थिति कही गयी है ।।७४।।

महाव्रतमिदं पुण्यं त्रिकोटितीर्थ संयुतम् ।

सहस्त्रं धारयेत् यस्तु रुद्राक्षाणां शुचिस्मिते ।।७५।।

यह तीन कोटि तीर्थ भ्रमण के समान पुण्य दायक व्रत है । हे शुचिस्मिते! जो साधक सहस्त्र रुद्राक्ष धारण करता है वह-।।७५॥ .

तं नन्ति सुरा: सर्वे यथा रुद्रस्तथैव सः।

अभावे तु सहस्त्रस्य वाहवोः षोडश षोडश: ।।७६॥

समस्त देवगणों द्वारा उसी प्रकार से प्रणम्य हो जाता है, जैसे रुद्र ! अर्थात् उसमें तथा रुद्र में कोई भेद ही नहीं रह जाता । सहस्त्र रुद्राक्ष के अभाव में दोनों भुजाओं में १६-१६ ही धारण करे ॥७६।।

एक शिखायां कवचयोद्वादश द्वादश क्रमात् ।

द्वात्रिंशत् कण्ठदेशे तु चत्वारिंशत् शिरे तथा ।।७७।।

एक रुद्राक्ष शिखा में, द्वादश-द्वादश कवच में, ३२ (द्वात्रिशत ) रुद्राक्ष कण्ठ में और मस्तक पर ४४ (चत्वारिक्षत) रुद्राक्ष धारण करें ॥७७।।

उभयो कर्णयोः षट् षट् हृदि अष्टोत्तर शतम् ।

यो धारयति रुद्राक्षान् रुप्रवत् स च पूजितः ॥७८।।

६-६ रुद्राक्ष उभय कर्णों में, हृदय पर १०८ रुद्राक्ष धारण करे। ऐसा साधक जगत् में रुद्र के समान पूजित हो जाता है ।।७८।।

मुक्ता-प्रवल-स्फटिकैः सूर्येन्दु-मणि काश्चनैः।

समेतान् धारयेत यस्तु रुद्राक्षान् शिव एव सः ।।७९।।

मुक्ता, प्रवाल, स्फटिक, सूर्यकान्तमणि, चन्द्रकान्तमणि अथवा सुवर्ण के द्वारा ग्रथित रुद्राक्ष जो-जो धारण करता है, वह मनुष्य साक्षात् शिव के समान है ॥७९॥

केवलानपि रुद्रक्षान् यो वित्ति वरानने ।

तं न स्पृशन्ति पापानि तिमिराणीव भास्करः ।।८०॥

हे वरानने ! जो साधक केवल रुद्राक्ष धारण करता है, यह पापस्पर्श से रहित हो जाता है। उसी प्रकार जैसे कि अंधकार कभी भी सूर्य स्पर्श नहीं कर सकता ।।८०।।

रुद्राक्षमालया जप्तो मन्त्रोऽनन्त-फलप्रदः ।

यस्याङ्ग नास्ति रुद्राक्ष एकोऽपि वरणिनी ।

तस्य जन्म निरर्थ स्यात् त्रिपुण्ड्र रहितं यथा ॥८१॥

रुद्राक्ष माला द्वारा जप करने से अनन्त फल मिलता है। हे वरवर्णिनी ! जिसके अंगों में एक भी रुद्राक्ष नहीं है उसका जन्म उसी प्रकार निरर्थक है, जैसे त्रिपुण्ड रहित का होता है ।।८१॥

रुद्राक्ष मस्तके बद्धां शिर-स्नानं करोति यः।

गंगास्नान-फलं तस्य जायते नात्र संशयः ॥८२॥

जो व्यक्ति मस्तक पर रुद्राक्ष बन्धन करके सिर से स्नान करता है, उसे गंगा स्नान के समान फल मिल जाता है । यह निःसंदिग्ध है ।।८२।।

रुद्राक्षं पूजयेत् यस्तु बिना तोयाभिषेचनेः।

यत् फलं शिव पूजायां तदेवाप्नोति निश्चितम् ॥८३॥

जो जलाभिषेक से रुद्राक्ष पूजन करता है, उसे शिव पूजा जैसा फल प्राप्त होता है । यह भी निसंदिग्ध है ।।८३।।

