केनोपनिषत् || Kenopanishat Part 1-2
सामवेदीय ‘तलवकार ब्राह्मण’ के नौवें अध्याय में इस उपनिषद का उल्लेख है। यह एक महत्त्वपूर्ण उपनिषद है। इसमें ‘केन’ (किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे ‘केनोपनिषद’ अथवा केनोपनिषत् अथवा केनोपनिषद् अथवा केन उपनिषद कहा गया है। इसके चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है।
केनोपनिषद अथवा केनोपनिषत् अथवा केनोपनिषद् अथवा केन उपनिषद
केनोपनिषत् प्रथम और द्वितीय खण्ड
॥ केनोपनिषत् शान्तिपाठ ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि ।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं
माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु ।
तदात्मनि निरते य
उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इसका भावार्थ कुण्डिका उपनिषद् में देखें।
केनोपनिषत् प्रथम खण्ड
॥ अथ केनोपनिषत् ॥
प्रथम खण्ड
ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः
केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः ।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति
चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ॥ १॥
ॐ किसकी इच्छा से प्रेरित होकर मन गिरता है । किसके द्वारा नियुक्त होकर वह श्रेष्ठ प्रथम प्राण चलता है । किसकी इच्छा से इस वाणी द्वारा बोलता है । कौन देव चक्षु और श्रोत्र को नियुक्त करता है ॥१॥
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्
वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः ।
चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ २॥
जो श्रोत्र का भी श्रोत्र है । मन का भी मन है । वाणी का भी वाणी है । वही प्राण का भी प्राण है और चक्षु का भी चक्षु है । धीर पुरुष उसे जानकर, जीवन्मुक्त होकर, इस लोक से जाकर जन्म-मृत्यु से रहित हो जाते हैं ॥२॥
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः ।
न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात् ॥ ३॥
न वहाँ चक्षु पहुँच सकता है । न वाणी जा सकती है । न मन ही पहुँच सकता है । न बुद्धि से जान सकते है । न औरों से सुनकर । उसे कैसे बतलाया जाय ॥३॥
अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि ।
इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्व्याचचक्षिरे ॥ ४॥
वह विदित से भी परे है और अविदित से भी परे है । ऐसा ही हमने अपने पूर्व पुरुषों से सुना है । जिन्होंने हमारे प्रति उसकी व्याख्या की थी ॥४॥
यद्वाचाऽनभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ५॥
जो वाणी से प्रकाशित नहीं है, अपितु जिससे वाणी प्रकाशित होती है । उसी को तुम ब्रह्म जानो । उसे नहीं, जिसकी यह लोक उपासना करता है ॥५॥
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ६॥
जिसे मन द्वारा मनन नहीं किया जा सकता, अपितु मन जिससे मनन करता हुआ जाना जाता है । उसी को तुम ब्रह्म जानो । उसे नहीं, जिसकी यह लोक उपासना करता है ॥६॥
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ७॥
जिसे चक्षु के द्वारा नहीं देखा जा सकता, अपितु जिससे चक्षु देखता है । उसी को तुम ब्रह्म जानो । उसे नहीं, जिसकी यह लोक उपासना करता है ॥७॥
यच्छ्रोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ८॥
जिसे श्रोत्र के द्वारा नहीं सुना जा सकता, अपितु श्रोत्र जिससे सुनता है । उसी को तुम ब्रह्म जानो । उसे नहीं जिसकी यह लोक उपासना करता है ॥८॥
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ९॥
जो प्राण के द्वारा प्राणित नहीं है, अपितु प्राण जिससे प्राणित होता है । उसी को तुम ब्रह्म जानो । उसे नहीं जिसकी यह लोक उपासना करता है ॥९॥
॥ इति केनोपनिषदि प्रथमः खण्डः ॥
केनोपनिषद अथवा केनोपनिषत् अथवा केनोपनिषद् अथवा केन उपनिषद
केनोपनिषत् द्वितीय खण्ड
॥ अथ केनोपनिषत् ॥
द्वितीय खण्ड
यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि
नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम् ।
यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु
मीमाँस्यमेव ते मन्ये विदितम् ॥ १॥
यदि ऐसा मानते हो कि ‘मैं अच्छी तरह जानता हूँ’ । तो तुम निश्चय ही ‘ब्रह्म’ का थोड़ा सा ही रूप जानते हो । इसका जो स्वरुप तुझमे है और जो देवताओं में है, वह भी थोड़ा ही है । इसलिए तेरा ऐसा माना हुआ कि ‘जानता हूँ’ निःसंदेह विचारणीय है ॥१॥
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥ २॥
न तो मैं यह मानता हूँ कि ‘जानता हूँ’ और न यह मानता हूँ कि ‘नहीं जानता’ । अतः जानता हूँ । जो उसे ‘न तो नहीं जानता हूँ’ और ‘न जानता ही हूँ’ इस प्रकार जानता है, वही जानता है ॥२॥
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥ ३॥
जो मानता है कि वह जानने में नहीं आता, उसका वह जाना ही हुआ है । जो मानता है कि वह जानता है, वह नहीं जानता । वह जानने वालों का नहीं जाना हुआ है और नहीं जानने वालों का जाना हुआ है ॥३॥
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते ।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥ ४॥
इस प्रतिबोध को जानने वाला ही वास्तव में जानता है । इससे ही अमृतत्व को प्राप्त होता है । उस आत्म से ही शक्ति प्राप्त होती है जबकि विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है ॥४॥
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ ५॥
इस देह के रहते हुए जान लिया तो सत्य है । इस देह के रहते हुए नही जाना पाया तो महान विनाश है । धीर पुरुष सभी भूतों में उसे जानकर, इस लोक से प्रयाण कर अमर हो जाते हैं ॥५॥
॥ इति केनोपनिषदि द्वितीयः खण्डः ॥
केनोपनिषद अथवा केनोपनिषत् अथवा केनोपनिषद् अथवा केन उपनिषद