एकवक्त्रैः पंञ्चवक्त्रैः-स्त्रयोदश-मुखैस्तथा ।

चतुर्दश मुखैजप्त्वा सर्वसिद्धिः प्रजायते ॥८४॥

एकमुखी, पंचमुखी, त्रयोदशमुखी अथवा चतुर्दशमुखी रुद्राक्ष से जप करने पर सर्वसिद्धि प्राप्त हो जाती है ।।८४।।

कि वहक्त्या वरारोहे कृत्वा गतिकमद्भुतम् ।

रुद्राक्षं यत्नतो धत्वा शिव एव स साधकः ॥८५॥

हे वरारोहे ! अधिक कहने का क्या प्रयोजन ! रुद्राक्षधारी शिव के समान हो जाता है ॥८५॥

भस्मना तिलकं कृत्वा पश्चात् रुद्राक्ष-धारणम् ।

प्राणायाम ततः कृत्वा संकल्प्योपास्य साधकः ॥८६॥

भस्म का तिलक लगाकर रुद्राक्ष धारण करे । तदनन्तर साधक प्राणायाम और संकल्प के द्वारा उपासना प्रारम्भ करे ॥८६॥

मूलमंत्र-सिद्धिकामः कुर्यांच्च वर्ण-पूजनम् ।

षत्रिंशत-वण-मालार्चा विस्तारोन्नति-शालिनी ।।८७।।

मूलमंत्र की सिद्धि के लिये वर्णमाला की पूजा करे। हे विस्तारोन्नतिशालिनी! ३६ वर्णमालाओं का पूजन विहित है ।।८७॥

विलिप्थ चन्दनं शुद्धं सर्ववर्गात्मके घटे ।

सर्वावयव-संयुक्तान् दिलिख्य मातृकाक्षरान् ।।८८।।

सर्ववर्णात्मक घट में विशुद्ध चन्दन का लेपन करके सर्व अवययों के साथ मातृकाक्षरों को लिखे । (घट का तात्पर्य पंचभूतात्मक देह भी है । अर्थात् सर्ववर्णयुक्त इस शरीर में मातृकाक्षरों की भावना करना चाहिये ) ॥८८॥

गुरु सम्पूज्य विधिवत घट-स्थापनमाचरेत् ।

पंञ्चाशन्मातृका-वर्णान् पूजयेत् विभवक्रमात ॥८९॥

विधिपूर्वक गुरुपूजा करके घट स्थापन करे । तदनन्तर अनुलोम क्रम से ५० मातृकाओं का पूजन करे ॥८९॥

सत्व स्वरूपिणी ध्यानम्

शुक्ल-विद्युत प्रतीकाशां द्विभुजां लोल-लोचनाम् ।

कृष्णाम्बर-परीधानां शुल्क-वस्त्रोत्तरीयिणीम ॥९०॥

सत्वस्वरूपिणी ध्यान-प्रफुल चित्त से पंचोपचार पूजन समापन करके ध्यान करे । विद्युत के समान भास्वर प्रकाशयुता, चपलनयना, द्विभुजा, कृष्णाम्बर परिधान युक्ता तथा शुभ वसन द्वारा रचित उत्तरीय वाली–।।९०॥

नानाभरण-भूषाड्यां सिंदूर-तिलकोज्वलाम् ।

कटाक्ष-विशिखोद्दीप्त अंजनाजित-लोचनाम् ॥९१॥

मंत्रसिद्धि प्रदां नित्यां व्यायेत. सत्व-स्वरूपिणीम् ।

रक्त-विद्युत प्रतीकाशा द्विभुजां लोल-लोचनाम् ।।९२।।

रन: स्वरूपिणी ध्यानम्

शुक्लाम्बर-परीधानां कृष्ण-वस्त्रोत्तरीयिणीम् ।

नानाभरण-भूषाड्यां सिन्दुर तिलकोज्यलाम् ।।९३।।

कटाक्ष विशिखोदीप्त-अञ्जनाजित-लोचनाम् ।

मंन्त्र-सिद्धि-प्रदा-नित्यां ध्यायेत रजः स्वरूपिणीम् ॥९४॥

जो विविध आभरण-भूषणादि के द्वारा सुशोभिता है, जो सिन्दुर तिलक के द्वारा उज्वल बनी है, जो कटाक्ष वाण से उद्दीप्त है, जिनके नेत्र अन्जन से चर्चित है, वे सतत् मन्त्र सिद्धिप्रदा, लोहित विद्युत समप्रभ, द्विभुजा, चपल नयना तथा सत्वस्वरूपिणी है।

रजः स्वरूपिणी ध्यान- जो शुल्क वस्त्र परिहिता, कृष्णवर्ण वस्त्र के उत्तरीय को धारण करने वाली विविध आभूषण और आभरणों से शोभयमान, सिन्दूर तिलक द्वारा सुशोभित, कटाक्ष बाणों से उद्दीप्त अंजन चर्चित नेत्र वाली सतत मन्त्र सिद्धिप्रदा रजः स्वरूपिणी का ध्यान करे ॥९४।।

तमः स्वरूपिणी ध्यानम्

भ्रमत-भ्रमर-संशशांदिभजां लोल-लोचनाम् ।

रक्त-वस्त्र परीधानां कृष्ण-वस्योत्तरीयिणीम् ।।९५।।

नाना भरण-भूषाइयां सिन्दुर-तिलकोज्वलाम ।

कटाक्षा-विशिखोद्दीप्त-भू-लता-परिसेविताम् ।।९६।।

मन्त्र सिद्धि-प्रदां नित्यां ध्यायेत्तमः स्वरूपिणीम् ।

जिनका वर्ण भ्रमर के समान है, जो चपल नयना तथा द्विभुजा है, जो रक्त वस्त्र धारण करनेवाली और काले कपड़े के उतरीय से शोभित है, जो नाना आभरण भूषण से युक्त और सिन्दूर तिलक से मण्डित हैं, जिनका कटाक्ष उद्दीप्त है, जो वृक्षों की शाखा तथा लताओं से परिसेविता है, जो मंत्रदायिनी है, उन तमः स्वरूपा बर्णमाला का ध्यान करे ।।९५-९६।।

ध्यात्वा पाद्यादिकं दत्त्वा त्रिगुणां पूजयेत् क्रमात् ॥९७॥

इस प्रकार वर्णमालाओं का (त्रिगुणा वर्णमाला का) यथाक्रम से पूजन करे । उन्हें अर्घ्य, पाद्य आदि प्रदान करे ॥९७॥

ॐ अंङ्गार-रुपिण्यै नमः पाद्यै :प्रपूजयेत् ।

आदि-ध्यानेन सुभगे यजेत् सत्व-मयीं पराम् ।।९८।।

‘ॐ अंगार रूपिण्यै नमः’ मंत्र का उच्चारण करते हुये पाद्यादि के द्वारा पूजन करे । हे सुभगे ! प्रथम ध्यान के द्वारा सत्यमयी वर्णमाला का ध्यान करे । ॥९८॥ (इसमें १७ वर्ण है)

ॐ कंङ्कार-रूपिण्यै नमः पाद्यादिभिर्यजेत् ।

क्रमात् सप्त-दशाणं हि द्वितीयं ध्यानमाचरन् ॥९९।।

‘ॐ कंकार रूपिण्यै नमः’ मन्त्र के द्वारा पाद्यादि से पूजन करे । और यथाक्रमेण सप्तदश वर्णयुता रजः मयी वर्णमाला का ध्यान करें ॥९९॥

ॐ दङ्कार रूपिण्यै नमः पाद्यादिभिर्यजेत् ।

क्रमात् सप्त-दशार्ण हि तृतीयं ध्यानमाचरम् ॥१००।

‘ॐ दङ्कार रूपिण्यै नमः’ मन्त्र का उच्चारण करते हुये पाद्य आदि से तृतीया वर्णमाला अर्थात् तामसी वर्णमाला का पूजन करने के परिचात् ध्यान करे ॥१००॥

एवं क्रमेण पञ्चाशत-वर्णं हि परिपूजयेत् ।

इति ते कथित भद्रे पञ्चाशद्वर्णपूजनम् ॥१०१॥

इस क्रम से पंचाशत् (५०) वर्णो का पूजन करें । हे भद्रे ! ५० वर्णों की पूजा विधि का उपदेश तुमको दिया ।।१०१।।

वर्णानां पूजनात भद्रे देव-पूजा प्रजायते ।

अणिमाद्यष्ट-सिद्धिनां पूजा स्यात वर्ण-पूजनात ॥१०२।।

हे भद्रे ! वर्णमाला पूजन ही देव पूजन है। इस पूजन के द्वारा अणिमा गरिमा प्रभृति अष्ट सिद्धि की भी पूजा हो जाती ॥१०२॥

सप्त-कोटि-महाविद्या उपविद्या तथैव च ।

श्री विष्णोः कोटि-मंत्रश्च कोटि-मंत्रः शिवस्य च ॥१०३॥

सप्तकोटि महाविद्या, उपविद्या, श्री विष्णु के कोटिमंत्र तथा शिव के कोटिमंत्र-।।१०३॥

पूजनात पूजित सर्व वर्णानां सिद्धि-दायकम् ।

प्रथमं प्रणवं दत्वा सहस्त्रं कुण्डली-मुखे ॥१०४॥

आदि की भी पूजा वर्णपूजा से ही सम्पन्न हो जाती है। सर्वप्रथम कुण्डली मुख में एक सहस्त्र प्रणव का उपकार प्रदान करे ॥१०४॥

मलविद्यां ततो भद्रे सहस्त्र-युगलं जपेत ।

ततस्तु सुभगे मातज्जयेच्च दीपनी-पराम ॥१०५॥

इसके अनन्तर दो सहस्त्र मूलमंत्र का जप करे। हे सुभगे ! तदनन्तर उत्कृष्ट दीपनी संज्ञक मंत्र का जप करे ॥१०५॥

आदी गायत्रीमुच्चार्य मलमंत्रं तत: परम् ।

प्रणवञ्च ततो भीमे त्रयाणां सहयोगतः ॥१०६॥

प्रथमतः गायत्री का उच्चारण करके मूलमंत्र जपे । हे भीमे ! इसके पश्चात् प्रणव का उच्चारण करे । गायत्री, मूलमंत्र तथा प्रणव का मिलाकर जप करना चाहिये ॥१०६॥

सदेवेनां महेशानि दीपनी पीरकीतितम ।

एतामपि सहस्त्रञ्च प्रजपेत कुण्डली मुखे ॥१०७।।

हे महेशानी ! इस प्रकार इन तीनों का एक साथ मिलित जप ही दीपनी जप है । कुण्डली मुख में एकमात्र दीपनी का ही जप करे ॥१०७॥

प्रणवादी जपे द्विधां गायत्री दीपनी पराम ।

गायत्री श्रृणु वक्ष्यामि अं डंत्रणं नं मं मे प्रिये ॥१०८॥

‘अं ङं ञं णं नं मं ही गायत्री है । हे वर्णिनी ! प्रणव के आदि में गायत्री मंत्र (दीपनी विद्या का) जप करे ॥१०८॥

षडक्षर मिदं मंत्रं गायत्री समुदीरितम ।

अस्याश्च फलमाप्नोति तदेव वणिनी॥१०९॥

इसी षडक्षर मंत्र को गायत्री कहते हैं। इस गायत्री जप का फल तत्काल मिलता है ॥१०९॥

स्मरणं कुण्डलीमध्ये मनसी उन्मनी सह ।

सहस्त्रारे कणिकायां चन्द्रमण्डल-मध्यगाम ॥११०॥

(गायत्री को) कुण्डलिनी में उन्मनी के साथ स्मरण करे। सहस्त्रार की कर्णिका में जो चन्द्रमण्डल विराजित है उस चन्द्र मण्डल के मध्य में स्थिता ॥११०॥

सर्व-संकल्प-रहिता कला सप्तदशी भवेत ।

उन्मनी नाम तस्य हि भव-पाश-निकृन्तनी॥१११॥

समस्त संल्कल्प रहिता सप्तदशी कला को ही उन्मनी कहते हैं । यह भव-बन्धन कर्तनकारिणी है ॥१११॥

उन्मन्या सहितो योगी न योगी उन्मनीं बिना ।

बुद्धिमंकुश-संयुक्तामुन्मनी कुसुमान्विताम् ।।११२।।

जो उन्मनी में विराजित है, वे ही योगी है। इस अवस्था से रहित को योगी नहीं कहा जा सकता। बुद्धिरूपी अंकुश से संयुक्ता उन्मनी कुसुभान्वित ॥११२॥

उन्मनीञ्च मनोवर्णं स्मरणात् सिद्धि-दायिनीम् ।

स्मरते कुण्डली-योगादमृतं रक्त-रोचिषम् ॥११३॥

सिद्धि प्रदायिनी उन्मनी तथा मन्त्रवर्ग का स्मरण करते हुये लोहित कान्ति युक्त अमृत का कुण्डली योग के द्वारा स्मरण करो ॥११३॥

उन्मनी-कुसुमं तन्तु ज्ञेयं परमदुर्लभम् ।।११४।।

सिद्धिदायिनी उन्मनी कुसुन्मान्वित होकर अत्यन्त दुर्लभ हो जाती हैं ॥११४॥

हंसं नित्यमनन्त मध्यमंगुणं स्वाधारतो निर्गता ।

शक्तिः कुण्डलिनी समस्त-जननी हस्ते गृहीत्वा च तम् ।

वान्ती स्वाश्रममर्क-कोटि-रूचिरा नामामृतोल्लासिनी ।

देवीं तां गमनागमै:-स्थिर-मतिायेत् जगन्मोहिनीम् ।।११५।।

सबकी जननी कुण्डलिनी देवी कोटिसूर्य के समान दीप्ति युक्त हैं। वे सर्वदा नामामृत से उल्लासिनी होती रहती हैं। वे मूलाधार से निर्गत होकर अनन्त मध्यमगुण हंस का वमन करती रहती हैं, सुषुम्ना मार्ग से निरन्तर हं तथा सः शब्द श्वास का आश्रय लेकर आते-जाते रहते हैं। यह हंस ही जीवात्मा है। जगत् को मोहित करने वाली कुण्डलिनी देवी का अहोरात्र ध्यान करो ॥११५॥

इति ते कथितं ध्यानं मृत्युञ्जयमनामयम् ॥११६॥

विना मनोन्मनी मंत्रं बिना ध्यानं जपं वृथा ।

तत: संकल्प ध्यात्वैव मलमंत्रस्य सिद्धये ॥११७॥

गायत्रीमयुतं जप्त्वः तदर्द्ध’ प्रणवं जपेत् ।

दीपनं प्रणवस्यार्द्ध जपेत् पंञ्च-दिनावधि ॥११८॥

यही है निरोग कारक मृत्युञ्जय ध्यान ।

उन्मनी मंत्र के अभाव में, तथा ध्यान के अभाव में जप निष्फल हो जाता है। अतएव मूलमंत्र सिद्धि के लिये संकल्प करके अयुत संख्यक गायत्री का जप करे। इसे करने के अनन्तर इससे आधी संख्या में प्रणव जप करे। प्रणव से आधी संख्या में पांच दिन तक दीपन विद्या का जप करे ॥११६-११८॥

शवाणां प्रणवं देवि चतुर्दश-स्वर-प्रिये ।

नाद-विन्दु-समायुक्तं स्त्रीणाञ्चैव वरानने ॥११९॥

हे देवि ! शूद्र तथा स्त्री के लिये नादविन्दु युक्त चतुर्दश स्वर का ही प्रणव के स्थान पर उच्चारण करना चाहिये । हे वरानने ! उन्हें प्रणव के स्थान पर नाद-विन्दु समायुक्त चतुर्दश स्वर का जप करना विहित है, यथा- अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋॄं लृं लॄं एं ऐं ओं औं ॥११९॥

मनौ स्वाहा च या देवी शूद्रोच्चार्या न संशयः ।

होमकायें महेशानि शूद्रः स्वाहां न चोच्चरेत् ॥१२०॥

मंत्र में स्वाहा का उच्चारण शूद्र भी कर सकते है, परन्तु हे महेशानी ! होम का अनुष्ठान करते समय शूद्रगण को स्वाहा का उच्चारण नहीं करना चाहिये ॥१२०॥

मन्त्रोप्यहो नास्ति शुद्रे विपबीजं विना प्रिये ।

गणपत्यादी यत् दत्तं बलिदान दिने-दिने ।।१२१।।

प्रणवातिरिक्त कोई भी मंत्र शुद्र के लिये नहीं है । प्रतिदिन गणेश के लिये वलिदान देना चाहिये ॥१२१॥

तेनैव बलिना भद्रे हविष्यं सम्मतं सदा ।

शेष इष्टं प्रपूज्याथ हविण्याशी स्त्रिया सह ॥१२२॥

सर्वदा इसी बलिदान दत्त अन्न के द्वारा हविष्य बनाना तांत्रिक के लिये उचित है। इसके पश्चात् इष्ट पूजा करके पत्नी के साथ हविष्याशी हो जाये ॥१२२॥ (परन्तु स्त्री को हविष्याशी नहीं होना चाहिये, जैसा श्लोक संख्या १२५ में अंकित है)

जापकस्य च यन्मन्त्रमेकवर्णं ततः प्रिये ।

तस्य पत्नी शक्तिरूपा प्रत्यहं प्रजयेत् यदि ॥१२३।।

तदा फल मवाप्नोति साधक: शक्ति-संङ्गतः।।

शक्तिहीने भवेदुःखं कोटि-पुरश्चरणेन् किम् ॥१२४॥

हे प्रिये ! जिस जपकर्ता का एक वर्णात्मक मंत्र है, उसकी शक्तिरूपिणी पत्नी को भी उसी मंत्र का नित्य जप करना चाहिये।

यदि साधक की शक्तिरूपा पत्नि उस एक वर्ण मन्त्र का जप करती है, उस स्थिति में साधक को भी शक्ति संग के कारण फल लाभ होता है। शक्ति के अभाव में दुःख मिलता है । वह दुःख करोड़ों पुरश्चरणों द्वारा भी खण्डित नहीं होता ॥१२३-१२४॥

साधकस्य हविष्याशी साधिका तद्विजिता ।

यथेच्छा भोजनं तस्यास्ताम्बूल-पूरितानना ।।१२५।।

नानाभरण वेशाड्या धूपामोदन-मोदिता ।

शिव-हौना तु या नारी दुरे तां परिवर्जयेत ॥१२६॥

साधक को हविष्याशी होना चाहिये । साधिका को हविष्याशी नहीं होना चाहिये । यथेच्छा भोजन करके ताम्बूल से मुख को आपूरित करे।

नाना आभरण-वेशभूषा द्वारा साजसज्जा करके धूप प्रभृति सुगन्धित से सर्वदा वह साधिका आमोदिता हो । शिवहीन नारी के सान्निध्य का वर्णन करे । ॥१२५-१२६॥

श्री देव्युबाच

गायत्री-जपकाले तु साधिका कि जपेत् प्रभो ॥१२७॥

श्री देवी कहती है-हे प्रभो ! गायत्री जपकाल में साधिका किस मंत्र को जपे ? ॥१२७॥

श्री शिव उवाच

गायत्रीमजपा-विद्यां प्रजपेत् यदि साधिका ।

पूर्वोक्तेन विधानेन ध्यात्वा कृत्वा च पूजनम् ।।१२८॥

श्री शिव कहते हैं- यदि साधिका अजपा गायत्री का जप करे ( हंसः ही अजपा गायत्री है ) उस स्थिति में उसे पूर्वोक्त विधि से पूजन तथा ध्यान करना चाहिये ।।१२८।।

मानसं परमेशानि जपेत्तद्गतमानसा ।

ततः पष्टदिनं प्राप्य प्रातः स्नानं समाचरेत् ।।१२९।।

हे परमेशानी ! इष्टदेवता से तद्गत चित्त होकर मानस जप करे और उसके पश्चात् छठे दिन प्रातः स्नान करे ।।१२९॥

कुकुमागुरु-पंङ्कन कस्तूरी-चन्दनेन च ।

कर्मबीजं लिखेत् भद्रे अथवा श्वेत चन्दनः ॥१३०।।

हे भद्रे ! कुंकूम तथा अगुरु तथा चन्दन द्वारा अथवा केवल श्वेत चन्दन से कूर्मबीज लिखना चाहिये ॥१३०॥

तत्रासनं समास्थाय विशेत् साधकसन्निधौ ।

एवं विधाय या साध्वी साधकोऽपि प्रसन्नधीः ।।१३१॥

वह साध्वी साधिका बहाँ आसन स्थापन करके साधक के साथ बैठे और उसे साधक भी प्रसन्न मन से अंगीकृत करे ॥१३१॥

संकल्प्य विधिना भक्त्या मलमंत्रस्य सिद्धये ।

लक्षं जपेत् पुरश्चर्या-विधौ विधि विधानतः ।।१३२।।

तद्विधानं वदामीशे-श्रुत्वा त्वमवधारय ।।१३३॥

मूलमंत्र की सिद्धि के लिये संकल्प करके विधिपूर्वक मूलमंत्र का जप लक्ष बार करे । हे ईश! इसका विधान मैं कहता हूँ, तुम उसका श्रवण एवं अवधारण करो ॥१३२-१३३॥

ॐ ॐ के भंसं देवि-प्रात:स्नानोत्तरं परम् ।

दशधा प्रजपेन्मत्रं जिह्वा-शोधन-कारकम् ।।१३४।।

हे देवि ! पहले प्रातः स्नान करे । तदनन्तर जिह्वाशोधनकारी ॐ ॐ कं हुं भं सं मन्त्र का दस बार जप करे ॥१३४॥

ततश्च प्रजपेन्मन्त्रं मौनी मध्यन्दिनावधि ।

तस्य वामे तस्य पत्नी तस्य एकाक्षरं जपेत् ।।१३५।।

तत्पश्चात् मध्य दिवस ( मध्याह्न) तक मौन धारण करके मन्त्र जप करे । साधक के वामभागस्थ उसकी पत्नी भी एकाक्षर मंत्र का जप करे ।।१३५॥

साधक: शिव रूपश्च साधिका शिवरूपिणो ।

अन्योन्य-चिन्तनाच्चैव देवत्वं जायते ध्रुवम् ॥१३६।।

अदावन्ते च प्रणवं दत्वा मन्त्र जपेत् सुधीः ।

दशधा वा सप्तदशं जप्त्वा मन्त्र जपेत्तसः ॥१३७॥

साधक शिवरूप है, साधिका शक्तिरूपा है। पारस्परिक रूप से एक दूसरे का चिन्तन करने से देवत्व लाभ हो जाता है। (साधक साधिका का और साधिका साधक का चिन्तन करे ।।१३६।।

साधक मूलमंत्र के साथ आदि एवं अन्त में प्रणव युक्त करके जप करे । साधक प्रथमतः १० बार अथवा १७ बार जप करते हुये (प्रणव का ) प्रधान जप प्रारम्भ करे ।।१३७॥

एवं हि प्रत्यहं कुर्यात यावल्लक्षं समाप्यते ।

प्रातःकाले समारभ्य जपेन्मध्यन्दिनावधि ।।१३८॥

द्वितीय-प्रहरादूर्व नित्य-पूजादिकं चरेत् ।

स्तानं कृत्वा ततो धीमान् हविष्यं वुभुक्ते ततः ।

तत्पत्नी शक्तिरूपा च पतिव्रत्य-परायणा ।

तस्या चेच्छा भवेत येषु बुभुजे पानभूषिता ॥१३९॥

प्रातःकाल से प्रारम्भ करके मध्याह्न तक जप करे। इस प्रकार जब तक एक लाख जप पूर्ण न हो तब तक जप करता रहे ।

द्वितीय प्रहर के उर्ध्वकाल में नित्य पूजादि करे । बुद्धिमान साधक हविष्यान्न का भोजन स्नान के पश्चात् करे । शक्तिरूपा पातिव्रत्य परायणा साधक पत्नी कारण पान करके इच्छानुरूप भोजन करे। ( उसके लिये हविष्यान्न का विधान नहीं है ) ॥१३८-१३९॥

दशदण्ड गते रात्री शव्यायां प्रजपेन्मनम ।

ताम्बूल पूरित मुखो धूपामोदन मोदितः ॥१४०॥

दशदण्ड रात्रि व्यतीत हो जाने पर ताम्बूलपुरित मुख करके तथा धूप की सुगन्ध से आमोदित होकर शय्या पर बैठ कर मंत्र जप करे ।।१४०॥

वामेः श्रीशक्तिरूपा च जपेच्च साधकाक्षरम् ।

दक्षिण साधकः सिद्धो दिवामाने जपेन्मनम् ।।१४१॥

आद्यन्त-गोपनं कृत्वा प्रत्यहं प्रजपेत यदि ।

तत:-सिद्धिमवाप्नोति प्रकाशाद्धानिरेव च ।।१४२।।

साधक के वामभाग में शक्तिरूपिणी पत्नी निविष्ट एकाग्र चित्त से मन्त्र जप करे और दक्षिण भागस्थ साधक स्वयं भी यदि आदि से अन्तपर्यन्त गोपन रखते हुये जप करता है, तब उसे सिद्धि अवश्य मिलेगी। गोपनीयता न रखने पर हानि हो जाती है ।।१४१-१४२॥

मातृका-पुटित कृत्वा चन्द्रविन्दु-समन्वितम् ।

प्रत्यहं प्रजपेन्मन्त्रमनुलोम-विलोमतः॥१४३॥

जपादौ सुभगे प्रौढ़ प्रत्यहं प्रजपेन्मनम ।

तेन हे सुभगे मात: पुरश्चरणमीरितम् ।।१४४।।

समाप्ते पुरश्चरणे गुरुदेवं प्रपूजयेत् ।

तदा सिद्धो भवेन्मन्त्री गुरुदेवस्य पूजनात ॥१४५।।

चन्द्र बिन्दु संयुक्त मातृका सम्पुटित करके प्रतिदिन अनुलोम-विलोम क्रम से मन्त्र जप करें। हे सुभगे ! इस प्रकार प्रतिदिन जप करना ही पुरश्चरण है। तदनन्तर ( पुरश्चरण के पश्चात् ) विधि पूर्वक गुरुपूजा करे। उपरोक्त विधि से पुरश्चरण करने पर गुरु पूजा द्वारा इस कलिकाल में भी मन्त्र सिद्धि हो जाती है ॥१४३-१४५।।

जम्बूद्वीपस्य वर्षे च कलिकाले च भारते ।

दशांशं वर्जयेत भद्रे नास्ति होमः कदाचन ।।१४६॥

दशाशं कमतो देवि पञ्चाङ्ग विधिना कली ।

नाचरेत् कुत्रचिन्मन्त्री पुरश्चर्याविधि शुभे ।।१४७।।

भ्रमात् यदि महेशानि कारयेत् साधकोत्तमः ।

सिद्धिहानिमहानिष्ठं जायते – भारतेऽनघे ॥१४८॥

कलिकाल में कदापि दशांशक्रम से होमानुष्ठान नहीं होता। विधिपूर्वक पंचांग युक्त पुरश्चरणानुष्ठान करें। जप संख्या के दशांश संख्यक मन्त्र के द्वारा होम, होम का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश अभिषेक और अभिषेक का दशांश ब्राह्मण भोजन ही पंचांग है। हे महेशानी ! यदि कोई साधक भ्रान्तिवशात् इस भारत वर्ष में उपरोक्त दशांग युक्त पुरश्चरण की प्रेरणा किसी व्यक्ति को देता है, तब उसकी सिद्धिहानि होती है और महान् अनिष्ट हो जाता है ( अर्थात भारतवर्ष के बाहर दशांश युक्त पंचाग से पुरश्चरणानुष्ठान करे परन्तु भारतवर्ष में इसका विधान नहीं है) ॥१४६-१४८।।

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